भारत जैसे विविधता वाले लोकतंत्र में हर चुनाव अलग होता है। उसके मुद्दे अलग होते हैं, नतीजे अलग होते हैं और उनका असर भी अलग अलग होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि कर्नाटक का विधानसभा चुनाव भी एक राज्य का चुनाव है, जिसे उसके अपने मुद्दों के आधार पर लड़ा गया और उसके नतीजों का असर भी कर्नाटक की सीमा तक रहेगा। यह बात कुछ हद तक सही है क्योंकि अब तक जितनी बार भी किसी राज्य के चुनाव नतीजों का आकलन बड़े कैनवस पर किया गया है और दूसरे राज्यों या राष्ट्रीय चुनाव पर उसके असर की संभावना आंकी गई है उतनी बार आकलन गलत हुए हैं। मिसाल के तौर पर पांच साल पहले कर्नाटक में भाजपा चुनाव जीती थी हालांकि वह पूर्ण बहुमत नहीं हासिल कर सकी थी लेकिन उसके बाद चार राज्यों- तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हार गई थी और उसके बाद राष्ट्रीय चुनाव को लेकर किए गए तमाम आकलन गलत साबित हुए थे। एक तेलंगाना को छोड़ कर इन सभी राज्यों में भाजपा को छप्पर फाड़ जीत मिली थी। इसलिए कर्नाटक का नतीजा चाहे जो हो उसके व्यापक असर का आकलन करने की कोई जरूरत नहीं है।
हां, यह जरूर है कि प्रचार, रणनीति, मुद्दों सहित कई मायने में कर्नाटक का चुनाव रास्ता दिखाने वाला होगा। यह पिछले कई सालों में संभवतः पहला चुनाव है, जिसमें कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली। हो सकता है कि वह स्थानीय नेतृत्व की वजह से हो लेकिन कांग्रेस ने तय किया कि वह राष्ट्रीय मुद्दे नहीं उठाएगी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना नहीं बनाएगी और धर्म व राष्ट्रवाद से जुड़े मुद्दों पर चुप रहेगी। मोटे तौर पर कांग्रस अपनी इस रणनीति पर कायम रही। एकाध अपवाद हैं, जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मोदी की तुलना ‘जहरीले सांप’ से की और उनके बेटे प्रियांक खड़गे ने प्रधानमंत्री को ‘नालायक’ कहा या कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में बजरंग दल पर पाबंदी की बात कही। लेकिन इनका अपना रणनीतिक मतलब है और कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि उसे इसका फायदा होगा। इन अपवादों को छोड़ दें तो कांग्रेस ने अपना पूरा चुनाव प्रचार कर्नाटक के स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रखा।
कांग्रेस ने कर्नाटक की समस्या को उठाया, उसका समाधान करने के उपाय बताए और भाजपा की राज्य सरकार को निशाना बनाया। कांग्रेस समूचे चुनाव प्रचार में राज्य की भाजपा सरकार की साख बिगाड़ने के प्रयास में लगी है। उसको इसमें काफी हद तक कामयाबी मिली। भाजपा ने भी मुख्यमंत्री बदला, जिससे राज्य में उसके सामाजिक समीकरण पर असर हुआ और उसके बाद किसी न किसी कारण से कई बड़े नेताओं की टिकट काटी गई, जिसमें से कुछ नेता कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दे उठाने और भाजपा के स्थानीय नेतृत्व को निशाना बनाने के साथ साथ खुले हाथ से मुफ्त की रेवड़ी बांटने का ऐलान किया। हर वर्ग, समूह के लिए कुछ न कुछ मुफ्त देने की घोषणा हुई, जिसे गारंटी का नाम दिया गया और खुद राहुल गांधी व प्रियंका गांधी वाड्रा ने इसका ऐलान किया, जिसे बाद में घोषणापत्र में भी शामिल किया गया। राहुल अब तक पूरे देश में जिन मुद्दों पर प्रचार करते थे उनको पूरी तरह से छोड़ दिया। उन्होंने अदानी और हिंडनबर्ग का मुद्दा नहीं उठाया और न चीन के द्वारा भारत की जमीन हड़पने का मुद्दा उठाया। पहली सभा में जातीय जनगणना और सामाजिक न्याय की बात कहने के बाद वे इस पर भी खामोश हो गए। अगर कांग्रेस की यह रणनीति कारगर रहती है तो इस साल होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में वह इसी पर अमल करेगी।
जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसे भी इस चुनाव से बड़ा सबक मिलेगा। अभी से नतीजों का अनुमान नहीं लगाया जाए तब भी कहा जा सकता है कि प्रचार में भी भाजपा को बड़े जनाधार वाले प्रदेश नेता की कमी खली। बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाना और बिना बड़े जनाधार वाले बसबराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा के लिए मुश्किल का कारण बना। मुख्यमंत्री होने के बावजूद बोम्मई भाजपा के प्रचार को वह ऊंचाई या गति नहीं दे सके, जो कांग्रेस की ओर से सिद्धरमैया, शिवकुमार या मल्लिकार्जुन खड़गे ने दिया। भाजपा की ओर से प्रचार की कमान अकेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संभालनी पड़ी। सो, अगर नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आते हैं तो उसे प्रादेशिक क्षत्रपों की जरूरत पर नए सिरे से विचार करना होगा। भाजपा ने कर्नाटक की सभी सीटों पर मोदी के नाम पर वोट मांगा है। इसके बावजूद अगर वह नहीं जीतती है तो इस रणनीति पर भी पुनर्विचार करना होगा कि हर चुनाव मोदी के नाम जीता जा सकता है।
भाजपा के चुनाव प्रचार की एक और बड़ी कमी कर्नाटक में जाहिर हुई। उसने पूरा चुनाव कांग्रेस की ओर से तय किए गए एजेंडे पर लड़ा। कहीं भी यह आभास नहीं हुआ कि भाजपा एजेंडा तय कर रही है और विपक्ष की पार्टी कांग्रेस उस पर जवाब दे रही है। अब तक यह होता रहा था कि भाजपा के एजेंडे पर कांग्रेस प्रतिक्रिया देती थी। इस बार उलटा हुआ है। चुनाव की घोषणा से पहले भाजपा ने अपना जो एजेंडा तय किया था उसमें से कई मुद्दे उसने छोड़ दिए। राज्य सरकार ने छह महीने पहले लव जिहाद रोकने के लिए धर्मांतऱण विऱोधी कानून पास किया था। लेकिन चुनाव में इसे मुद्दा नहीं बनाया गया था। पिछले कर्नाटक में हिजाब पर पाबंदी का मुद्दा पूरे देश में छाया रहा था लेकिन भाजपा ने प्रचार में इसे नहीं उठाया। भाजपा ने टीपू सुल्तान बनाम सावरकर का मुद्दा भी खूब उठाया था लेकिन प्रचार में उसे छोड़ दिया। ये स्थानीय मुद्दे थे और इन पर कांग्रेस बैकफुट पर थी।
हालांकि ऐसा नहीं है कि भाजपा ने सांप्रदायिक एजेंडा नहीं उठाय़ा। मुस्लिम आरक्षण खत्म करके उसे वोक्कालिगा और लिंगायत में बांटना या मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन पीएफआई पर पाबंदी का मुद्दा भाजपा ने उठाया। बाद में जब कांग्रेस ने बजरंग दल पर पाबंदी की वादा किया तो प्रधानमंत्री ने हर सभा में ‘जय बजरंग बली’ के नारे भी लगाए। लेकिन जिन मुद्दों को वह एक साल से ज्यादा समय से उठा रही थी और जिन मुद्दों को घर घर पहुंचाया गया था उसे भाजपा ने छोड़ दिया था।
सो, भाजपा के लिए इस चुनाव के कई सबक हो सकते हैं। जैसे राज्यों के मजबूत नेतृत्व को बदलने और उनकी जगह कमजोर व बिना जनाधार वाले नेताओं को बैठाने की राजनीति अंततः नुकसान पहुंचाने वाली हो सकती है। इसी तरह अगर नतीजे भाजपा के अनुकूल नहीं आते हैं तो यह भी सबक होगा कि लंबे समय में जिन मुद्दों को स्थापित किया है उन्हें छोड़ कर चुनाव के समय दूसरे मुद्दे उठाना कोई अच्छी रणनीति नहीं है। भाजपा को यह भी समझ में आएगा कि हर राज्य का चुनाव राष्ट्रीय नेतृत्व या राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं जीता जा सकता है। लेकिन अगर नतीजे भाजपा के अनुकूल आते हैं तो नरेंद्र मोदी का करिश्मा पहले से ज्यादा मजबूत होगा, राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों की छुट्टी होगी और कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता मुश्किल होगा।