मानहानि के मामले में राहुल गांधी को सजा होने और लोकसभा की उनकी सदस्यता समाप्त होने के बाद विपक्ष में जो एकता दिखी है वह क्या राजनीतिक और चुनावी एकजुटता में तब्दील होगी? कांग्रेस के नेता ऐसी संभावना देख रहे हैं और तभी राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में विपक्षी पार्टियों के समर्थन के लिए उनका आभार जताया और उनसे अपील भी कर डाली कि वे आगे मिल कर राजनीति करें। हालांकि यह अलग बात है कि इससे पहले विपक्षी पार्टियों के नेताओं की सदस्यता गई थी तो कांग्रेस ने किसी तरह की एकजुटता नहीं दिखाई थी। इस साल के पहले तीन महीने में राहुल तीसरे नेता हैं, जिनकी सदस्यता गई है। उत्तर प्रदेश की स्वार विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी के सांसद अब्दुल्ला आजम की सदस्यता गई तो लक्षद्वीप से एनसीपी के सांसद मोहम्मद फैजल की सदस्यता गई।
बहरहाल, इस बात की संभावना कम है कि विपक्षी पार्टियां राजनीतिक रूप से एक होने जा रही हैं या कोई चुनाव पूर्व बड़ा गठबंधन बनने जा रहा है, जिसके दम पर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दी जा सके। इसका कारण यह है कि देश की ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियां केंद्र की मौजूदा सरकार से खतरा महसूस कर रही हैं लेकिन साथ ही अपने विस्तार की संभावना भी देख रही हैं। भाजपा को हरा कर कांग्रेस को मजबूत करने की बजाय भाजपा को जिता कर कांग्रेस को खत्म करने और अपना विस्तार करने की सोच में प्रादेशिक पार्टियां राजनीति कर रही हैं। ध्यान रहे ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस की कब्र पर ही पनपी हैं। इसलिए वे कांग्रेस को कब्र से निकाल कर फिर जिंदा करने की राजनीति क्यों करेंगी? उनका वश चले तो वे कांग्रेस को इतने गहरे दफन करें कि वह फिर कभी वहां से नहीं निकल सके।
तभी ऐसा लग रहा है कि प्रादेशिक क्षत्रप भाजपा को हराने की बजाय कांग्रेस को हराने की राजनीति कर रहे हैं। वे इस बात का ताना-बाना बुन रहे हैं कि कैसे आगे होने वाले विधानसभा के चुनावों और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हराया जाए। यह धारणा कई लोगों को अतिवादी लग सकती है और कहा जा सकता है कि मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और लालू प्रसाद के पूरे परिवार से पूछताछ या के चंद्रशेखर राव की बेटी पर शिकंजा कसने या ममता बनर्जी की पार्टी की एक दर्जन से ज्यादा नेताओं की गिरफ्तारी के बाद क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा नहीं सोच सकती हैं। उनमें घबराहट और डर पैदा हुआ है और इसलिए वे किसी तरह से एकजुट होकर भाजपा को हराने की राजनीति का हिस्सा बनेंगे। यह भी कहा जा सकता है कि राहुल गांधी की सदस्यता जाने के बाद सारे क्षत्रपों की तंद्रा टूटी है और उनको लग रहा है कि जब नेहरू गांधी परिवार के साथ ऐसा हो सकता है तो उनकी क्या बिसात है।
असली पेंच यही है। इसी में प्रादेशिक पार्टियां अपने लिए मौका मान रही हैं। उनको लग रहा कि इसी बहाने कांग्रेस खत्म हो रही है तो एक धक्का और देकर उसे गिरा दिया जाए ताकि वह उठ न सके। यह अलग बात है कि एक बार कांग्रेस के निर्णायक रूप से गिरने के बाद भाजपा का निशाना प्रादेशिक पार्टियां ही होंगी। उनमें से भी कोई नहीं बचेगा। लेकिन अभी इन पार्टियों को लग रहा है कि कांग्रेस खत्म होगी तो वे मजबूत होंगे। इसी सोच में ममता बनर्जी भी राजनीति कर रही हैं और के चंद्रशेखर राव भी कर रहे हैं। अभी तत्काल कर्नाटक का विधानसभा चुनाव होना है, जहां ये दोनों नेता जेडीएस के लिए प्रचार करने जाएंगे। कर्नाटक में कांग्रेस ने एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस से तालमेल से इनकार कर दिया है। पार्टी ने 124 सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, जिनमें से कई सीटें देवगौड़ा परिवार के असर वाले इलाकों की है। इसलिए तालमेल की संभावना खत्म है। इस बीच जेडीएस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने बताया है कि ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव उनकी पार्टी के लिए प्रचार करने आएंगे। इन दोनों का कर्नाटक के प्रचार में क्या असर होगा, कहा नहीं जा सकता है लेकिन मंशा दोनों की साफ है। दोनों की मंशा किसी तरह से कांग्रेस को कमजोर करने की है ताकि वह कर्नाटक में जीत न सके। कांग्रेस अगर कर्नाटक जैसे बड़े और समृद्ध राज्य में जीतती है तो उससे आगे की राजनीति का पूरा नैरेटिव बदल सकता है। इसलिए भाजपा से ज्यादा दूसरी प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस को हराने में दिलचस्पी ले रही हैं। अरविंद केजरीवाल की पार्टी भी कर्नाटक में चुनाव लड़ेगी और पार्टी ने राजस्थान की भी सभी दो सौ सीटों पर लड़ने का ऐलान कर दिया है।
अब सवाल है कि क्या किसी तरह से कांग्रेस को इन प्रादेशिक पार्टियों का सद्भाव हासिल हो सकता है और अब भी एकता बनने की कोई गुंजाइश है? इसका जवाब हां में है लेकिन वह तब संभव है, जब कांग्रेस पूरी तरह से सरेंडर करे। इसका संकेत समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दिया है। अखिलेश ने सदस्यता समाप्त होने के मसले पर राहुल गांधी का समर्थन करते हुए कहा कि अब कांग्रेस को चाहिए कि वह प्रादेशिक पार्टियों को आगे बढ़ाए। सोचें, आगे बढ़ाने का क्य मतलब है? इसका मतलब है कि कांग्रेस प्रादेशिक पार्टियों के आगे सरेंडर करे। जिस तरह से वह तमिलनाडु में दूसरे दर्जे की पार्टी बन कर अस्तित्व बचाए हुए है उसी तरह बाकी राज्यों में भी सिर्फ अस्तित्व बचाए रखने की राजनीति करे। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, दिल्ली, पंजाब आदि राज्यों में प्रादेशिक पार्टियां, जितनी सीटें दें उतनी ही लेकर चुनाव लड़े और किसी तरह से अपने जिंदा रखे। अगर प्रादेशिक पार्टियों के हिसाब से कांग्रेस राजनीति करती है तो उसकी सिर्फ सांस चलती रहेगी। अगर कांग्रेस संपूर्ण समर्पण के लिए तैयार नहीं होती है तो क्षेत्रीय पार्टियां उसको हराने की राजनीति करेंगी। सब आपस में एक दूसरे की मदद करेंगी और कांग्रेस को कमजोर करेंगी। इस अभियान में भाजपा जीतती है तब भी उनको कोई दिक्कत नहीं है। उनके रास्ते से कांग्रेस का कांटा निकलेगा।
अब एक दूसरा सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में भाजपा क्या करेगी? सबको पता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही है। लेकिन क्या सचमुच वे ऐसा चाहते हैं? क्या वे चाहेंगे कि कांग्रेस की कीमत पर प्रादेशिक पार्टियां मजबूत हो जाएं? यह स्थिति भाजपा के अनुकूल नहीं होगी। वह कांग्रेस से तो लड़ सकती है लेकिन सबने देखा है कि बिहार से लेकर झारखंड, बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, पंजाब सहित कई राज्यों में गैर कांग्रेसी छोटी पार्टियों से लड़ना उसके लिए मुश्किल रहा है। अगर कांग्रेस को कमजोर करके ये पार्टियां और मजबूत होती हैं तो उनको हराना भाजपा के लिए और मुश्किल हो जाएगा। इसलिए वह चाहेगी कि कांग्रेस भी बची रहे और प्रादेशिक पार्टियां भी रहें ताकि उनके आपसी झगड़े का फायदा भाजपा को मिलता रहे।