पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर हैशटैग ‘ये ठीक करके दिखाओ’ अभियान ट्रेंड कर रहा था। एक एक्स हैंडल से इस अभियान की शुरुआत हुई थी, जिसने राजस्थान सरकार के मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ के चुनाव क्षेत्र की टूटी सड़कों और जलजमाव आदि की फोटो डाली थी। इस पर राठौड़ उस एक्स हैंडल से उलझ गए, जिसने बाद में एक पूरा अभियान चला दिया। धीरे धीरे अनेक लोकप्रिय सोशल मीडिया हैंडल इसमें शामिल हुए। लोगों से अपील की गई कि वे अपने क्षेत्र के बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, नाली, पार्क, जलजमाव आदि की बदहाली की तस्वीरें अपने हैंडल से शेयर करें और स्थानीय विधायक, सांसद, पार्षद आदि को उसमें टैग करें। लोगों से यह भी आग्रह किया गया कि वे जियो लोकेशन के साथ तस्वीर टैग करें। 24 घंटे के अंदर यह प्रयास एक बड़े अभियान में बदल गया। एक बड़े हिंदी अखबार ने भी इसका समर्थन किया लेकिन बाद में पता नहीं किस दबाव में उसने सारी तस्वीरें आदि डिलीट कर दीं। हालांकि इसके बावजूद यह अभियान चलता रहा। सबसे हैरान करने वाली बात यह ररही कि सोशल मीडिया के इस अभियान में राइट विंग को समर्थन देने वाले दर्जनों हैंडल शामिल थे। कई ऐसे पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और यूट्यूब इन्फ्लूएंसर्स, जो सार्वजनिक मंचों पर भाजपा का पक्ष रखते हैं उन्होंने इसका समर्थन किया। ध्यान रहे सोशल मीडिया में जो तस्वीरें साझा हुईं उनमें विपक्षी शासन वाले राज्यों और विपक्ष के नेताओं के क्षेत्र की भी तस्वीरें थीं लेकिन ज्यादातर भाजपा शासन वाले राज्यों या भाजपा नेताओं के क्षेत्रों से जुड़ी थीं। इस तरह उनको सीधी चुनौती दी गई और इसमें भाजपा के इकोसिस्टम के लोग भी शामिल थे।
यह अभियान अभी चल ही रहा था कि राजधानी दिल्ली में एक जुलाई से 15 साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियां और 10 साल पुरानी डीजल गाड़ियां जब्त की जाने लगीं। पेट्रोल पंपों पर विशेष कैमरे लगाए गए, ट्रैफिक पुलिस की तैनाती की गई, सरकार या सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित की गई उम्र की सीमा पार कर चुकी गाड़ियों को पेट्रोल, डीजल देना बंद कर दिया गया और उनको जब्त किया जाने लगा। सोशल मीडिया में इसे लेकर भी एक कैम्पेन शुरू हुआ। लोगों ने सरकार पर आरोप लगाए कि वह देश और दुनिया की कार बनाने वाली कंपनियों के हाथों में खेल रही है। कार कंपनियों को अपनी बिक्री बढ़ानी है और सरकार को उस पर अनेक किस्म के टैक्स वसूल कर अपना खजाना भरना है इसलिए लोगों की गाड़ियां जब्त की जा रही हैं। यह तार्किक सवाल भी उठाया गया कि जिन गाड़ियों की प्रदूषण जांच हुई है और पॉल्यूशन अंडर कंट्रोल यानी पीयूसी का सर्टिफिकेट जिनके पास है उनको उम्र देख कर कैसे रिटायर कर सकते हैं?
सोचें, सरकार 11 साल पुराने हवाई जहाज को उड़ने की मंजूरी देती है, जिसकी दुर्घटना में पिछले ही महीने 12 जून को 260 लोग मारे गए लेकिन 10 साल पुरानी डीजल गाड़ी जब्त कर ली जाएगी! सरकार के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि टैक्सी में चलने वाली डीजल गाड़ियां एक साल में एक लाख या डेढ़ लाख किलोमीटर चल जाती हैं, जबकि निजी इस्तेमाल वाली गाड़ियां 10 साल में भी इतना नहीं चलती हैं। फिर भी दोनों तरह की गाड़ियां 10-10 साल चलेंगी! यानी ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ का सिद्धांत चलेगा। सोशल मीडिया, मीडिया और सार्वजनिक स्थानों पर इसे लेकर खूब चर्चा हुई है और कहने की जरुरत नहीं है कि इसमें भी मध्य वर्ग और भाजपा के इकोसिस्टम के लोग शामिल हुए। उन्होंने इस मुहिम का समर्थन किया। यहां तक कहा कि सरकार मध्य वर्ग के लोगों से गाड़ियों पर दस तरह के टैक्स वसूल रही है ताकि दूसरे लोगों को मुफ्त में बस में चलने की सुविधा और मुफ्त में बिजली, पानी, अनाज आदि दिया जा सके। मध्य वर्ग और भाजपा समर्थकों के इस अभियान की वजह से दिल्ली सरकार दबाव में है और किसी तरह से गाड़ियों की जब्ती रोकने का रास्ता खोज रही है।
इस बीच एक और दिलचस्प घटनाक्रम हुआ है। केंद्र सरकार ने कैब एग्रीगेटर्स यानी ओला, उबर, रैपिडो आदि के लिए नए नियम बनाए हैं। जिस समय राजधानी दिल्ली में ओवरएज हो जाने के आरोप में पांच लाख गाड़ियां जब्त होनी हैं उसी समय सरकार ने कैब एग्रीगेटर्स के नए नियमों को मंजूरी दी। कहने की जरुरत नहीं है कि ओला, उबर, रैपिडो का इस्तेमाल भी मध्य वर्ग ही करता है। उसकी शिकायत रही है कि पीक ऑवर में यानी ऑफिस, दुकान जाने या लौटने के समय में ये कंपनियां मनमाने तरीके से किराया बढ़ा देती हैं। इसे सर्ज प्राइस कहा जाता है। अब तक नियम यह था कि कंपनियां बेस किराए से 50 फीसदी से ज्यादा सर्ज प्राइस नहीं कर सकती है। यानी कहीं का बेस किराया एक सौ रुपया है तो पीक ऑवर में वहां का किराया अधिकतम डेढ़ सौ रुपया हो सकता था। लेकिन अब ये कंपनियां उसे सौ फीसदी तक बढ़ा सकती हैं। नए नियमों के बाद सौ रुपए की बेस प्राइस पर दो सौ रुपए सर्ज प्राइस हो सकता है। सर्ज प्राइस का विरोध करने वाले तमाम लोग मुंह बाए खड़े हैं कि सरकार ने यह क्या कर दिया? ‘रोजा छुड़ाने गए थे, नमाज गले पड़ी’। गए तो थे किराया कम कराने लेकिन सरकार ने किराया बढ़ा दिया! साथ ही यह भी कहा है कि नॉन पीक ऑवर में कंपनियां बेस किराए के 50 फीसदी से ज्यादा किराया कम नहीं कर सकती हैं। कैब एग्रीगेटर्स के लिए बने इन नए नियमों का भी खुल कर विरोध हो रहा है।
मध्य वर्ग की नाराजगी या निराशा का एक और मुद्दा बैंकों के ब्याज दरों में कमी नहीं होना भी है। भारत के केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की मौद्रिक नीति समिति ने तीन बार में रेपो रेट में एक फीसदी की कटौती की है और इसे कम कर साढ़े पांच फीसदी पर ला दिया है। इसके बावजूद बैंक अपने ग्राहकों को इसका लाभ नहीं दे रहे हैं। बैंकों ने जमा पर ब्याज दरों में कटौती शुरू कर दी है लेकिन कर्ज पर ब्याज दर घटाने में कंजूसी कर रहे हैं। सोशल मीडिया में इसकी खूब शिकायत हुई है, जिसके बाद मीडिया में भी इसे लेकर खबरें छपीं। पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि सभी बैंकों को नीतिगत ब्याज दरों में कटौती का लाभ ग्राहकों तक तेजी से पहुंचाते हुए ब्याज दरों में कटौती करनी चाहिए। हालांकि बैंक आवास और वाहन कर्ज बहुत ज्यादा सस्ता करने की जल्दी में नहीं दिख रहे हैं। बैंकों के इस रवैए का भुक्तभोगी भी मध्य वर्ग है। ध्यान रहे एक के बाद एक कई बैंकों ने खातों में न्यूनतम राशि की बाध्यता खत्म कर दी है और उन पर जुर्माना लगाना बंद कर दिया है। लेकिन इसका लाभार्थी गरीब तबके के लोग हैं। मध्य वर्ग इससे प्रभावित नहीं हो रहा है। उसे कर्ज पर ब्याज की दरों में ठीक ठाक कटौती चाहिए, जो बैंक नहीं कर रहे हैं।
सवाल है कि भाजपा की केंद्र सरकार मध्य वर्ग की परवाह क्यों नहीं कर रही है? ध्यान रहे पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि भारत में 95 करोड़ लोग सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का लाभ ले रहे हैं। तो क्या भाजपा अपने कोर वोट बैंक की बजाय सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ लेने वाले मतदाता समूह यानी लाभार्थी मतदाताओं की वजह से आत्मविश्वास में है? सोचें, क्या दिलचस्प स्थिति है! कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने शहरी मध्य वर्ग को इस वजह से छोड़ा है कि वह भाजपा का बंधुआ वोटर है और भाजपा इस वजह से परवाह नहीं कर रही है कि उसने 95 करोड़ लाभार्थी बनाए हैं तो उसे मध्य वर्ग की क्या जरुरत है!