nayaindia हिरोशिमा में तिहरे खतरे के बादल!
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हिरोशिमा में तिहरे खतरे के बादल!

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विश्व की शक्ल बदल रही है। वजह पृथ्वी और मनुष्य दोनों के दुर्दिन हैं। पृथ्वी का मिजाज, उसकी इम्यून क्षमता, जहां मनुष्यजनित और प्रकृतिगत बीमारियों से बिगड़ती हुई है वहीं मानव सभ्यता बुद्धि की पांचवीं और संभवतया आखिरी क्रांति से अपने दिमाग को गंवाने का खतरा लिए हुए है। मनुष्य बुद्धि का मशीनी टेकओवर संभव है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस याकि मानव निर्मित नकली बुद्धि की वह एक असेंबली लाइन, जिस पर नए सिरे से होमो सेपियन की गढ़ाई होगी। वैसे ही जैसे कभी प्राचीन काल में धर्म ने इंसान को भिन्न-भिन्न ठप्पों का बनाया था। बहुत संभव है इसी सदी में मनुष्य प्रकृति की असमानताओं के आधार पर इंसान का नए सिरे से मानकीकरण हो। निश्चित ही पृथ्वी और मनुष्य की जैविक रचना यथावत है। जैसी थी वैसी है और रहेगी। बावजूद इसके रेगिस्तान यदि नखलिस्तान हो जाए और उत्तरी व दक्षिणी धुव्र रेगिस्तानी गर्मी में पिघलकर उपजाऊ मैदान हो गए तो सौ वर्षों में पृथ्वी का भूगोल व शक्ल तो बदली ही मानेंगे। अगले सौ वर्षों में भूगोल, आबोहवा, रूप-रंग, प्रकृति सभी में पृथ्वी नई शक्ल लिए हुए होगी। ऐसे ही दस-बारह अरब लोगों की मानव जाति की असमानताएं भिन्न ब्रांड- मिजाज की शक्लों से चिन्हित होगी। वैसे ही जैसे पुराण कथाओं से राम-रावण, वानर सेना-असुर सेना, देवलोक-असुरलोक, ऋषिजन-बर्बर, बुद्धिमान-गंवार, मालिक-गुलाम की प्रकृति में विभिन्न तरह के चेहरों का दिमाग में इलहाम बनता है।

कल्पना करें, वर्ष 2100 के विश्व की। भूगोल में नए रेगिस्तान, नए बंजर, लु्प्त हुए या नए बने द्वीपों, नए सागर, नए मैदानों से पृथ्वी खौलती और भभकती हुई। इतनी छोटी अवधि में इतना बड़ा परिवर्तन! ऐसा ही मनुष्यों को साथ होना है। आम इंसान के बस में कुछ भी नहीं होना। सत्य-तथ्य है कि अब तक का विकास मानव द्वारा अपने हाथों, स्वंय की बुद्धि और दिमाग से है। होमो सेपियन का पूरा सफर उसका खुद का। उसने खुद जगंली जीवन से शिकारी जीवन बनाया। फिर खेतिहर हुआ। 1760 की औद्योगिक क्रांति से वह उत्पादक-मजदूर बना। यह सब मनुष्य दिमाग के बौद्धिक विस्तार से था। मानव मष्तिष्क की चेतना, ओजस्विता से तीन-चार हजार वर्षों में जंगली पशु से शुरू होमो सेपियन का रूपांतरण शिकारी, कृषक, मजदूर, मशीनी, ग्लोबल, डिजिटल, इंटेलीजेंट-रोबो व कृत्रिम् बुद्धि के एक के बाद एक सोपान पाता गया। उसका आधुनिक अस्तित्व हर तरह से स्वनिर्मित!

उस नाते विचारें तो क्या लगेगा नहीं कि अपनी पृथ्वी से शेष ब्रह्मांड ईर्ष्या करता हुआ होगा! ब्रह्मांड में किसी ग्रह-उपग्रह पर पृथ्वी जैसी जैविक व्यवस्था यदि होगी और वह पृथ्वी को आब्जर्व करते हुए हुई तो यह जलन होगी कि पृथ्वी और उसकी मनुष्य प्रजाति ने अपने बौद्धिक बल से अपना क्या खूब वैभव बनाया। वह अंतरिक्ष तक को खंगालते हुए!

और अब लंबे सफर का मानों अंतिम मुकाम। इसलिए कि होमो सेपियन ने वह मशीनी दिमाग-माइंड बना डाला है जो जैविक मनुष्य दिमाग से सीमाहीन सुपरफास्ट है। जिसकी सोचने की तेजी, प्रक्रिया क्वांटम कंप्यूटिंग वाली। वह वक्त गया जब गति और तेजी को मनुष्य हार्स पावर, गीगा बाइट जैसे जुमलों में डिफाइन करता था। आगे बहुत जल्द करोड़ों-अरबों लोगों के डेटा और उनकी सामूहिक बुद्धि क्षमता की ताकतों को यह मशीन संग्रहित किए हुए होगी। और वह फिर क्वांटम कंप्यूटिंग प्रोसेसिंग से मनुष्य को चलाती हुई! तब आम आदमी सौ टका अपने हाथ के उस फोन से काम करता हुआ होगा।

मतलब वह वक्त आता हुआ है कि जब मुझे और आपको, मानव समाज, प्रशासन-सरकार किसी को दिमाग खपाने की जरूरत नहीं होगी। इसलिए क्योंकि वैज्ञानिकों ने जैविक दिमाग से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान, जानकारियों, सवालों, समस्याओं सबको संग्रहित कर लिया है। मनुष्य स्मृतियों का सुपर भंडारण और उसकी मशीनी प्रोसेसिंग का विकास बना डाला है। सो, नकली दिमाग वह सब करेगा जो जैविक-असली दिमाग करता आया। इसी का नाम मानव विकास की पांचवीं क्रांति है। मैं इसे मनुष्यों के जैविक दिमाग की आखिरी क्रांति समझता हूं। इसलिए क्योंकि इसके बाद विकास की क्रांतियां मशीनी दिमाग से हुआ करेगी। नकली दिमाग के आगे असली दिमाग आउटडेटेड, आलसी और अचेत हो चुका होगा।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की इस पांचवीं मनुष्य क्रांति के अर्थ में एक-दो जुमले बारीक अर्थ लिए हुए हैं। एक तो यह कि जो सर्वाधिक फिट, योग्यतम उसी का अस्तित्व लेकिन इसके साथ दूसरी अनिवार्यता तेज गति की भी। दूसरे शब्दों में योग्यतम की उत्तरजीविता संग तेजी (the fittest to survival of the quickest) के विकास का पर्याय है पांचवीं क्रांति।

जाहिर है नई क्रांति ‘फिटेस्ट’ और ‘फास्ट’ का ब्रह्म वाक्य लिए हुए। तीसरे सत्व-तत्व की जुमला है- वैयक्तिकरण। मतलब मशीनी दिमाग जहां पृथ्वी के सभी आठ अरब मनुष्यों की जन्मपत्री और जिंदगी का सामूहिक डेटा लिए हुए होगा तो एक-एक इंसान की जरूरत के अनुसार उसको वह वैयक्तिक तौर पर बुद्धि देते हुए भी। कह सकते हैं एक-एक व्यक्ति को गाइड करते हुए, उसके काम करते हुए। मतलब मनुष्य बुद्धि को अनावश्यक बना देने की क्रांति का नाम है आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस। हर व्यक्ति के लिए चंद सेकेंड में ‘क्विकेस्ट’ समाधान और हर काम ऑटोमेटिक अंदाज में। सब स्वचालित। तभी यह दुनिया के थिंक टैक भविष्यवाणियां कर रहे हैं कि आने वाले दशकों में लोगों का काम करना बंद हो जाएगा। उन्हें घर बैठे यूनिवर्सल तनख्वाह देनी होगी। आठ-दस सालों में पचहतर प्रतिशत नौकरियां खत्म हो जानी हैं।

सबसे बड़ी बात यह कि आगे का सारा विकास मशीनी दिमाग है। आगे के परिवर्तन सुपर रफ्तार में। दस-बीस साल बाद याकि सन् 2040 में छठी क्रांति, 2070 में सातवीं, 2090 में आठवीं क्रांति होना इसलिए तय है क्योंकि आगे क्वांटम कंप्यूटिंग गति में मशीनी बुद्धि विकास कराएगी। बीस साल बाद संभव होगा कि फोन-घड़ी का सेंसर मनुष्य दिमाग की सोच, जरूरत को पढ़ते हुए कृत्रिम दिमागी कनेक्शन से उसके काम करें। उसकी गतिविधियों-स्वभाव की वह चालक हो।

विश्वास नहीं हो रहा? होना भी नहीं चाहिए। यही आम इंसान की बेसिक समस्या है। मनुष्य ने अपने हाथों, अपनी बुद्धि से अपने को शिकारी, खेतिहर, मजदूर और आधुनिक बनाया लेकिन बिना यह बूझे हुए कि उसका सारा विकास उसके वैयक्तिक जीवन का हरण है। व्यक्ति और उसके दिमाग को भला कैसे समझ आ सकता है कि हो क्या रहा है और जो उसकी कथित क्रांतियां है वे सब उसकी स्वतंत्रता, उसके दिमाग-माइंड की चेतना की कीमत पर है। वह अपने हाथों अपना भस्मासुर है तो पृथ्वी का भी है।

जाहिर है इक्कीसवीं सदी में पृथ्वी और मनुष्य दोनों के मिजाज और जैविक अस्तित्व का बुनियादी संकट है। सवाल है इस सप्ताह ऐसा क्या हुआ जो यह विषय और विचार बना?

दरअसल रोजमर्रा की दुनियादारी में हिरोशिमा में जी-सात देशों के जमावड़े को देख आइडिया बना कि अस्सी साल पहले मानवता ने अपने हाथों के परमाणु विध्वंस को देखा था। तब से दुनिया खौफ में जीती आई है। अब दुनिया तिहरे खतरे में है। एक तरफ यूक्रेन से तीसरे महायुद्ध का खतरा तो दूसरा खतरा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के नए आत्मघाती विकास का। तीसरी संकट पृथ्वी की सेहत और अस्तित्व का।

कोई माने या न माने लेकिन ज्ञात इतिहास के इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि आधुनिक मानव बुद्धि की तमाम क्रांतियां पश्चिमी सभ्यता की बदौलत हैं। 1760 की पहली औद्यौगिक क्रांति से लेकर परिवहन-संचार, कंप्यूटर-ऑटोमेशन की तीसरी क्रांति, डिजिटल-भूमंडलीकरण की चौथी क्रांति और अब कृत्रिम बुद्धि की पांचवीं क्रांति का सारा श्रेय पश्चिमी सभ्यता को है। बाकी तमाम सभ्यताएं या तो फॉलोवर रही हैं या उससे शिक्षा, तकनीक, ज्ञान-विज्ञान-सृजन के जुगाड़ व नकल करते हुए। इसलिए अच्छा लगा यह जानकर कि अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रप्रमुखों ने पहले दिन अनौपचारिक तौर पर जब विचार किया तो आर्टिफिशियल बुद्धि को लेकर बहुत चर्चा हुई। इससे पहले खबर थी कि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सुपर टेक कंपनियों के प्रमुखों को व्हाइट हाउस में बुला कर मसले पर जाना-समझा। ऐसे ही अमेरिकी संसद की कमेटियां भी एआई विकास करती कंपनियों के मालिकों को तलब कर रही हैं। जाहिर है जहां विकास है वही विचार और चिंता है। और यह भी वह कारण है, जिससे इन सात देशों से बाकी 188 देशों की दिशा है।

सवाल है जैसे पिछली क्रांतियों से पश्चिमी सभ्यता की तूती बनी, बेइंतहां कमाई हुई तो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के मामले में पश्चिमी देश तो इस बढ़ाने का काम करेंगे या इस पर अंकुश, कंट्रोल के उपाय करेंगे?

बड़ा मुश्किल है जवाब सोच सकना! इसलिए कि इस नई क्रांति में सब कुछ ओपन है। फिर इससे आगे मुनाफे में कुबेर का खजाना है। दुनिया के आठ अरब लोगों के दिमाग व जीवन को कंट्रोल करने के मौके हैं। ऐसे में  दुनिया के चंद महा फिटेस्ट नेता और धनपति कैसे इक्कीसवीं सदी को अपनी बनाने के मौके को छोड़ेंगे?

जो हो, मनुष्य जात के भस्मासुरी स्वभाव के प्रतीक हिरोशिमा से यह सुन और जान कर अच्छा लगा कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर वैश्विक चिंता है। पहली बार मानव विकास की क्रांति उस मोड़ पर है, जिसमें फैसला होना है कि उसके स्वचालित आगे बढ़ने पर कैसे रोक लगे! हालांकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। इस पर फिर कभी।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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