राहुल गांधी के नेतृत्व में हो रही भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस मजबूत हो रही है या ऐसे कह सकते हैं कि उसके कमजोर होने की प्रक्रिया थम गई है। इस यात्रा से पहले तो कांग्रेस ऐसी ढलान पर थी कि किसी को अंदाजा नहीं था कि उसका पतन कहां जाकर रूकेगा। अब कम से कम वह रूक गया है। कांग्रेस गुजरात का चुनाव हारी है लेकिन पार्टी को पता है कि उसका बुनियादी ढांचा मजबूत हो रहा है। पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश लौटा है। हिम्मत हार चुके नेताओं का भी हौसला बढ़ा है। नेतृत्व का संकट झेल रही पार्टी को बदले हुए राहुल गांधी के रूप में नेता मिला है। काफी हद तक राहुल ने इस यात्रा से राजनीतिक एजेंडा या जिसे आजकल नैरेटिव कहा जा रहा है वह सेट किया है। उन्होंने एक तरह से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मुद्दों को भी स्थापित कर दिया है।
राहुल ने देश के अंदर बढ़ रहे सामाजिक समरसता के संकट को अपने अंदाज में उठाया। उन्होंने ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ सजाने का जुमला बोला। यह संयोग ही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब यह बात कह रहे हैं। भाजपा नेताओं के भड़काऊ बयानों के बीच मोदी का यह कहना कि अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना ठीक नहीं है या हर फिल्म पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है या भाजपा को पसमांदा, बोहरा मुसलमानों के बीच जाने की जरूरत है, राहुल गांधी के उठाए मुद्दों को स्थापित कर रहा है। हालांकि यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री के ऐसा कहने के पीछे की रणनीति कुछ और है।
इस साल जी-20 देशों के अलग अलग कई सम्मेलन भारत में होने हैं और सितंबर में नई दिल्ली में सालाना सम्मेलन है, जिसकी सफलता पर कई चीजें निर्भर हैं। इसकी सफलता के लिए जरूरी है कि भारत की छवि एक सर्वधर्म समभाव वाले देश की बनी रहे और दुनिया उस पर भरोसा करे। अगर अल्पसंख्यकों की असुरक्षा और उनके प्रति नफरत फैलाने वाले बयानों की चर्चा होती रही तो विश्व के बड़े नेता असहज होंगे और वह जी-20 के सालाना सम्मेलन में भी दिखेगा। बहरहाल, चाहे जिस कारण से प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा नेताओं को आगाह किया हो, उससे राहुल के उठाए मुद्दों को दम मिला है।
सामाजिक समरसता के साथ साथ राहुल ने महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और आर्थिक असमानता का मुद्दा भी लोगों के जेहन में बैठाया है। सो, एक तरह से उन्होंने तय कर दिया है कि अगला चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाना है और उसमें कांग्रेस कहां खड़ी है। राज्यों के चुनाव में पुरानी पेंशन योजना की बहाली से लेकर न्याय योजना और मुफ्त की रेवड़ी वाली घोषणाओं में कांग्रेस अलग नए रिकॉर्ड बना रही है। इस तरह से कांग्रेस ने तमाम पार्टियों को परेशानी में डाला है। कांग्रेस मजबूत हो रही है या पतन रूक गया है, वह एजेंडा सेट कर रही है और चुनाव के मुद्दे तय कर रही है, इससे जितनी परेशान भाजपा है उतनी ही परेशान देश की अन्य विपक्षी पार्टियां भी हैं। भाजपा विरोधी पार्टियां भी कांग्रेस में हो रहे इस बदलाव से परेशान हैं।
असल में मजबूत हो रही कांग्रेस किसी को पसंद नहीं आ रही है। कमजोर कांग्रेस सबको पसंद इसलिए थी क्योंकि उसकी कीमत पर बाकी पार्टियां फल फूल रही थीं। कमजोर कांग्रेस की वजह से ही भाजपा को दो बार ऐतिहासिक बहुमत मिला। अगर 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो साफ दिखेगा कि कांग्रेस की कीमत पर भाजपा बढ़ी है। जिन राज्यों में कांग्रेस के साथ उसकी सीधी लड़ाई थी वहां उसने 90 फीसदी सीटें जीतीं। कांग्रेस के साथ लडाई वाले कुछ राज्यों में तो भाजपा का रिकॉर्ड सौ फीसदी सीट जीतने का है। तभी भाजपा को चिंता हो रही है कि अगर कांग्रेस मजबूत हो रही है तो कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों में, जहां से भाजपा को अधिकतम सीटें मिली हैं वहां लडाई मुश्किल हो जाएगी। भाजपा इस संभावना को देखते हुए अपनी चुनावी तैयारी कर रही है। उसके लिए अच्छी बात यह है कि उसकी तरह कई प्रादेशिक पार्टियां भी कांग्रेस के पुनर्जीवन को लेकर चिंता में हैं और कांग्रेस से अलग स्वतंत्र राजनीति कर रही हैं। अगर प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस विरोध की राजनीति करना चालू रखती हैं तो उसका सीधा लाभ भाजपा को होगा।
कांग्रेस की बढ़ती ताकत से विपक्षी पार्टियों की परेशानी का एक संकेत तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की खम्मम में हुई रैली से मिलता है, जिसमें उनके बुलावे पर आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, सीपीएम आदि के नेताओं ने हिस्सा लिया। हालांकि इसका तात्कालिक मकसद तो यह है कि कैसे भी चंद्रशेखर राव को इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में जीतना है। उनके राज्य तेलंगाना में भाजपा बेहद आक्रामक राजनीति कर रही है और उसने सांप्रदाय़िक ध्रुवीकरण का माहौल बना दिया है। ऐसे में राव के सामने एक रास्ता यह है कि वे अपनी अखिल भारतीय छवि दिखा कर राज्य से मतदाताओं में यह मैसेज बनवाएं कि अगर वे इस बार मुख्यमंत्री बने तो प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। इस तात्कालिक मकसद के साथ साथ उनका और दूसरी विपक्षी पार्टियों का एक लक्ष्य यह भी है कि कांग्रेस के सामने अपनी ताकत दिखाई जाए ताकि अगर लड़ना पड़े तो उनके पास एडवांटेज रहे और अगर तालमेल हो तो उनके हाथ में मोलभाव की ताकत हो।
असल में कमजोर कांग्रेस के साथ प्रादेशिक पार्टियों को लड़ना और तालमेल करना दोनों बहुत आसान होता है। वे गिनी चुनी सीटें देकर कांग्रेस के साथ तालमेल कर सकते हैं या कमजोर कांग्रेस को आसानी से हरा सकते हैं। लेकिन अगर कांग्रेस मजबूत हुई तो वह ज्यादा सीट मांगेगी। ज्यादा सीट देने का खतरा यह है कि साझा विपक्ष की लड़ाई में कांग्रेस ज्यादा सीट जीत जाएगी और तब केंद्र में बाकी पार्टियों को उसके हिसाब से काम करना होगा। इसका दूसरा खतरा यह है कि कांग्रेस अपना पुराना वोट आधार हासिल कर सकती है।
ध्यान रहे देश की तमाम प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस की कब्र पर ही फल फूल रही हैं। तृणमूल कांग्रेस से लेकर राजद, जदयू, सपा, एनसीपी, बीआरएस, वाईएसआर जैसी तमाम पार्टियां जो पिछले ढाई-तीन दशक में अस्तित्व में आई हैं, सब कांग्रेस का वोट छीन कर मजबूत हुई हैं। इसलिए उनको हमेशा यह चिंता घेरे रहती है कि कभी अगर उनका वोट कांग्रेस की ओर लौट गया तो क्या होगा। इस चिंता में प्रादेशिक पार्टियों के नेता भाजपा से भी ज्यादा शिद्दत से कांग्रेस को काटने में लगे रहते हैं। तभी राहुल के नेतृत्व में हो रही यात्रा से कांग्रेस का मजबूत होना न भाजपा को पसंद आ रहा है और न सेकुलर राजनीति करने वाली विपक्षी पार्टियों को।