तुर्की में मुकाबला आशा और अपरिहार्यता के बीच था। और आखिर में लोगों ने अपनी मजूबरी, अपरिहार्यता राष्ट्रपति अर्दोआन को वापिस जीताया। पश्चिमी देशों का नेतृत्व मन ही मन उम्मीद लगाये बैठा था कि राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन का 20 साल का मनमानीपूर्ण राज ख़त्म हो जायेगा। उदारवादियों में से जो प्रजातंत्र के हामी हैं, उन्हें भी उम्मीद थी कि तुर्की को अर्दोआन की तानाशाही से मुक्ति मिलेगी। परन्तु उम्मीदें तो उम्मीदें होती हैं। वे पूरी हो भी सकतीं हैं और नहीं भी। और इस बार वे फिर पूरी नहीं हुईं।
गत 28 मई को तुर्की के राष्ट्रपति चुनाव के दूसरे दौर में अर्दोआन को 52.1 प्रतिशत वोट मिले। और अब वे दावा कर सकते हैं कि वे जीत गए हैं। उन्हें चुनौती देने वाले कमाल किलिकडारोग्लू को 47.9 प्रतिशत वोटों से संतोष करना पड़ा। इस जीत से 20 साल से सत्ता पर काबिज़ अर्दोआन की अपने देश पर पकड़ और मज़बूत हुई है। अर्दोआन पहले देश के प्रधानमंत्री थे और अभी पांच सालों से राष्ट्रपति हैं। अब वे और लम्बे समय तक राष्ट्रपति रहेंगे।
अर्दोआन की निर्णायक जीत से पहले से ही दुनिया पर छाए अनिश्चितता के बादल और गहरे हुए हैं।आखिर अर्दोआन से भी योरोपीय संघ, यूक्रेंन-रूस लड़ाई में एक अलग पंचायत है। तुर्की के लोगों में अर्दोआन की अपरिहार्यता राष्ट्रवादी वैश्विक रूतबे के चलते भी है।
विपक्ष की छह पार्टियों ने देश में व्यापक सुधारों का एक साझा कार्यक्रम तैयार किया था और वे सब मिलकर एक साझा उम्मीदवार को समर्थन देने की सहमति बनाए हुए थे। इससे लग रहा था कि अर्दोआन के शासन के अंत की घड़ी निकट आ गयी है। देश की अर्थव्यवस्था की बहाली और वहां आए भयावह भूकंप के बाद राहत और बचाव कार्यों में कमियों से जनता में नाराज़गी थी। इसके साथ ही विपक्ष ने जनता का समर्थन हासिल करने के लिए वह सब किया जो वह कर सकता था। परन्तु अंततः अर्दोआन की स्ट्रोंगमैन की छवि विपक्ष पर भारी पड़ी। जाहिर है चुनाव परिणाम उम्मीद के विपरीत थे।
अर्दोआन चुनाव जीतने की कला में माहिर हैं। उन्होंने चुनाव को सांस्कृतिक मुद्दों पर केन्द्रित किए रखा। उन्होंने विपक्ष और उसके उम्मीदवार कमाल किलिकडारोग्लू को तुर्की की संस्कृति और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर दिया। कहा कि विपक्ष के नेता एलजीबीटी वर्ग के प्रति प्रेमभाव रखते हैं। किलिकडारोग्लू को कुर्दों की सबसे बड़ी पार्टी का समर्थन हासिल था। इसका इस्तेमाल उन्होंने किलिकडारोग्लू पर यह आरोप लगाने के लिए किया कि वे हथियारबंद पृथकतावादी संगठन कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) के साथ हैं। ख़बरों के अनुसार, वोट डाले जाने के कुछ दिन पहले स्वीकार किया कि वह वीडियो नकली था, जिसमें पीकेके के लड़ाके किलिकडारोग्लू का चुनाव प्रचार गीत गाते हुए दिखाए गए थे और जिसे उन्होंने अपनी एक बड़ी आमसभा में प्रदर्शित किया था।
मीडिया ने भी अर्दोआन की मदद की। अपने बीस साल के राज में अर्दोआन ने मीडिया को अपनी मुट्ठी में कैद किया हुआ है। प्राइवेट न्यूज़ चैनलों के सेठ उनके अहसानों के बोझ तले दबे हुए थे। फिर सरकारी मीडिया तो था ही। सरकारी मीडिया ने राष्ट्रपति का चेहरा और उनके भाषण खूब दिखाए। कैमरे के सामने अर्दोआन ने जो भी झूठे दावे किये, उन्हें कभी चुनौती नहीं दी बल्कि उन्हें लगातार दोहराया गया। ऐसी स्थिति में किलिकडारोग्लू को केवल सोशल मीडिया का सहारा था। प्रचार के आखिरी दौर में किलिकडारोग्लू ने शरणार्थियों की वापसी का कार्ड भी खेला पर फिर भी जनता ने उनका साथ नहीं दिया।
अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों, नीति निर्माताओं और पश्चिमी देशों के कुछ नेताओं का पहले से मानना था कि अर्दोआन के सामने भले ही कितनी ही चुनौतियाँ हों, उनकी जीत अपरिहार्य है। अब यह तय हो गया है कि वे अगले पांच साल तुर्की पर राज करेंगे। इसका दुनिया और तुर्की के लिए क्या मतलब है?
शायद होगा यह कि कुछ नहीं होगा। अर्दोआन अपने पुराने रास्ते पर चलते रहेंगे। प्रजातंत्र ढूंढे नहीं मिलेगा।देश की सभी संस्थाओं पर उनकी पकड़ और मजबूत हो जाएगी। वे और बड़ी-बड़ी बातें करने लगेंगे। इसके साथ ही यह भी सच है कि उनके चुनाव से तुर्की के सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। देश बंटा हुआ है और अर्दोआन की जीत उतनी जबरदस्त नहीं है जितनी की पहले हुआ करती थी। किलिकडारोग्लू के नेतृत्व वाले विपक्ष को 47.9 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं। इसका असर देश में दिखेगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुर्की के रोल को ले कर अनिश्चितता और अस्थिरता और बढ़ेगी। अर्दोआन के फिर से चुने जाने का पूरी दुनिया, विशेषकर नाटो, पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। नाटो के अन्य सदस्य देशों के खिलाफ जाते हुए, तुर्की ने रूस से निकट सम्बन्ध बनाये रखे हैं। अर्दोआन ने हाल में सीएनएन के साथ एक इंटरव्यू में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से अपने ‘खास रिश्तों’ की शेखी बघारते हुए यह कहा कि तुर्की, स्वीडन को नाटो में शामिल करने का अपना विरोध जारी रखेगा। तुर्की नाटो का एकमात्र सदस्य है जो स्वीडन को सदस्यता देने के खिलाफ है।
अर्दोआन ने कहा है कि यह उनकी आखिरी पारी होगी। परन्तु उनके शब्द खोखले जान पड़ते हैं। सन 2017 में अर्दोआन ने संविधान में एक संशोधन करवा दिया था जिसके अनुसार किसी राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में अगर संसद मध्यावधि चुनाव करवाने का निर्णय लेती है तो राष्ट्रपति तीसरी पारी के लिए भी चुनाव लड़ सकते हैं। चूँकि अर्दोआन के गठबंधन की संसद की 600 में से 323 सीटें हैं इसलिए वे आसानी से ऐसा करवा सकते हैं। अगर उनका स्वास्थ्य उनका साथ देता रहा तो अर्दोआन, जो अभी 69 साल के हैं, 2030 के दशक तक सत्ता पर काबिज रह सकते हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)