nayaindia economic crisis in america अमीर अमेरिका में खजाना खाली!

अमीर अमेरिका में खजाना खाली!

अमेरिका क़र्ज़ के भंवर में है। और यह संकट काफी गंभीर है – इतना गंभीर कि इसके कारण राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपनी आगामी विदेश यात्राएं रद्द कर दीं हैं। उन्होंने हिरोशिमा में जी7 देशों की बैठक में भाग लेने के बाद अमेरिका वापस लौटने का निर्णय लिया है। क्वाड देशों के नेताओं की शिखर बैठक में हिस्सा लेने के लिए उनकी ऑस्ट्रेलिया यात्रा रद्द हो गई है। वे अब पापुआ न्यू गिनी भी नहीं जा रहे हैं, जो कि किसी भी अमरीकी राष्ट्रपति की प्रशांत महासागर में स्थित इस आइलैंड नेशन की पहली यात्रा होती।

अमेरिका का खजाना खाली है और ऐसा होना रातोंरात नहीं हुआ है। खजाने के खाली होने का सिलसिला इस साल के शुरुआत से ही शुरू हो गया था। जनवरी की 19 तारीख़ को ही अमरीकी सरकार ने कर्ज लेने की अपनी सीमा (31.4 ट्रिलियन डॉलर) को पार कर लिया था परन्तु वित्त विभाग ने कुछ तिकड़में भिड़ा कर बिलों का भुगतान करना जारी रखा।

कर्ज की सीमा क्या है? कर्ज की सीमा वह धनराशि है जिसे उधार लेने के लिए अमेरिका की सरकार को कांग्रेस द्वारा अधिकृत किया जाता है। इस धन का इस्तेमाल सरकार अपने सभी खर्चों को पूरा करने के लिए करती हैं जिसमें मेडिकल इंश्योरेंस से लेकर सैनिकों की तनख्वाह तक शामिल है।अभी यह सीमा 31.4 ट्रिलियन डॉलर है, जो कि देश की जीडीपी का 117 प्रतिशत है। जनवरी में इस सीमा के पार होने के बाद से सरकार कुछ ‘असाधारण उपायों’ की मदद से अपनी देनदारियां चुकाती रही है। परन्तु हालात बिगड़ते जा रहे हैं। अब डर यह है कि सरकार अपने कर्जे नहीं चुका पायेगी, जिसके कारण निवेशकों का अमरीकी डॉलर में भरोसा कम होगा।स्टॉक मार्केट गिरेगा।नौकरियां घटेंगी और अंततः मंदी आएगी। जाहिर है कि अगर यह सब हुआ तो इससे केवल अमेरिका ही प्रभावित नहीं होगा बल्कि पूरी दुनिया पर इसका असर होगा।

यह खबर सुर्खियां तब बनी जब ट्रेज़री सेक्रेटरी (हमारे देश के वित्त मंत्री के समकक्ष पद) जेनेट एल. येलेन ने कल कहा कि 1 जून तक यह नौबत आ सकती है कि अमेरिका के पास अपने बिल चुकाने के लिए पैसे नहीं बचें।

वैसे यदि कर्ज की सीमा बढ़ाई भी जाती है तब भी इस मुद्दे पर जो लम्बी राजनैतिक कुश्ती चलेगी उससे आगे चल कर आर्थिकी को नुकसान ही होगा। पूर्व में भी कर्ज की सीमा को लेकर विवादों के नतीजे में सरकार को ‘शटडाउन’ करना पड़ा है। अब तक का सबसे लम्बा शटडाउन 35 दिन का था जो 22 दिसंबर 2018 से 25 जनवरी 2019 तक चला था। इससे देश को 11 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ था जिसमें से 3 बिलियन डॉलर का नुकसान स्थाई था। इसके पहले 2011 में कर्ज की सीमा को लेकर हुई जबरदस्त रस्साकशी के चलते क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने इतिहास में पहली बार अमेरिका की सरकार की क्रेडिट रेटिंग घटा दी थी, जिससे सरकार के लिए कर्ज लेना महंगा हुआ।

सो आर्थिक संकट दरवाज़े पर है, इसके संकेत काफी समय से मिल रहे थे।पर इन दिनों अमेरिका की राजनीति काफी गंदली हो गयी है। महीनों गुज़र गए परन्तु कांग्रेस यह तय नहीं कर पाई कि उसे कर्ज की सीमा बढ़ानी है या कुछ समय के लिए उसे निलंबित करना है ताकि सरकार अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए धन जुटा सके।

सचमुच कितनी बुरी बात है कि आर्थिक संकट के सिर पर आ जाने के बाद भी रिपब्लिकन और डेमोक्रेट पार्टी के सांसद मिलजुलकर कोई राह नहीं निकाल रहे थे। अंततः राष्ट्रपति जो बाइडन ने पहल की और नौ मई को दोनों पार्टियों के नेताओं को बातचीत के लिए व्हाइट हाउस बुलाया। परन्तु फिर भी कोई रास्ता नहीं निकला और यही कारण है कि उन्हें अपने विदेश यात्राएं रद्द करनी पडीं ताकि वे वाशिंगटन वापस आ कर कांग्रेस के नेताओं के साथ, उनके स्वयं के शब्दों में, ‘अंतिम बातचीत’ कर सकें।

कांग्रेस ने अब तक कर्ज की सीमा को क्यों नहीं बढ़ाया? इसके पीछे है राजनीति – जो दुनिया की बहुत सी बुराईयों और मुसीबतों की जड़ है।

इस समय अमेरिकी सीनेट में रिपब्लिकनों का बहुमत हैं। वे चाहते हैं कि सरकारी खर्च में कटौती करवाई जाए और खर्च कहाँ और कैसे हो, इस बारे में कुछ शर्तें लगाईं जाएँ। रिपब्लिकनों में भले ही अर्थव्यस्था की समझ न हो परन्तु राजनीति की उन्हें भरपूर समझ है। उनका दकियानूसी धड़ा चाहता है कि उसका रुआब बना रहे। परन्तु बाइडन प्रशासन नहीं चाहता कि सरकार के खर्चे में कटौती पर कोई बात हो। हाउस ऑफ़ रिप्रेजेन्टेटिव्स के रिपब्लिकन स्पीकर केविन मेकार्थी ने कुछ समय पहले एक बिल प्रस्तावित किया था जिसके तहत मौजूदा सीमा को 2024 तक जारी रखा जाना था और अगले दशक में सरकारी खर्च में कई ट्रिलियन डॉलर की कमी की जानी थी। इस कमी से क्लाइमेट चेंज से निपटने की योजनाओं पर पानी फिर जाता। इस विवाद के कारण बहुत भद्दी स्थितियां बनीं और आर्थिक संकट और नज़दीक आ गया।

हाल में हुई चर्चा और समझौता वार्ताओं के दौर से राजनीति के पंडितों में आशा है कि बाइडन और मेकार्थी दोनों कुछ नरम पड़ेंगे। परन्तु कर्ज के मामले में उनमें समझौता हो जायेगा, यह अभी साफ़ नहीं है।

जहाँ तक अर्थशास्त्रियों का सवाल है, वे बहुत आशान्वित नहीं हैं।वैसे अभी तक स्टॉक मार्केट में अफरातफरी नहीं मची है क्योंकि इन्वेस्टर्स को ऐसा लग रहा है कि जो चल रहा है वह केवल राजनैतिक वाकयुद्ध है और आशा करनी चाहिए कि यही सच हो। मगर यदि यह आशावाद फेल हुआ? तब निश्चित ही अमेरिका के सकंट में दुनिया की आर्थिकी में छोटा-मोटा ज़लज़ला जरूर आएगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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