मुंशी प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ में उनका मुख्य पात्र होरी है। वह अपनी पत्नी धनिया से कहता है कि ‘जिन पैरों के तले गर्दन दबी हो उन पैरों को सहलाने में ही भला है’। करीब सौ साल पुरानी वह बात भारत की आज की राजनीति में कितनी कारगर है। जरा गौर से देखें कि कितने विपक्षी या पक्ष-विपक्ष से तटस्थ नेताओं की गर्दन पर केंद्र सरकार यानी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के पांव हैं। कितने नेता इन पैरों को सहला रहे हैं। पहले भी केंद्र में जिसकी सरकार होती थी वह केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करती था। उससे राजनीति कुछ सधती था। लेकिन इससे पहले किसी सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों का इस तरह का शस्त्रीकरण नहीं किया, उसे वेपनाइज नहीं किया, जैसा मौजूदा सरकार ने किया है।
केंद्र सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों और यहां तक कि संवैधानिक व वैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल करके विपक्षी नेताओं का टेंटुआ दबाया है। तभी वे मजबूर है कि वे भाजपा के हिसाब से राजनीति करें। वे केंद्रीय एजेंसियों से बचने या जेल जाने के लिए भाजपा में शामिल हो जा रहे हैं या भाजपा के प्रति सद्भाव दिखाने लगते हैं और चुपचाप पड़े रहते हैं। जो ऐसा नहीं करते हैं उनके यहां छापे पड़ जाते हैं, गिरफ्तारी हो जाती है, घरों-दुकानों पर बुलडोजर चल जाते हैं, मामलों की आनन फानन में सुनवाई हो जाती है और सजा करा कर सदस्यता खत्म करा दी जाती है। इन तीनों बातों की मिसाल कई है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही थी। जब वे कांग्रेस की तरुण गोगोई सरकार में मंत्री थे तब उनके खिलाफ शिकायत हुई थी और जांच शुरू हुई थी। लेकिन वे भाजपा में चले गए और जांच का पता नहीं क्या हुआ। इसी तरह पश्चिम बंगाल में शुभेंदु अधिकारी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। लेकिन वे भाजपा में चले गए और पाक साफ हो गए। महाराष्ट्र ने नारायण राणे कई तरह की जांच से घिरे थे लेकिन अब केंद्र सरकार में मंत्री हैं। ऐसे नेताओं की लंबी सूची है।
कई बड़े प्रादेशिक नेता जो भाजपा में नहीं शामिल हो सकते हैं वे किसी न किसी तरह से भाजपा को मदद पहुंचाने वाली राजनीति कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने परोक्ष रूप से जिस तरह से भाजपा की मदद की है उसकी मिसाल मुश्किल है। सोचें, कैसा दबाव रहा होगा जो अपनी पार्टी का नुकसान करके मायावती ने भाजपा को मदद पहुंचाई? वे भाजपा के खिलाफ बयान देती रहीं लेकिन उसके साथ ही इस तरह से उम्मीदवार उतारे कि समाजवादी पार्टी को हराया जा सके। भाजपा की जीत और सपा की हार सुनिश्चित करने के लिए मायावती ने जो आत्मघाती राजनीति की है उसका नतीजा है कि एक चुनाव में उन्होंने सात फीसदी के करीब वोट गंवाएं। उनके साथ चट्टान की तरह खड़े रहे दलित वोटो का भी एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ चला गया।
यही काम बिहार में चिराग पासवान ने किया था। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के खिलाफ उन्होंने उम्मीदवार उतारे और छह लोकसभा सीट जीतने वाली पार्टी सिर्फ एक विधानसभा सीट जीत सकी। बाद में उनकी पार्टी भी टूटी और पांच सांसद अलग हो गए। अब सबको मिलाने की कोशिश हो रही है। बहरहाल, मायावती इकलौती नेता नहीं हैं, जिन्होंने इस तरह से भाजपा को मदद पहुंचाई। अभी कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और एचडी देवगौड़ा परिवार की पार्टी जेडीएस ऐसी राजनीति करेगी, जिससे भाजपा को फायदा हो। टेंटुआ दबाने के साथ साथ सत्ता का लालच भी है, जो भाजपा खुल कर किसी को दे सकती है। भाजपा ने यह मैसेज बना दिया है कि वह विचारधारा की परवाह नहीं करती है वह घनघोर वैचारिक विरोधियों को भी सत्ता में बैठा सकती है, जैसा उसने जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ किया था।
सो, जिनका टेंटुआ नहीं दबा है वे सत्ता के लालच में भाजपा के साथ चले जाते हैं। पूर्वोत्तर में कई पार्टियों ने ऐसा किया हुआ है। एक मॉडल बीजू जनता दल का है। उसके नेता नवीन पटनायक तटस्थ बने रहने के चक्कर में भाजपा को मजबूत करते गए हैं। उन्होंने भाजपा को परोक्ष मदद पहुंचा कर अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को ओडिशा में लगभग समाप्त कर दिया। देश के राजनीतिक दलों की गतिविधियों को यदि बारीकी से देखें तो कई नेता बहुत विचित्र बरताव करते दिखेंगे। कई बार उनकी राजनीति समझ में नहीं आएगी। लेकिन ज्यादातर मामलों में उनकी राजनीति के पीछे केंद्र सरकार का दबाव काम करता रहता है।