nayaindia कानूनी समानता: भारतीय वास्तविकता और आदर्श

सामाजिक, आर्थिक समानताओं का क्या?

सबके लिए समान कानून होने चाहिए और कानून के समक्ष सबको समान होना चाहिए, यह एक आदर्श स्थिति है। लेकिन सबको पता है कि कानूनी समानता या कानून के समक्ष समानता एक मिथक है या एक यूटोपिया है, जिसकी कम से कम भारत में कल्पना नहीं की जा सकती है। फिर भी यह अच्छी बात है कि सबके लिए समान कानून बनाने की पहल हो रही है। 22वां विधि आयोग समान नागरिक संहिता पर लोगों की राय ले रहा है और प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से इसकी जरूरत बताते हुए इसकी वकालत कर रहे हैं।

इस बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। भारत जैसे विविधता वाले देश में तमाम जातीय व धार्मिक समुदायों के साथ समान नागरिक संहिता का कैसे तालमेल बैठेगा और कैसे उसे स्वीकार्य बनाया जाएगा, यह एक बड़ा सरोकार है। लेकिन उससे बड़े सवाल यह है कि कानूनी समानता से आगे क्या? क्या कानूनी समानता से देश में सदियों से बनी दूसरी असमानताएं समाप्त हो जाएंगी?

इस सवाल पर समान नागरिक संहिता को बहस से अलग रख कर ही विचार किया जा सकता है क्योंकि कानूनी समानता की कथित जरूरत को दूसरी असमानताओं के साथ जोड़ने से कई लोगों की भावनाएं आहत होने लगती हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता को अलग रखते हैं और बाकी असमानताओं पर विचार करते हैं। क्या किसी भी सरकार के पास कोई आइडिया है कि सदियों से जो सामाजिक असमानता है उसे कैसे दूर करेंगे? शैक्षणिक असमानता को कैसे दूर करेंगे? जन विरोधी सरकारों की नीतियों की वजह से जो आर्थिक असमानता पैदा हुई है और बढ़ती जा रही है उसे कैसे दूर करेंगे? क्या अच्छा नहीं होता है कि सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक विषमता को दूर करने की जरूरत पर पहले नहीं तो कम से कम साथ साथ ही विचार किया जाता?

भारत में इन विषमताओं की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसकी एक मिसाल इन दिनों सोशल मीडिया में देखने को मिल रही है। देश की सामाजिक विषमताओं पर विचार करने वाले एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की एक तस्वीर सोशल मीडिया में साझा की, जिसमें राष्ट्रपति दिल्ली के हौजखास स्थित जगन्नाथ मंदिर के दरवाजे से बाहर खड़े होकर पूजा कर रही हैं। इसी के साथ एक दूसरी तस्वीर भी साझा की गई, जिसमें केंद्र सरकार के मंत्री और दिल्ली के उप राज्यपाल उसी मंदिर में अंदर जाकर पूजा कर रहे हैं और भगवान को छू रहे हैं। हालांकि बाद में मंदिर का संचालन करने वाले श्री नीलांचल सेवा संघ के सचिव रविंद्र नाथ प्रधान की ओर से कहा गया कि मंदिर का नियम है कि सिर्फ यात्रा के समय उसे खोला जाता है और उस समय जो मुख्य अतिथि होता है वह मंदिर के अंदर जाता है।

उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मंदिर के अंदर जाने के लिए नहीं कहा, अगर वे कहतीं तो उनको अंदर ले जाया जाता। हो सकता है कि मंदिर का ऐसा नियम हो लेकिन इससे मंदिर प्रवेश को लेकर भारत में जो मान्यताएं हैं उनकी एक फॉल्टलाइन जाहिर हुई है। अनेक मंदिरों में प्रवेश को लेकर कई तरह की पाबंदियां हैं। केरल के सबरीमाला मंदिर से लेकर महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के नियमों को लेकर कई विवाद हो चुके हैं। यह विडंबना है कि सबके लिए समान कानून बनाने जा रही मौजूदा सरकार भी चाहती है कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दिया गया सुप्रीम कोर्ट का आदेश लागू न हो।

सामाजिक असमानता के साथ साथ आर्थिक असमानता भारत की एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। देश की संपत्ति थोड़े से लोगों के हाथों में सिमटती जा रही है और बड़ी आबादी पहले से गरीब होती जा रही है। देश की 60 फीसदी आबादी की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि उसे दो समय के भोजन के लिए सरकार को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है।

आर्थिक मामलों के जाने माने स्तंभकार रूचिर शर्मा ने हाल में अपने एक लेख में बताया कि दुनिया की 10 उभरती हुई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत इकलौता देश है, जिसके अरबपतियों की संपत्ति उसकी जीडीपी का 60 फीसदी है। फ्रांस के अरबपतियों की कुल संपत्ति देश की जीडीपी का 21 फीसदी है और वहां इसका विरोध शुरू हो गया है। भारत में विरोध तो दूर इस पर चर्चा तक नहीं होती है कि आखिर ऐसी अर्थव्यवस्था कैसे बनी है, जिसमें देश की आधी आबादी यानी 50 फीसदी लोगों का देश की कुल संपत्ति में हिस्सा सिर्फ तीन फीसदी है और एक फीसदी आबादी के पास 40 फीसदी संपत्ति है!

अगर राष्ट्रीय आय की बात करें तो वैश्विक असमानता रिपोर्ट के मुताबिक भारत की शीर्ष 10 फीसदी आबादी कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी अर्जित करती है। इसमें भी सिर्फ एक फीसदी आबादी ऐसी है, जो 22 फीसदी राष्ट्रीय आय अर्जित करती है। भारत में महिला श्रमिकों की आय में हिस्सेदारी सिर्फ 18 फीसदी है। आर्थिक आंकड़ों की बारीकी में जाएंगे तो इस तरह की अनेक असमानताएं और सामने आती जाएंगी।

भारत में जिनको 50 हजार रुपया महीना वेतन मिलता है वे देश के सबसे अधिक वेतन पाने वाले एक फीसदी लोगों में शामिल हैं और 25 हजार रुपए मासिक वेतन वाले शीर्ष 10 फीसदी लोगों में शामिल हैं। सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय के मामले में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तीसरे स्थान पर है लेकिन वहां भी अपनी जमीन पर बने मकान में रहने वालों की संख्या सिर्फ सात फीसदी है और सिर्फ 19 फीसदी परिवारों के पास कार, कंप्यूटर, एसी, फ्रीज और टेलीविजन ये पांचों चीजें हैं।

भारत में असमानताओं की सूची अंतहीन है। यहां रंग का भेद है। कभी अखबारों में वैवाहिक विज्ञापन उठा कर देखिए। सबको लंबी और गोरी लड़की चाहिए। लिंग का भेद है। भारत सरकार के आंकड़ों पर आधारित प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2000 से 2019 के बीच 90 लाख लड़कियां जन्म लेने से पहले गर्भ में ही मार दी गईं। आजादी के बाद से अब तक का मोटा-मोटी अनुमान छह करोड़ लड़कियों के मारे जाने का है। जाति का भेद है, जिसे काम करने की जगह से लेकर समाज में कहीं भी देखा जा सकता है।

छुआछूत ऐसा कि इंसान के हाथ का पानी नहीं पीते और उससे छू जाने से अपवित्र हो जाते हैं। भारत का संविधान जाति, धर्म, रंग, नस्ल, लिंग किसी पर भी आधारित भेदभाव को वर्जित करता है लेकिन क्या संविधान के 73 साल में ऐसा भेदभाव बंद हुआ? भारत का संविधान कानून के समक्ष सबकी समानता की बात करता है लेकिन हकीकत यह है कि बाकी लोगों के मुकाबले कुछ लोग ज्यादा समान होते हैं। तभी विवाह, तलाक और संपत्ति के मामले में समान कानून अपनी जगह है लेकिन उसके साथ ही सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक, कानूनी समानता के बारे में भी विचार होता तो बेहतर होता।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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