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पार्टियों को खुद सुधार करना होगा

भारत में राजनीतिक दल संविधान, लोकतत्र, संसदीय व्यवस्था, नैतिकता, परंपरा आदि की जितनी बातें करते हैं अगर उसके एक प्रतिशत पर भी अमल करते तो देश की राजनीति ऐसी स्थिति में नहीं पहुंची होती कि उसमें सुधार के लिए लोगों को सर्वोच्च अदालत के पास जाना होता और अदालत को भी नोटिस जारी करना पड़ता! सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें कहा गया है कि अदालत राजनीतिक दलों में बढ़ते भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, अपराधीकरण और काले धन को सफेद करने के खेल पर सख्त कार्रवाई करे और राजनीतिक दलों के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने का आदेश दे। याचिका में मीडिया में आई कई खबरों का हवाला दिया गया है। एक खबर है कि एक राजनीतिक दल का खुलासा हुआ है कि वह 20 फीसदी कमीशन लेकर काले धन को सफेद करता है। इसी तरह एक खबर है कि एक पार्टी अपराधियों और यहां तक की तस्करों को पैसे लेकर पार्टी में पद देती है। ऐसे ही एक खबर है कि अलगाववादी ताकतें पार्टी बना कर देश, विदेश से चंदा वसूल रही हैं।

हालांकि ये खबरें भी राजनीतिक दलों के वास्तविक चरित्र को उजागर करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उसके लिए दूसरे आंकड़े देखने होंगे। जैसे एक आंकड़ा यह है कि भारत में हजारों की संख्या में पार्टियां चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड हैं, हालांकि उनको राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता नहीं है फिर भी उनको मिलने वाले चंदे में वित्त वर्ष 2022-23 में 223 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई। उनको कोई वोट नहीं देता है। कई पार्टियां तो ऐसी हैं, जो चुनाव भी नहीं लड़ती हैं लेकिन चंदा हर साल दोगुना, तीन गुना होता जा रहा है। गुजरात की पांच गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों को 23 सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का चंदा मिला है! यह तो उन पार्टियों की बात हुई, जिनको मान्यता नहीं मिली है।

लेकिन मान्यता प्राप्त पार्टियों की कहानी भी अलग नहीं है। देश के 781 सांसदों और 43 सौ से ज्यादा विधायकों में से ज्यादातर मान्यता प्राप्त दलों के हैं इनमें से 45 फीसदी विधायकों और 46 फीसदी सांसदों पर आपराधिक मामले हैं। करीब 29 फीसदी के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। केंद्र से लेकर राज्यों सरकारों में तीन सौ से कुछ ज्यादा मंत्री ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले हैं। यह कुल मंत्रियों का 47 फीसदी है। इनमें से 174 मंत्री ऐसे हैं, जिन पर हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर मामले हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स, एडीआर ने विधायकों, सांसदों की ओर से चुनाव आयोग में दिए हलफनामों के आधार पर ऐसे बहुत सारे आंकड़े जारी किए हैं।

अगर इन आंकड़ों की थोड़ी बारीकी में जाएं तो दिखेगा कि भाजपा के 40 फीसदी और कांग्रेस के 74 फीसदी मंत्रियों के ऊपर आपराधिक मामले हैं। आम आदमी पार्टी के 69 फीसदी, टीडीपी के 96 फीसदी, डीएमके के 87 फीसदी मंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं। अब अगर इन पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं के भाषण सुनें और इन आंकड़ों को सामने रखें तो उनकी हिप्पोक्रेसी सामने आती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए थे तो उन्होंने कहा था कि राजनीति में ऊपर से सफाई शुरू करेंगे।

आज स्थिति यह है कि पिछले 15 साल में आपराधिक मुकदमे वाले सांसदों की संख्या 15 फीसदी बढ़ गई है। देश भर में भाजपा के 336 मंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं और उनमें से 88 के खिलाफ तो गंभीर अपराध के मामले हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी की बातें सुनिए या आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की बातें सुनिए तो लगेगा कि संत बोल रहे हैं लेकिन इनकी पार्टी में हत्या, अपहरण, डकैती और महिलाओं के प्रति अपराध करने वाले उच्च पदों पर बैठे हैं। सांसद हैं, विधायक हैं और मंत्री हैं। तभी सवाल है कि क्या पार्टियों के अंदर के इस कीचड़ की सफाई किसी कानून से हो सकती है?

सुप्रीम कोर्ट के नोटिस पर सरकार और पार्टियों की ओर से जवाब दे दिया जाएगा। कई कानून बने हैं, जिनका हवाला भी दे दिया जाएगा। यह भी बता दिया जाएगा कि केंद्र सरकार अभी तीन विधेयक लेकर आई है, जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि गिरफ्तारी या 30 दिन की हिरासत के बाद मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को पद से हटा दिया जाएगा। सरकार की ओर से यह भी बताया जा सकता है कि खुद नरेंद्र मोदी ने कहा कि प्रधानमंत्री को भी इस दायरे में रखा जाए। यह सुन कर अहसास होगा कि देखिए कितने महान प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपने को भी जवाबदेह बनाया।

लेकिन असलियत यह है कि प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी हर किस्म के अपराध के आरोपियों को टिकट देती है, चुनाव लड़ाती है, चुनाव जीतने पर मंत्री, मुख्यमंत्री बनाती है और पार्टी में पदाधिकारी बनाती है। खुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता जिनके ऊपर गंभीर आर्थिक अपराध के आरोप लगाते हैं, समय आने पर उनको या तो अपनी पार्टी में शामिल कराते हैं या उनके साथ तालमेल करके मंत्री और उप मुख्यमंत्री बनवाते हैं। यह हिप्पोक्रेसी की हद है, जो सभी पार्टियों में एक समान रूप से देखने को मिलती हैं।

तभी यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि किसी अदालती प्रक्रिया या अदालती आदेश से इसे ठीक नहीं किया जा सकता है। इसे पार्टियां ही ठीक कर सकती हैं और वे ठीक नहीं करेंगी क्योंकि उनकी सारी राजनीति चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए होती है। राजनीति न तो सेवा का माध्यम है और न नागरिकों को सशक्त या अधिकार संपन्न बनाने का उपक्रम है। यह सिर्फ सत्ता हासिल करने का माध्यम है और उसके लिए पार्टियां कुछ भी करेंगी। आजाद भारत के सबसे सुलझे, पढ़े लिखे और विनम्र माने जाने वाले नेताओं में से एक नीतीश कुमार ने राजनीति की इस प्रवृत्ति को एक लाइन में परिभाषित किया था। उन्होंने एक बार कहा था, ‘बाघ के आगे बकरी नहीं लड़ा सकते हैं’। मतलब बहुत साफ है। अगर सामने वाली पार्टी ने दबंग, बाहुबली, गंभीर अपराध का आरोपी, अरबपति उतारा है तो हम भी वैसा ही उम्मीदवार खोजेंगे।

असल में सारी पार्टियों का उम्मीदवार खोजने का एक ही पैमाना है। वह जातीय समीकरण की कसौटी पर फिट बैठता है या नहीं, उसके पास चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं या नहीं, वह बाहुबल से पर्याप्त संपन्न है या नहीं और वह जीतने में सक्षम है या नहीं यानी विनेबिलिटी फैक्टर कैसा है। जब तक इस आधार पर उम्मीदवार चुने जाएंगे, तब तक राजनीति की सफाई नहीं हो सकती है। इन पैमानों की वजह से ही राजनीति में आने से पहले ही नेता किसी न किसी तरह से खूब धन कमाने का प्रयास शुरू करते हैं। उस प्रयास में अपराध में शामिल होते हैं। बाहुबल और धनबल के दम पर अपना सामाजिक समीकरण ठीक करते हैं और फिर पार्टियों की टिकट लेकर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं। उसके बाद फिर वे अपने पद का मनमाना इस्तेमाल करके अपना धनबल और बाहुबल और बढ़ाते हैं। यह एक दुष्चक्र है, जिसे भारतीय राजनीति ने रचा है। इसको कैसे किसी अदालती आदेश से ठीक किया जा सकेगा!

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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