संघ परिवार के सर्वोपरि लोगों ने पुनः अपनी पुरानी बीमारी — पर-उपदेश कुशलता — का प्रदर्शन किया। साथ ही, किसी के साथ भी छल, यहां तक कि अपने सहयोगियों से भी। अपने ऊपर उपकार करने वालों से भी। किसलिए? केवल निजी स्वार्थ में, जिस में समाज या देश-हित का बहाना भी दिखाना कठिन है। अभी-अभी उन के एक बड़े नेता ने नागपुर में ही कहा भी: ”अच्छा नेता वही है जो लोगों को सब से अच्छी तरह मूर्ख बना सके”।
आरएसएस प्रमुख का नागपुर से यह सार्वजनिक बयान 9 जुलाई 2025 को देश-विदेश में प्रसारित हुआ था: “जब आप 75 साल के हो जाएं, तो समझिए कि अब रुक जाना चाहिए और दूसरों के लिए जगह छोड़नी चाहिए।”
पर अब सितंबर में कथनी के क्रियान्वयन का समय आया, तो अपनी सिफत अनुसार वे पुनः दर्शा रहे हैं कि उन का उपदेश सदैव दूसरों के लिए होता है। अपने लिए नहीं। इस अर्थ में वे पूरे गाँधीवादी हैं! आखिर दो ही महीने पहले संघ-प्रमुख अपने बयान, पद, और आयु — इन तीनों बातों का रोचक संबंध जानते थे! सो, तब यह उन का सोचा-समझा ब्रह्मास्त्र भी रहा हो कि ”मैं हटा, तुम भी हटो”। जिस के सामने संघ में प्रशिक्षित हुआ कोई नेता नैतिक बल से शायद ही खड़ा रहे।
पर लगता है, इस बीच सब मैनेज हो गया। या तो संघ-प्रमुख की धमकी केवल पर्याप्त लेन-देन की माँग का छद्म रूप था, एक धमकी। अथवा वे इतने सीधे, मोम-नुमा साबित हुए कि दो झूठी-मीठी चापलूसी में ही पिघल गये। वरिष्ठ स्वयंसेवक ही बताते हैं कि संघ के बड़े नेता प्रायः इतने भोले, अयाने, अधीर होते हैं कि कोई भी उन्हें नकली विनम्रता और असली चापलूसी से जल्द ही वश में कर ले सकता है। सो, जब मामूली लड़के या दुकानदार ऐसा कर सकते हैं — तो सर्वसत्तासंपन्न महाप्रभुओं का क्या कहना! जो उन्हें वैसे भी राई रत्ती जानते हैं। इसलिए, अपने प्रमुख को व्यवहारत: अपने शब्द वापस लेने के लिए खुशी-खुशी तैयार कर लिया।
इस प्रकार, संघ परिवार के सर्वोपरि लोगों ने पुनः अपनी पुरानी बीमारी — पर-उपदेश कुशलता — का प्रदर्शन किया। साथ ही, किसी के साथ भी छल, यहां तक कि अपने सहयोगियों से भी। अपने ऊपर उपकार करने वालों से भी। किसलिए? केवल निजी स्वार्थ में, जिस में समाज या देश-हित का बहाना भी दिखाना कठिन है। अभी-अभी उन के एक बड़े नेता ने नागपुर में ही कहा भी: ”अच्छा नेता वही है जो लोगों को सब से अच्छी तरह मूर्ख बना सके”।
उन्होंने बिलकुल ठीक कहा। इस में जोड़ लेना चाहिए कि ‘लोगों’ में अपने सहयोगी, और उपकार करने वाले भी शामिल हैं। वरना, जिन भाजपा नेताओं को 75 पार हो जाने का कारण बताकर ही किनारे किया गया — वह क्या था? पिछले लोक सभा और विधान सभा चुनावों में भी 75 पार आधार पर अनेक भाजपा नेताओं के टिकट कटने के समाचार आए थे। क्या वे देश-सेवक, दल-सेवक, निकट सहयोगी नहीं थे?
इसलिए धोखा अपने निकट सहयोगियों, उपकारियों से भी — यही संघ-परिवार का असल चरित्र है। उन के नेताओं की ‘राष्ट्र-निर्माण’, ‘चरित्र-निर्माण’ करने, ‘सेवक’ होने, ‘झोला उठाकर चल देने’, आदि सारी बातें लोगों को भ्रमित करने का पाखंड होती हैं। यह केवल एक इसी 75 पार रिटायर के धोखे पर ही नहीं, बल्कि ‘सच्चा सेक्यूलरिज्म’, ‘तुष्टीकरण’, स्वच्छता-पारदर्शिता, ‘मिनिमम गवर्नमेंट’, आदि अनगिनत बातों से दिखता है। यह धोखा धीरे-धीरे सब की समझ में आना ही है।
यह ठीक है कि आम जनता — राजनीतिक निर्णय करने की दृष्टि से जरूरी जानकारियों से अनजान, अंधविश्वासी, तथा भय एवं स्वार्थ की सीमित चिन्ताओं से चलने वाली भीड़ — ही वोट राजनीति में निर्णायक है। वह अधिक सोच-विचार के लायक ही नहीं होती। इसीलिए, लोकतंत्री नेताओं का सब करना-धरना उसी को मूर्ख बनाने के लिए होता है। फिर भी, बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी बातों के बार-बार दुहराव का संदेश अंततः अंतिम आदमी तक भी पहुँचता ही है।
इसलिए, जो दलील भाजपा नेतृत्व ने 2014 में दी थी, अब उसे भुलाने का संदेश यही कि तब कपट हुआ था। न केवल उन वरिष्ठ नेताओं के साथ, बल्कि समर्थको के विश्वास के साथ भी। मानो, उन्हें जब जैसे चराना, बहलाना तो नेताओं का अधिकार ही है! किन्तु यह चतुराई से करना होता है, डफर की तरह नहीं। ताकि असल उद्देश्य पर औपचारिक पर्दा पड़ा रहे। कोई नेता खुले-आम ऐसी भंगिमा नहीं रख सकता कि ”मैं जब जिसे जैसी चाहूँ, वैसी पट्टी पढ़ा सकता हूँ’। मैं ऐसा तुर्रम खाँ हूँ कि मुझ पर कोई नियम लागू नहीं होता।”
वैसी भंगिमा में खतरा है। साधारण वोटर, समर्थक भी मनुष्य है। इसलिए एक समझ, एक अहंकार रखता है। उस का महसूस करना कि कोई दिन-दिन बात बदलता, झूठी प्रतिज्ञाएं करता है, और ऊपर से अपने को महान समझता है — उस नेता की छवि गिरने से रोक नहीं सकता। ऐसा पहले भी हुआ है। 1921 ई। के बाद गाँधीजी की छवि तेजी से गिरी, जब उन्होंने कांग्रेस नेताओं की असहमति के बावजूद खलीफत आंदोलन में कूद कर देश की, विशेषकर हिन्दुओं की बेहिसाब हानि की। फिर 1942 ई। के बाद तो गाँधीजी छवि लगातार गिरती ही चली गई, जब द्वितीय विश्व युद्ध और मुस्लिम लीग, दोनों ही विषय में उन्होंने मतिहीनता दिखाई। अंततः जून 1947 में अपनी सार्वजनिक प्रतिज्ञा से एकाएक पलट कर भारत-विभाजन मान लिया। इस के बाद तो गाँधी को साधारण लोग मुँह पर भी उल्टा-सीधा बोलने लगे थे। वह बहुत बड़ा विश्वासघात था, जो गाँधी ने पूरे देश — विशेष कर पंजाब और बंगाल के करोड़ों हिन्दुओं के साथ किया था! वह तो गोडसे ने गाँधी जी की छवि को पुनर्जीवन दिया, अन्यथा उन की मिट्टी पलीद हो चुकी थी।
सो, कोई नेता आम लोगों को अपनी जेब में समझता है, यह स्पष्ट हो जाने पर निश्चित रूप से एक वर्ग में चोट खाई, विश्वास तोड़ने जैसी भावना बनती है। कि उन्हें किसी नेता या संगठन ने बेवकूफ मान रखा है। जिस ने सोच रखा है कि सदैव किसी तमाशा, फोटोशूट, लफ्फाजी, पूजा-पाठ, या रोने की एक्टिंग, आदि से लोगों को बंधक-समर्थक बनाए रख सकता है।
आखिर, संघ-भाजपा नेता मुँह उठाकर यह कहने की स्थिति में नहीं कि वे ऐसे अनोखे लाल हैं कि उन पर कोई नियम, आचार, या सीमा लागू नहीं होती। कि उन के पद पर न रहने पर देश और दल, संगठन डूब जाएगा! क्योंकि अगर ऐसा ही है, तब उन्होंने आज तक कैसा संगठन या दल बनाया? इतना एक-निर्भर, असहाय, नाबालिग, निमुहाँ समूह — क्या यही संघ-परिवार है? सौ साल में यही बना?
अब संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं, उन के समर्थकों में भी वह नैतिक बल शायद ही है कि वे वैसे हवाई दावे कर सकें जो वे दस-बीस साल पहले करते रहते थे। इस बीच, बंगाल, जम्मू, नुपूर शर्मा, तृप्तिकरण, बंगलादेश, चीन, अमेरिका, चुनावी बांड, चुनाव आयोग, राफेल, स्विस बैंक, भाजपा अध्यक्ष, आदि अनगिनत प्रसंग होते रहे हैं जिस ने उन ऊँची-ऊँची हाँकी गप्पों की असलियत दिखा दी है।
हॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म ‘डाई हार्ड’ (1988) में जब नायक जॉन मैक्लेन को अंततः पता चलता है कि पूरी बिल्डिंग बंधक बनाने वाला हान्स ग्रुबेर दरअसल किसी राजनीतिक लक्ष्य के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ पैसे लूटने के लिए उस बिल्डिंग में अंधा-धुंध हत्याएं कर रहा है, तब वह कुछ हैरत और पूरी हिकारत से कहता है: ”तो, तुम भी बस मामूली चोर ही हो।”
उसी तरह, आम भारतीयों में असंख्य लोग कहने की स्थिति में हैं कि संघ-भाजपा वाले भी बस मामूली कुर्सी-पकड़ ही हैं। उन की सारी बातें पाखंड थीं। बल्कि किसी अन्य दल में इतना आमूल पाखंड नहीं है जितना संघ-परिवार में। संघ के नेता दूसरे दलों के राज में जो माँगें करते थे, उसे चुपचाप छोड़ चुके हैं। जिस शुचिता और पारदर्शिता की माँग दूसरों से करते थे, उस का अभाव सब से अधिक वे स्वयं दिखाते हैं। संगठित और नियमित लूट के जो नये-नये ‘उपाय’ उन्होंने निकाले हैं, वे स्तब्ध कर देने वाले हैं! इसीलिए, अब उन के प्रचार-सेल द्वारा भी अपने नेताओं की विशिष्टता, महानता, दुनिया में दबदबा, त्याग, सेवा जैसी बातों का प्रोपेगंडा थम चुका है। उन के कार्यकर्ताओं में अपने नेतृत्व के लिए अब वही उत्साह नहीं रह गया है जो बरसों, दशकों पहले रहा होगा। फिर, अपनी आत्मा की गवाही, निराशाएं, तथा पदों से वंचित रहे नेता-कार्यकर्ताओं के स्वार्थ, आदि अनेक तत्वों ने उन्हें भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए उत्सुक बना दिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
धीरे-धीरे ही सही, छनते टपकते, यह बात सब से निचले वोटर तक पहुँच गई है कि हमारे सभी दल, नेता लगभग एक जैसे हैं। किसी तरह सत्ता लेने, या उसे पकड़े रहने के लिए हर कुकर्म, गिरने, गिड़गिड़ाने, तथा धर्म, समाज, चरित्र, स्वाभिमान समेत कुछ भी बेचने को तैयार। यही पचास बरस पहले भी था, और आज भी है।
संघ-भाजपा के कथित अनोखे लाल भी अपने मुखौटों के पीछे ‘वही काफिर सनम निकले’। हर कठिन मौके पर, देश में घटी हर भयावह, अप्रत्याशित कांड, असुविधाजनक घटना पर चुप। एकदम लुप्त, नदारद। सामने आकर कोई जिम्मेदार बात कहने के बजाए कहीं छिपे रहकर बस समय गुजरने का इंतजार। ताकि विकट कर्तव्य से बचने और बात बदलने का उपाय हो सके।
इसलिए, ‘मार्गदर्शक मंडल’ बनाकर वरिष्ठ नेताओं को ठिकाने लगाने के लिए दिया तर्क, अब अभी के वरिष्ठ नेताओं पर लागू न करने के लिए कहने को भी कोई तर्क नहीं दिया जा सकता। सो, जिन लोगों ने अपने लिए ‘चाल, चरित्र, चेहरा’ का दंभ भर कर दूसरों को गद्दी से खिसकाया था, वास्तव में उन के पास चेहरा ही नहीं है! जैसा अज्ञेय ने अपनी कविता ‘हीरो’ में लिखा था:
“।।। पर जब गिरने पर / उन के नकाब उल्टे तो / उन के चेहरे नहीं थे।”


