प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शासन, प्रशासन में जो भी बदलाव किए वह अपनी जगह है लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने के तरीके और चुनावी राजनीति की तमाम प्रचलित मान्यताओं को पूरी तरह से बदल दिया। सत्ता में रहते हुए भी वे ऐसे चुनाव लड़ते हैं, जैसे विपक्ष में हों। भारत में आमतौर पर सत्तारूढ़ दल और उसके नेता आराम चुनाव लड़ते हैं। जो सरकार में होता है वह चुनाव लड़ने में मेहनत नहीं करता है। उसके पास संसाधन होते हैं और सत्ता में होने से पार्टी की मशीनरी भी ज्यादा सक्षम होती है। साथ ही उसके मन में यह धारणा बैठी होती है कि कम मतदान उसके लिए फायदेमंद है। सो, सत्तारूढ़ दल या गठबंधन ज्यादा ताकत लगा कर चुनाव नहीं लड़ता है।
इसके उलट विपक्ष को ज्यादा मेहनत करनी होती है। उसे सरकार के खिलाफ प्रचार अभियान चलाना होता है, जिसमें निश्चित रूप से ज्यादा भागदौड़ की जरुरत होती है। साथ ही उसको इसके लिए भी मेहनत करनी होती है कि लोग बड़ी संख्या में बाहर निकलें और सरकार बदलने के लिए मतदान करें। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो सरकारें तभी बदलती हैं, जब मतदान ज्यादा होता है। विपक्ष को इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि सत्ता विरोधी वोट नहीं बंटे। प्रधानमंत्री मोदी ने इस धारणा को बदल दिया है। हर चुनाव में यह देखने को मिला है कि वे ज्यादा दम लगा कर चुनाव लड़ते हैं। इस बार भी मोदी, भाजपा और उनकी सहयोगी पार्टियां ज्यादा दम लगा कर लड़ रही हैं, जबकि विपक्ष आराम से चुनाव लड़ रहा है।
इस पर विस्तार से बात करने से पहले चुनावी रैलियों का एक आंकड़ा देखें तो उससे तस्वीर और साफ होती है। चुनाव आयोग ने चुनाव की घोषणा वैसे तो मार्च के मध्य में की थी और उससे पहले ही प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों की शुरुआत हो गई थी। लेकिन असली चुनाव प्रचार एक अप्रैल से शुरू हुआ मानें तो उस दिन से 15 मई तक प्रधानमंत्री मोदी करीब 110 रैलियां कर चुके हैं। उन्होंने 24 राज्यों का दौरा किया और करीब साढ़े तीन सौ लोकसभा सीटों को कवर किया। पिछले एक हफ्ते में अपने नामांकन के साथ साथ आठ राज्यों में उनकी 20 रैलियां हुईं हैं और चार शहरों में उन्होंने रोड शो किया है। इसके मुकाबले राहुल गांधी ने एक अप्रैल से अभी तक सिर्फ 45 रैलियां की हैं और 140 सीटों को कवर किया है। पिछले एक हफ्ते में राहुल तीन राज्यों में गए और 10 रैलियों को संबोधित किया। यह भी खास बात है कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा उम्मीदवारों के साथ साथ सहयोगी पार्टियों के लिए भी रैली करने गए हैं, जबकि विपक्ष की ओर से ऐसी इक्का दुक्का रैलियां ही हुई हैं।
विपक्ष न सिर्फ आराम से चुनाव लड़ रहा है, बल्कि गठबंधन बनाने और उम्मीदवार तय करने का फैसला भी विपक्ष ने बड़े आराम से किया। लोकसभा चुनाव 2024 के सातवें और आखिरी चरण के लिए नामांकन शुरू होने के बाद तक उम्मीदवारों के नाम तय हो रहे थे। विपक्ष ने पिछले साल अप्रैल में गठबंधन बनाने की शुरुआत की थी और साल के अंत तक इस बारे में फैसला नहीं हुआ, जिसके बाद नीतीश कुमार गठबंधन छोड़ कर गए और ममता बनर्जी ने अकेले लड़ने का ऐलान किया। सो, गठबंधन बनाने से लेकर उम्मीदवार तय करने और प्रचार तक में विपक्षी पार्टियां आराम से चुनाव लड़ रही हैं। कुछ प्रादेशिक क्षत्रपों ने जरूर मेहनत की है और ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार आदि अब भी मेहनत करते हुए हैं लेकिन कांग्रेस, राजद, आम आदमी पार्टी, जेएमएम आदि रूटीन अंदाज में चुनाव लड़ रहे हैं।
अब सवाल है कि ऐसा क्यों है कि 10 साल तक प्रधानमंत्री रहने के बाद नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में जी जान लगाए हुए हैं तो इस चुनाव को आखिरी चुनाव बता रहा विपक्ष रूटीन अंदाज में चुनाव लड़ रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि विपक्ष को लग रहा है कि उसने जो राजनीतिक विमर्श खड़ा किया है, जो एजेंडा सेट किया है और जो नैरेटिव बनवाया है चुनाव उसी पर हो रहा है और उससे अपने आप माहौल बन रहा है। यह आमतौर पर होता है, खास कर लोकसभा चुनाव में कि अगर किसी पार्टी या नेता का नैरेटिव काम करने लगे, लोगों में उसे लेकर चर्चा होने लगे और वह चुनाव की केंद्रीय थीम हो जाए तो नेता को हर जगह पहुंचने या बहुत पसीना बहाने की जरुरत नहीं होती है। उसे सिर्फ अपने नैरेटिव को दोहराते रहना होता है। इस बार विपक्ष ने अपना नैरेटिव बना दिया है। पिछले 10 साल में यह पहली बार हो रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी और पूरी भारतीय जनता पार्टी विपक्ष के बनाए नैरेटिव पर प्रतिक्रिया दे रही है।
विपक्षी पार्टियों ने जो वादे किए और जो गारंटियां दीं उनको लेकर जनता के बीच ज्यादा उत्साह नहीं है। इसका कारण यह है कि भाजपा, कांग्रेस से लेकर लगभग सभी पार्टियों ने एक जैसे वादे किए हैं और सबने चांद, तारे तोड़ कर लाने को कहा है। पार्टियों के चुनावी वादों में डिग्री का फर्क है बाकी वादे सबके एक जैसे हैं। लेकिन विपक्ष ने संविधान खतरे में होने, आरक्षण समाप्त हो जाने और आगे चुनाव नहीं होने का जो नैरेटिव बनाया है वह भाजपा के गले की हड्डी बना है। बिल्कुल जमीनी स्तर पर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों के बीच इस बात की चिंता फैली है कि भाजपा संविधान और आरक्षण खत्म कर सकती है। यह धारणा बनवाने में विपक्ष को कामयाबी इसलिए मिली क्योंकि भाजपा ने चुनाव प्रचार शुरू होने से पहले चार सौ सीट मांगना शुरू कर दिया था। विपक्ष ने इसको नए तरह से मोड़ दिया और प्रचार किया कि भाजपा चार सौ सीट इसलिए मांग रही है ताकि आरक्षण समाप्त कर सके। ये दोनों बातें मिल गईं तो एक बड़े तबके को लगने लगा कि ऐसा हो सकता है।
सोशल मीडिया के जमाने में विपक्ष को अपना यह नैरेटिव फैलाने में ज्यादा परेशानी नहीं हो रही है। विपक्षी नेताओं की एक या दो सभाएं भी हो रही हैं तो उसमें वे संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र पर खतरे की बात दोहरा दो रहे हैं और बात पूरे देश में पहुंच जा रही है। सोशल मीडिया का सबसे बेहतरीन इस्तेमाल करने वाली भाजपा इस बार उस प्लेटफॉर्म से विपक्ष के नैरेटिव को काउंटर नहीं कर पा रही है। तभी प्रधानमंत्री मोदी को ज्यादा भागदौड़ करनी पड़ रही है। वैसे वे हर चुनाव इसी अंदाज में लड़ते हैं लेकिन पहले वे अपना एजेंडा लेकर या अपना नैरेटिव लेकर लोगों के बीच जाते थे। इस बार उन्हें विपक्ष के बनाए राजनीतिक विमर्श का जवाब देना पड़ रहा है।
उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने की जरुरत इसलिए पड़ी है ताकि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रत्यक्ष रूप से विपक्ष के आरोपों का जवाब दे सकें। उनको पता है कि जब वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर विपक्ष का नैरेटिव ज्यादा ध्यान खींच रहा है तो उसका जवाब यह है कि शारीरिक रूप से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा जाए। उनके 10 साल के शासन को लेकर सत्ता विरोध का जो माहौल बना है उसे दूर करने के लिए भी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने की रणनीति अपनानी पड़ी है। इसी तरह जब प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि सभी 543 सीटों पर वे खुद लड़ रहे हैं तो उसके लिए भी उनका ज्यादा से ज्यादा सीटों पर पहुंचना जरूरी है। दूसरी ओर विपक्ष इस भरोसे में है कि उसका नैरेटिव हिट है इसलिए उसे ज्यादा मेहनत करने की जरुरत नहीं है।