भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव से पहले अलग अलग पार्टियों के नेताओं के लिए रोजगार मेला लगा रखा है। उसने पार्टी के दरवाजे के दोनों पट खोल दिए हैं, खिड़कियां भी खोल दी हैं और उन्मुक्त भर्ती योजना चला रखी है। कोई भी आकर पार्टी में शामिल हो सकता है। कई बार तो दरवाजे पर दस्तक देने की भी जरुरत नहीं समझी जा रही है। अंदर आइए और भाजपा का पटका रखा हुआ है उसे गले में पहन लीजिए और भाजपा के हो जाइए।
अगर दूसरी पार्टी में कोई हैसियत है तो बड़े नेताओं से मिलना पड़ रहा है और तब पटका पहनाने की जिम्मेदारी भाजपा का कोई छोटा या बड़ा नेता निभा रहा है। इसके लिए बाजाब्ता एक कमेटी बनाए जाने की खबर है, जिसमें कई नेता शामिल हैं, जो दूसरी पार्टियों के नेताओं से संपर्क कर रहे हैं। ऐसे लोगों से भी संपर्क किया जा रहा है, जो सक्रिय राजनीति में नहीं हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में काबिले ए जिक्र काम किया है या जिनकी समाज में कुछ पहचान है। उनको भी उन्मुक्त भरती योजना के तहत पार्टी में शामिल किया जा रहा है। राजनीतिक रोजगार देने की भाजपा की यह योजना इस लोकसभा चुनाव की घोषणा तक चलती रहेगी।
इस योजना की खास बात यह है कि सरकारी नौकरियों की तरह इसमें पदों की संख्या सीमित नहीं है यानी जितने लोग आएंगे, उतने लोगों को भरती कर लिया जाएगा। जैसे कंपनियां इन दिनों इंस्टेंट कैशबैक की योजना चलाती हैं उसी तरह इंस्टेंट बेनिफिट की योजना भाजपा चला रही है। पहले सिर्फ एक बेनिफिट था कि पहले से चल रहे आपराधिक मामलों में राहत मिल जाती थी। केंद्रीय एजेंसियों की जांच धीमी पड़ जाती थी या थम जाती थी। लेकिन अब इसके साथ बेनिफिट बढ़ा दिए गए हैं। मिसाल के तौर पर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आते ही अशोक चव्हाण को राज्यसभा की सीट मिल गई।
आदर्श हाउसिंग घोटाले की जांच में जो राहत मिलेगी वह तो मिलेगी ही लेकिन तत्काल राज्यसभा भी मिल गई। यह भरती योजना शुरू होने से पहले भाजपा में शामिल हुए आरपीएन सिंह को भी इस योजना का लाभ मिला है और वे भी राज्यसभा की सीट हासिल करने में कामयाब हो गए हैं। तीन महीने पहले कमलनाथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव अभियान की कमान संभाल रहे थे और परिवारवाद व भ्रष्टाचार को लेकर माननीय प्रधानमंत्री के वार झेल रहे थे लेकिन वे भी भगवा पटका पहनने को बेकरार बताए जा रहे हैं। उनके खिलाफ सिख विरोधी दंगे चल रहे हैं। भांजे रतुल पुरी के खिलाफ तो आर्थिक अपराध के कई मामले हैं और 660 करोड़ रुपए की घोषित संपत्ति वाले बेटे नकुलनाथ पर भी नजर है।
सवाल है कि रोजगार मेला लगा कर थोक में विपक्षी नेताओं की भरती करने का भाजपा का यह अभियान रणनीतिक रूप से कितना कारगर हो सकता है? क्या ऐसा भी हो सकता है कि यह मुक्त भरती योजना उलटी पड़ जाए? क्या इससे राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति लोगों के मन में सहानुभूति भी पैदा हो सकती है? अभी तक तो ऐसा लग रहा है कि भाजपा जीतता हुआ पक्ष है और उसने मुख्य विपक्षी पार्टी को तोड़ कर उसे बहुत कमजोर कर दिया है। इतना ही नहीं एक रणनीति के तहत भाजपा ने विपक्षी गठबंधन की सहयोगी पार्टियों को भी तोड़ा है। यानी गठबंधन तोड़ कर ‘इंडिया’ ब्लॉक के घटक दलों को एनडीए में शामिल कराया है।
इससे मुख्य विपक्षी कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन दोनों बहुत कमजोर हुए हैं। लेकिन कई बार कमजोर दुश्मन ज्यादा घातक हो जाता है, खास कर चुनावी राजनीति में। कमजोर के प्रति सहानुभूति सहज होती है। इस बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बखूबी समझते हैं तभी दोनों अपने को हमेशा पीड़ित यानी विक्टिम के तौर पर पेश करते रहते हैं।
दस साल तक प्रधानमंत्री रहने और पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद भी नरेंद्र मोदी यह कहने से नहीं चूकते हैं कि उनके खिलाफ क्या साजिशें चल रही हैं, उनको कैसे काम करने से रोका जा रहा है, कैसे उनकी जाति की वजह से उनके साथ भेदभाव हुआ या हो रहा है, कैसे उन्हें दो-तीन किलो गालियां रोज पड़ती हैं, आदि-आदि। लेकिन क्या प्रधानमंत्री मोदी के विक्टिम होने का नैरेटिव अब भी चल पाएगा या लोग स्वाभाविक रूप से कांग्रेस और राहुल गांधी को पीड़ित मानने लगेंगे?
ध्यान रहे 10 साल पहले पीड़ित पक्ष मोदी थे और अत्याचारी कांग्रेस थी, जिसने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी को कई तरह से परेशान किया था। लेकिन अब खेल पलट गया है। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को कमजोर करने की धुन में भाजपा के शीर्ष नेताओं का सेंस ऑफ बैलेंस कमजोर हो गया है। यह काम संतुलित तरीके से नहीं हो रहा है। इतने प्रत्यक्ष और भोंडे तरीके से हो रहा है कि बिना समझाए लोगों को लगने लगा है कि विपक्ष को खत्म करने का प्रयास हो रहा है। तभी लोग भाजपा के सर्वशक्तिमान होने और 370 सीटें जीतने के दावे पर भी संदेह जताने लगे हैं। भाजपा के वैचारिक रूप से सबसे अलग होने और ईमानदार होने के दावे पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। ध्यान रहे कोई भी पार्टी वैचारिक विरोधियों को भरती करती है तो हो सकता है कि कुछ तात्कालिक फायदा हो लेकिन इससे उसकी बुनियाद कमजोर होती है।
पहले विपक्षी पार्टियां भाजपा को वाशिंग मशीन बताती थीं तो उस पर लोग ध्यान नहीं देते थे क्योंकि आर्थिक अपराध के इक्का दुक्का आरोपी नेता भाजपा में भरती हो रहे थे। दूसरे, ऐसे नेता भरती हो रहे थे, जिनको लेकर भाजपा ने कभी व्यापक और सुनियोजित अभियान नहीं चलाया था। जैसे हिमंत बिस्वा सरमा या शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ अगर भाजपा का कोई अभियान था भी तो वह असम और पश्चिम बंगाल तक ही सीमित था। लेकिन अशोक चव्हाण के खिलाफ तो अखिल भारतीय अभियान चला था।
आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला कारगिल युद्ध के शहीदों के लिए बनी सोसायटी में हुआ था और भाजपा ने 2014 में इसे बड़ा मुद्दा बनाया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र की सभा में कहा था कि उनकी सरकार बनने के छह महीने के भीतर अशोक चव्हाण जेल में होंगे। लेकिन जेल में जाना तो दूर 10 साल के बाद वही अशोक चव्हाण भाजपा के प्यारे हो गए हैं। उन्हीं की तरह शरद पवार परिवार के खिलाफ भाजपा का अभियान चला था लेकिन कथित तौर पर 70 हजार करोड़ रुपए के घोटाले के आरोपी अजित पवार भाजपा के साथ महाराष्ट्र की सरकार में शामिल हैं। भ्रष्टाचार के आरोपी और वैचारिक विरोधियों के निरंतर भाजपा का हिस्सा बनते जाने का मैसेज दूर तक गया है।
तभी खुले दिल से कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों के बड़े नेताओं के साथ साथ भ्रष्टाचार के आरोपियों को सीधे पार्टी में शामिल करने या उनके साथ गठबंधन करने का मसला अब आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गया है। अब तक विपक्षी पार्टियां भाजपा पर आरोप लगाती थीं कि वह आरोपी नेताओं को अपनी वाशिंग मशीन में धोकर शुद्ध कर रही है लेकिन अब यह बात आम जनता के बीच और सोशल मीडिया में विमर्श और मजाक का विषय बन गया है। भाजपा के कोर समर्थक भी इससे दुविधा में आए हैं। उनको कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर कोई भी आरोप लगाने में हिचक हो रही है क्योंकि किसी को पता नहीं है कि कौन, कब भाजपा में शामिल हो जाएगा। अब ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का नारा अप्रासंगिक हो गया दिखता है।
ईमानदारी और चाल, चेहरा, चरित्र अलग होने का नैरेटिव भी कमजोर हो गया है। अभी हो सकता है कि इसका नुकसान नहीं दिख रहा हो या लग रहा हो कि विपक्ष को कमजोर करके रसातल में पहुंचाने का अभियान सफल हो रहा है लेकिन बहुत जल्दी इसका असर दिखने लग सकता है। भाजपा के कोर समर्थकों में उदासीनता बढ़ रही है। उनमें वह उत्साह नहीं बचा है, जो 10 साल पहले मोदी को लेकर था और न कांग्रेस के प्रति वैसी नाराजगी या विरक्ति बची है। उलटे विपक्ष को खत्म करके भाजपा की जीत के प्रति आश्वस्ति का भाव जैसे जैसे बढ़ेगा मतदाताओं की उदासीनता उतनी तीव्र हो सकती है, जिसका नुकसान भाजपा को हो सकता है। शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ का मंत्र दिया गया है। भाजपा को भी अति से बचना चाहिए।
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