अगर कोशिशों के लिए नंबर देना हो तो कांग्रेस को 10 में से 10 नंबर दिए जा सकते हैं। कुछ समय पहले तक वह कोशिश भी नहीं कर रही थी। लेकिन अब पार्टी संगठन को बदलने और उसमें जोश भरने की गंभीर कोशिश की जा रही है। कांग्रेस नेतृत्व के बारे में धारणा बदलने की कोशिश हो रही है। पार्टी को नए समय की चुनौतियों और राजनीतिक मुद्दों के मुताबिक ढालने की कोशिश भी चल रही है। पुरानी विरासत को हासिल करने का प्रयास भी हो रहा है और सबसे ऊपर कांग्रेस का स्वंतत्र अस्तित्व स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। कामयाबी की संभावना अभी नहीं दिख रही है लेकिन व्यक्ति के जीवन की तरह ही राजनीति में भी कई बार बहुत नजदीक की चीजें नहीं दिखाई देती हैं। इसलिए कांग्रेस की कोशिशों का क्या हासिल होगा उसके बारे में समय बताएगा।
यह कहना बहुत आसान है कि कांग्रेस लड़ना या जीतना भूल गई है या कांग्रेस की मारक क्षमता कम हो गई या नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए उसके पास कोई नेतृत्व नहीं है या कांग्रेस के अखिल भारतीय संगठन का ढांचा चरमराया हुआ है। हकीकत यह है कि इसके बावजूद कांग्रेस लड़ रही है, लगातार पराजय और विपरीत परिस्थितियों के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व मैदान में टिका है और सब कुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा है। कांग्रेस व राहुल की असफलताओं पर विचार करने से पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि उसका प्रतिद्वंद्वी कितना शक्तिशाली है और और वह क्या क्या कर सकता है!
सो, गुजरात के अहमदाबाद में मंगलवार, आठ अप्रैल से होने जा रहे दो दिन के कांग्रेस अधिवेशन के बहाने कांग्रेस की कोशिशों पर चर्चा करने की जरुरत है। कांग्रेस सबसे पहले तो अपनी विरासत को हासिल करने का प्रयास कर रही है। असल में 2014 में कांग्रेस जितनी बुरी तरह से हारी वह उसके लिए बहुत बड़ा झटका था। हारना कांग्रेस के लिए कोई नई बात नहीं थी लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि पार्टी 44 सीट पर सिमट जाएगी। इतनी बुरी तरह से हारने की वजह से उसको संभलने में इतना समय लगा है। इस अवधि में वह पूरी तरह से सदमे में रही। कोई नया आइडिया तो पार्टी के पास नहीं ही था वह पुरानी विरासत भी भूल गई और भाजपा ने इसका फायदा उठाया। उसने कांग्रेस के महापुरुषों को अपना बना कर कांग्रेस की साख बिगाड़ी।
प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी ने मदन मोहन मालवीय के परिजनों को अपना प्रस्तावक बनाया। उसने पंडित मदन मोहन मालवीय से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लालबहादुर शास्त्री और यहां तक कि महात्मा गांधी को भी अपना बताना और बनाना शुरू कर दिया। वास्तविकता यह है कि इनमें से लगभग सभी लोग भाजपा के पूर्ववर्ती संगठन और आरएसएस दोनों के विचारों के घनघोर विरोधी रहे हैं। अब जाकर कांग्रेस संभली है तो उसने अपनी विरासत हासिल करने का प्रयास शुरू किया है।
कांग्रेस अपने दो दिन के अधिवेशन के पहले दिन आठ अप्रैल को अहमदाबाद के शाहीबाग में स्थित सरदार पटेल मेमोरियल में कार्य समिति की बैठक करेगी। दूसरे दिन नौ अप्रैल को साबरमती के किनारे कांग्रेस अधिवेशन का मुख्य कार्यक्रम होगा। कांग्रेस 61 साल के बाद गुजरात में अधिवेशन कर रही है और यह संयोग नहीं है कि इस साल सरदार पटेल की डेढ़ सौवीं जयंती मनाई जा रही है। सरदार की डेढ़ सौवीं जयंती पर कांग्रेस ने गुजरात में अधिवेशन का फैसला किया तो इसका कहीं न कहीं यह अर्थ है कि वह सरदार पटेल की विरासत को वापस हासिल करना चाहती है। कांग्रेस के बाद के नेताओं ने खास कर माधव सिंह सोलंकी ने कांग्रेस को खाम (केएचएएम) यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम की राजनीति में समेटा था। इसका कुछ लाभ तो पार्टी को मिला लेकिन उसके बाद जब हार का सिलसिला शुरू हुआ तो यह समीकरण काम नहीं आया। अब कांग्रेस इस समीकरण से बाहर निकल कर आजादी के बाद के सबको साथ लेकर चलने के समीकरण पर काम कर रही है। विरासत वापस हासिल करने की कोशिश कांग्रेस ने पिछले साल दिसंबर के अंत में बेलगावी अधिवेशन से शुरू की। महात्मा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की शताब्दी पूरी होने पर बेलगावी में कांग्रेस ने अधिवेशन किया। गौरतलब है कि महात्मा गांधी 1924 में बेलगावी में ही कांग्रेस अध्यक्ष बने थे और सिर्फ एक साल ही अध्यक्ष रहे थे। उस ऐतिहासिक घटना को कांग्रेस ने बड़े ऐहतराम के साथ याद किया।
गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू होने के बाद कांग्रेस स्वतंत्र राजनीति का रास्ता भूलती गई है। जहां वह सत्ता से बाहर हुई वहां उसके नेताओं ने किसी प्रादेशिक पार्टी का कंधा पकड़ लिया और उस पर सवार हो गई। इसमें कांग्रेस नेतृत्व की भी भूमिका रही है लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस की जमीन लगातार सिमटती गई। पहले जो एक राज्य की परिघटना थी वह अब कई राज्यों की हो गई है। कांग्रेस 1967 में तमिलनाडु की सत्ता से बाहर हुई तो पिछले 58 साल से उसका मुख्यमंत्री नहीं बना। पश्चिम बंगाल में 47 साल से कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं बना। हिंदी हर्टलैंड यानी उत्तर प्रदेश और बिहार में 34 साल से कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। गुजरात में 30 साल से कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं बना है। बिहार से अलग होकर बने झारखंड में तो 25 साल के इतिहास में कांग्रेस का कोई मुख्यमंत्री ही नहीं बन पाया।
जिस तरह कांग्रेस तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना डीएमके पर आश्रित होती गई उसी तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड में अलग अलग सहयोगियों पर निर्भर हो गई। हाल की दिनों तक कांग्रेस जहां सत्ता में थी वहां से भी सत्ता से बाहर हुई है तो वापसी की संभावना लगातार क्षीण होती जा रही है। महाराष्ट्र में लगातार तीसरी बार भाजपा और उसका गठबंधन जीता है तो हरियाणा में भी भाजपा तीसरी बार जीती है। उत्तराखंड और केरल में भी पांच साल में सत्ता बदलने का इतिहास नहीं दोहराया गया और कांग्रेस लगातार दूसरी बार सत्ता से बाहर रही। दिल्ली और असम में कांग्रेस क्रमशः 2013 और 2016 में सत्ता से बाहर हुई तो वापसी की संभावना नहीं दिख रही है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस लगातार तीन चुनावों से शून्य पर है। उसका कोई सांसद या विधायक नहीं जीत रहा है।
कांग्रेस इस स्थिति को बदलने के प्रयास कर रही है। ऐसा दिख रहा है कि वह स्वतंत्र राजनीति के रास्ते पर चल रही है। हालांकि यह प्रयास भी इतना ढीला ढाला है कि इससे भी कुछ हासिल की संभावना कम से कम अभी नहीं दिख रही है। दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस ने जोखिम लेकर अकेले चुनाव लड़ा। लगातार तीसरे चुनाव में भी उसका खाता नहीं खुला लेकिन आम आदमी पार्टी के चुनाव हार जाने से कांग्रेस वापसी की संभावना बनी है। ऐसे ही बिहार में कांग्रेस ने स्वतंत्र राजनीति शुरू की है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी लेकिन अगर पार्टी हर जिले में अपना संगठन खड़ा करने में भी कामयाब हो जाती है तो आगे की राजनीति उसके लिए थोड़ी आसान होगी।
स्वतंत्र राजनीति के रास्ते पर चलने के लिए राहुल गांधी अपनी टीम बना रहे हैं। यह उनकी हिम्मत है कि 2009 में अपनी बनाई टीम के सदस्यों से धोखा खाने के बाद वे फिर से प्रयास कर रहे हैं। इस बार वे बड़े नेताओं के बेटे, बेटियों को आगे करने की बजाय दूसरी पृष्ठभूमि के लोगों को आगे कर रहे हैं। के राजू और कृष्णा अलवरू जैसे अराजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को बढ़ाया जा रहा है तो कांग्रेस संगठन में दशकों से जमे नेताओं को हटा कर नए चेहरे लाए जा रहे हैं।
विचार के स्तर पर कांग्रेस के पास नया कुछ भी करने को नहीं है। आजादी की लड़ाई के मूल्यों पर कांग्रेस चलती रही है। उस समय बने आइडिया ऑफ इंडिया में कांग्रेस ने राजनीति की। लेकिन उदारवादी अर्थव्यवस्था और आरक्षण की राजनीति शुरू होने के बाद भारत का आइडिया पूरी तरह से बदल गया है। कांग्रेस तब भी पिछले 35 साल से मिश्रित अर्थव्यवस्था और पारंपरिक सामाजिक समीकरण वाली राजनीति करती रही है। आर्थिक मामलों में तो मनमोहन सिंह को 10 साल प्रधानमंत्री रखने के बाद भी कांग्रेस नहीं बदली लेकिन सामाजिक विचारों को लेकर कांग्रेस में क्रांतिकारी बदलाव आया है।
कांग्रेस और राहुल गांधी अब आरक्षण के नए चैंपियन के तौर पर उभरे हैं। राहुल गांधी जातिगत गणना कराने और आबादी के आधार पर प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण बढ़ाने का अभियान चला रहे हैं तो उनकी पार्टी ने अब निजी सेक्टर में भी आरक्षण की मांग शुरू कर दी है। सो, ऐसा दिख रहा है कि संगठन में बदलाव की बात हो या गठबंधन पर नीतिगत फैसले का मामला हो या राजनीतिक विचार के तौर पर आरक्षण के विचार को अपनाने का मामला हो, कांग्रेस की जड़ता टूट रही है। कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए यथास्थिति की बजाय वह डिसरप्शन यानी विघटन की राजनीति कर सकती है। क्या पता सब कुछ उलटफेर करने से उसे कुछ हासिल हो जाए!