nayaindia कांग्रेस की हार: भाजपा की मशीनरी और राजनीतिक लचीलापन

कांग्रेस चुनाव लड़ना सचमुच भूल गई है!

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उत्तर भारत में क्यों कर कांग्रेस डूबी-3: नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा को चुनाव लड़ने की मशीनरी बना दिया है। और राजनीति में यह अच्छी बात है। ठिक दूसरी तरफ कांग्रेस चुनाव लड़ना भूल गई! कैसे और क्यों?  आज हकीकत है कि कांग्रेस कंपीटिशन मेंन तो चुनाव लड़ने की मशीनरी बनी है बल्कि चुनाव लड़ने की बेसिक्स भी छोड़ बैठी है। दूसरे शब्दों में किस तरह से उम्मीदवारों का चयन होता है, कैसे जमीनी मुद्दे उठाए जाते हैं, किस तरह से प्रदेशों में संगठन काम करता है, कैसे चुनाव अभियान समिति काम करती है,कैसे केंद्रीय टीम के साथ प्रदेश कमेटी के तालमेल होते है, चुनाव के बीच जमीनी स्तर पर क्या क्या तैयारियां होती हैं और कहां नेतृत्व को रणनीतिक लचीचापन दिखाना होता है और कहां सख्ती करनी होती है, जबकि ये सब ऐसी चीजें हैं, जो कांग्रेस और उसके नेताओं को सामान्य ज्ञान की तरह पता होनी चाहिए!

इस बारे में किसी भी पार्टी को कुछ भी बताना पानी में मछली को तैरना सिखाने की तरह है। लेकिन अफसोस की बात है कि कांग्रेस संगठन चलाने, चुनाव लड़ने और लड़ कर सत्ता हासिल करने का बेसिक इंस्टिंक्ट भूल चुकी है।

हिंदी पट्टी के तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस चुनाव हारी तो ईमानदारी से उसका विश्लेषण करने की बजाय कांग्रेस नेता तेलंगाना का वोट जोड़ कर कहने लगे कि कांग्रेस को भाजपा से 10 लाख वोट ज्यादा मिला है। हकीकत यह है कि इन तीन राज्यों में कांग्रेस को भाजपा से 50 लाख वोट कम मिला है। कांग्रेस को तीन लाख 98 हजार वोट मिला है तो भाजपा को चार करोड़ 51 लाख वोट मिला है।

राजस्थान के नजदीकी मुकाबले को छोड़ दें तो दो राज्यों में कांग्रेस को निर्णायक हार मिली है। लेकिन अब कांग्रेस नेता इस टोटके की बात कर रहे हैं कि 2003 में इन राज्यों में कांग्रेस हारी थी तो 2004 में देश की सत्ता उसको मिल गई थी। ऐसी जब सोच है तो फिर भगवान ही मालिक है!

बहरहाल, अगर ईमानदारी से कांग्रेस इन तीन राज्यों में हार के कारणों की तलाश करती तो उसको पता चल जाता कि इन राज्यों में हार के बीज 2018 में ही पड़ गए थे। असल में कांग्रेस में इन दिनों केंद्रीय आलाकमान की तरह राज्यों में भी आलाकमान बनाने का चलन हो गया है। पहले कांग्रेस में एक ही आलाकमान होता था। लेकिन अब राज्यों में छोटे छोटे आलाकमान बना दिए गए हैं। राज्यों में एक ही नेता के हाथ में सब कुछ सौंप दिया जाता है और उसके फैसले पर सवाल नहीं उठाया जाता है।

यह संगठन के कमजोर होने और जमीनी नेताओं के हाशिए पर जाने का कारण बना है। सोचें, जब 2018 में मध्य प्रदेश में कमलनाथ मुख्यमंत्री बने तो उन्हीं को प्रदेश अध्यक्ष क्यों बनाए रखा गया? ज्योतिरादित्य सिंधिया ने चुनाव अभियान समिति के बतौर प्रमुख के नाते कितनी मेहनत की थी, क्या यह किसी से छिपा हुआ था? लेकिन उन्हें सरकार या संगठन में हिस्सेदार नहीं बनाया गया। जब वे लोकसभा चुनाव हार गए तो उन्हें 2020 में राज्यसभा जाने से भी रोकने का प्रयास हुआ, जिसका नतीजा यह हुआ कि 15 साल बाद मिली सत्ता कांग्रेस ने गंवा दी। इस बार चुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग के नतीजों से पता चल रहा है कि सिंधिया के होने या नहीं होने का क्या असर हुआ है।

बिल्कुल यही स्थिति राजस्थान की रही, जहां अशोक गहलोत के हाथ में सब कुछ सौंप दिया गया। सचिन पायलट बागी हुए तो उनके प्रति लचीलापन दिखाने की बजाय उनको सबक सिखाने का फैसला हुआ। सबको पता है कि 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनावों से पहले प्रदेश अध्यक्ष के नाते पायलट ने कितनी मेहनत की थी। जाति का ही सही लेकिन एक वोट आधार बना था। इस बार के चुनावों में पूर्वी राजस्थान के नतीजों से पायलट की उपयोगिता का पता चल रहा है। अगर गहलोत अपने अहंकार और सर्वज्ञ होने की सोच में चुनाव नहीं लड़ते तो आज वे रिवाज बदल कर मुख्यमंत्री बनते। राज्य की 44 सीटें ऐसी हैं, जहां तीसरी पार्टी या निर्दलीय को हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट मिला है।

ये सारी सीटें भाजपा ने जीती हैं और कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही है। गहलोत को भारतीय आदिवासी पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, आम आदमी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों को कुछ सीटें देकर उनसे तालमेल करना था। लेकिन या तो वे इस अहंकार में थे कि वे जीत जाएंगे या यह सोचा हुआ था कि कांग्रेस को हरवा कर जाना है। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान का सार्थक हस्तक्षेप हो सकता था लेकिन दिल्ली में सब चुप रहे।

इसी तरह छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल आलाकमान बन गए और उनकी जैसे मर्जी हुई वैसे उन्होंने सरकार चलाई। एक समय मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे टीएस सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू, चरणदास महंत जैसे नेताओं की कोई पूछ नहीं रही। चुनाव में भी कांग्रेस ने सब कुछ कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल के ऊपर छोड़ा था। इसके उलट भाजपा में सब कुछ नरेंद्र मोदी और अमित शाह के स्तर पर तय हो रहा था। हालांकि भाजपा के उम्मीदवारों की पहली सूची के बाद लगा की कुछ गलत हो रहा है तो तुरंत मोदी और शाह ने लचीलापन दिखाया और प्रदेश के क्षत्रपों को चुनावी प्रक्रिया में शामिल किया। क्या इस तरह का रणनीतिक लचीलापन कांग्रेस नेतृत्व नहीं दिखा सकता है? कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार और मल्लिकार्जुन खड़गे ने सब कुछ प्रदेश नेताओं पर छोड़े रखा और प्रादेशिक क्षत्रपों के विरोधी नेताओं की कोई बात नहीं सुनी।

इसे लेकर तीन तरह की थ्योरी है। पहली तो यह कि प्रादेशिक स्तर पर कांग्रेस आलाकमान ने जिनको पूरी पार्टी आउटसोर्स की थी उन्होंने किसी तरह से दिल्ली में नेताओं का मुंह बंद कर रखा था।

दूसरी थ्योरी यह है कि कांग्रेस आलाकमान इतना कमजोर हो गया है कि प्रादेशिक क्षत्रप अब उसके कंट्रोल में नहीं हैं और तीसरी थ्योरी यह है कि जो संसाधन जुटा रहा था उसके हाथ में सब कुछ सौंप दिया गया। कमलनाथ को जैसी बेहिसाब ताकत मिली या अशोक गहलोत ने पायलट मामले में या राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के समय जैसा आचरण किया और भूपेश बघेल ने टीएस सिंहदेव प्रकरण में जैसी राजनीति की वह कुल मिला कर आलाकमान की बांह मरोड़ने जैसा था। वैसे यह सिर्फ इन तीन राज्यों का मामला नहीं है। हरियाणा से लेकर कर्नाटक और तेलंगाना तक में कांग्रेस आलाकमान के हाथ बंधे दिखते हैं।

बहरहाल, जब चुनाव लड़ना भूल जाने की बात करते हैं तो उसमें कई चीजें शामिल होती हैं। चुनाव प्रचार और रैलियां उनमें से एक है। इसमें राहुल गांधी और प्रियंका गाधी वाड्रा या मल्लिकार्जुन खड़गे की मेहनत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। लेकिन यह तो सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा चुनावी नैरेटिव बनाने और उसके हिसाब से आचरण करने, चुनाव की रणनीति बनाने और उस पर अमल करने और रणनीतिक समझौते करने का होता है। इन सभी कसौटियों पर कांग्रेस का केंद्रीय और प्रादेशिक आलाकमान दोनों बार-बार विफल साबित होते हुए है।

सोचें, नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे शक्तिशाली नेता जरुरत पड़ने पर हनुमान बेनीवाल के लिए सीट छोड़ देते हैं कहीं आजसू के सुदेश महतो के लिए सीट छोड़ देते हैं, लोकसभा के साथ साथ राज्यसभा की सीट देकर भी लोक जनशक्ति पार्टी से समझौता करते हैं, शिव सेना तोड़ने वाले एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना देते हैं, अपनी पार्टी में ही बगावत करने वाले या चुनौती देने या विरोधी माने जाने वाले येदियुरप्पा, शिवराज, वसुंधरा, रमन सिंह, उमा भारती आदि को पर्याप्त महत्व दे देते हैं। लेकिन कांग्रेस में ऐसा लचीलापन कोई नहीं दिखाता है।

ऐसे ही कांग्रेस जो विमर्श खड़ा करती है उसमें भी उसका आचरण अलग होता है। उसमें वॉक द टॉक वाली बात नहीं होती है। मिसाल के तौर पर राहुल गांधी ने जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया लेकिन कांग्रेस यह दावा नहीं कर सकती है कि उसके संगठन में पिछड़ी जाति के लोग आबादी के अनुपात में हैं। तीन मुख्यमंत्री जरूर कांग्रेस दिखा रही थी लेकिन वह तात्कालिक मामला था। इसके उलट भाजपा ने नरेंद्र मोदी के चेहरे, उनकी सरकार में शामिल पिछड़ी जातियों के मंत्रियों, ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने, विश्वकर्मा योजना, नवोदय व सैनिक स्कूलों और मेडिकल दाखिले में ओबीसी को आरक्षण देकर अपने को पिछड़ी जातियों में ज्यादा मजबूती से स्थापित किया है।

इसी तरह राहुल गांधी एक तरफ अडानी पर हमला करते हैं तो दूसरी ओर उनकी राज्य सरकारें या प्रदेश के नेता अडानी की जय-जयकार करते हैं। राजस्थान में अडानी ने 50 हजार करोड़ रुपए के निवेश का वादा किया तो मुख्यमंत्री गहलोत उनके सामने बिछे थे तो केरल में अडानी के विझिंजम पोर्ट की शुरुआत हुई तो कांग्रेस के नेता इसका श्रेय लेने के लिए मारा-मारी कर रहे थे। हिंदुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस अभी तय ही नहीं कर पाई है कि उसे क्या करना है। राहुल गांधी इस मामले में अलग लाइन पर चल रहे थे तो कमलनाथ, भूपेश बघेल की अलग लाइन थी। दूसरी ओर इस मामले में भाजपा की सोच और राजनीति में कोई अस्पष्टता नहीं है।

सो, न तो कांग्रेस के बनाए विमर्श में वैचारिक निरंतरता और एकरूपता दिखती है और न उसके राजनीतिक अभियानों में निरंतरता दिखती है। इसी तरह केंद्र से लेकर प्रदेश स्तर पर संगठन एडहॉक तरीके से काम कर रहा है। एक साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद अभी तक खड़गे ने अपना संगठन नहीं बनाया है। कई राज्यों में भी यही हालात हैं। पार्टी ने 2017 में तय किया था कि वह चुनाव प्रबंधन की एक आंतरिक कमेटी बनाएगी। लेकिन उस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई और हर जगह प्रादेशिक क्षत्रपों ने चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी मैनेजरों के ऊपर छोड़ दी।

सबको पता है कि मैनेजरों के साथ पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं और प्रदेश व केंद्र के बीच तालमेल नहीं बन सकता है। इस वजह से हर जगह कांग्रेस का प्रचार बिखरा दिखता है। उसमें समन्वय की कमी दिखती है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस हर बार यह सोच कर चुनाव लड़ती है कि अब बहुत हो गया इस बार तो भाजपा हार ही जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। पहले ऐसा होता होगा, लेकिन अब भाजपा बदल गई है।

वह 24 घंटे राजनीति करने वाली मशीन है। उससे भी गलतियां होती हैं लेकिन वह तुरंत गलतियों में सुधार करती है। हर बार नए विमर्श खड़े करती है, जबकि कांग्रेस लूप में फंसी है। वह इंतजार में है कि देर-सबेर लोग उबेंगे, नाराज होंगे और भाजपा को हरा देंगे। हो सकता है कि वह समय भी आए लेकिन अभी निकट भविष्य में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। निकट भविष्य में ऐसा हो इसके लिए कांग्रेस को सोशल मीडिया में नहीं, बल्कि जमीन पर लड़ना होगा, जमीनी सच्चाई का जनमन समझना होगा।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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