बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने यह शिगूफा छोड़ा है। बिहार में चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के खिलाफ विधानसभा में खूब हंगामे के बाद उन्होंने सदन के बाहर मीडिया से कहा कि वे विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करने के बारे में विपक्ष की दूसरी पार्टियों से बातचीत करेंगे और जनता की राय भी लेंगे। तेजस्वी यादव ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग पर हमला करते हुए यह भी कहा कि जब बेईमानी से सब कुछ तय कर रखा है कि किसको कितनी सीटें देनी हैं तो देखा जाएगा कि क्या किया जा सकता है।
उनके कहने का आशय यह था कि अगर विपक्षी पार्टियों में सहमति बनती है और जनता का रुख सकारात्मक दिखता है तो विपक्ष चुनाव का बहिष्कार कर सकता है। इसका मतलब है कि, ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’। इससे जाहिर होता है कि विपक्ष को चुनाव का बहिष्कार नहीं करना है, बल्कि चुनाव के बहिष्कार की बात करके पूरी चुनाव प्रक्रिया और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगाना है।
वास्तविकता यह है कि विपक्ष ने चुनाव आयोग पर जिस तरह के आरोप लगाए हैं उसके बाद कोई कारण नहीं दिखता है कि विपक्ष चुनाव का बहिष्कार न करे। दिल्ली में राहुल गांधी से लेकर पटना में तेजस्वी यादव और मुंबई में उद्धव ठाकरे से लेकर लखनऊ में अखिलेश यादव तक कोई भी विपक्षी नेता नहीं बचा है, जिसने चुनाव आयोग पर सरकार के साथ मिल कर काम करने और विपक्ष को चुनाव हराने के बंदोबस्त करने के आरोप नहीं लगाए हैं। राहुल गांधी ने हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में जनादेश चुरा लेने का आरोप लगाया है।
उनका कहना है कि मैच फिक्सिंग से भाजपा ने महाराष्ट्र का चुनाव जीता और ऐसे ही मैच फिक्सिंग बिहार में हुई है। अब वे कर्नाटक की एक लोकसभा सीट के आंकड़े लेकर आने वाले हैं। उन्होंने कहा है कि जनादेश कैसे चुराया जाता है यह कर्नाटक की एक लोकसभा सीट के आंकड़ों से ब्लैक एंड व्हाइट में सबके सामने आ जाएगा। इस तरह वे यह भी बताना चाह रहे हैं कि लोकसभा चुनाव का जनादेश भी चुराया गया था।
राहुल गांधी ने बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान शुरू होने से पहले ही कहा था कि महाराष्ट्र में भाजपा जैसे मैच फिक्सिंग से चुनाव जीती है वैसे ही बिहार में भी मैच फिक्सिंग है। उनके इस बयान के थोड़े दिन बाद बिहार में मतदाता सूची का पुनरीक्षण शुरू हो गया। इसके विरोध में तेजस्वी यादव के साथ साथ राहुल गांधी भी पटना की सड़कों पर उतरे। विपक्ष का आरोप है कि उनके मतदाताओं के नाम काट कर और फर्जी नाम जोड़ कर भाजपा को जिताने की तैयारी हो रही है। सोचें, विपक्ष ने चुनाव आयोग पर कितनी तरह के आरोप लगाए हैं। मतदाता सूची में फर्जीवाड़े का आरोप सबसे नया है।
मतदाता सूची में फर्जीवाड़े के अलावा फर्जी वोट डलवाने, मतदान समाप्त होने के बाद आंकड़ों में गड़बड़ी करने, अचानक मतदान का प्रतिशत बढ़ जाने, मतदान केंद्रों के वीडियो नहीं जारी करके गड़बड़ी छिपाने आदि के आरोप पिछले एक साल से लग रहे हैं। उससे पहले सारा फोकस इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम में गड़बड़ी का था। विपक्ष का पूरा इकोसिस्टम साबित करने में लगा था कि ईवीएम में गड़बड़ी करके भाजपा जीत रही है। हालांकि विपक्ष किसी ठोस सबूत से इसे प्रमाणित नहीं कर सका। बहरहाल, अब सीधे चुनाव कराने वाली संस्था यानी चुनाव आयोग को ही कठघरे में खड़ा कर दिया गया है।
सोचें, अगर चुनाव आयोग मतदाता सूची में गड़बड़ी करता है, मनमाने तरीके से कुछ खास समुदाय या जातियों के वोट काटता है और दूसरे फर्जी वोट जोड़ता है, शाम पांच बजे मतदान समाप्त होने के बाद लाखों की संख्या में वोट डलवा देता है, रात 11 बजे के बाद या मतदान के अगले दिन अचानक मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी कर देता है, ईवीएम में गड़बड़ी करके मतदान प्रतिशत बढ़ाता है और भाजपा की जीत सुनिश्चित करता है तो फिर विपक्ष को क्यों चुनाव लड़ना चाहिए? अगर विपक्ष अपने इन आरोपों के प्रति गंभीर है और इनकी सचाई पर उसको यकीन है तो फिर उसे किसी हाल में चुनाव नहीं लड़ना चाहिए।
अगर उसको लग रहा है कि मतदान की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और शुचिता से समझौता हो रहा है और चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल की जीत के लिए काम कर रहा है तो उसे चुनाव का बहिष्कार करना चाहिए। क्योंकि ऐसी स्थिति में विपक्ष के लिए बराबरी का मैदान नहीं रहता है और मुकाबला शुरू होने से पहले ही वह हार चुका होता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी फुटबॉल मैच में रेफरी दूसरी टीम से मिला होगा तो दूसरी टीम आक्रामक तरीके से खेलेगी, गलत तरीके से आप पर वार करेगी, आपको घायल करेगी और आपको हरा भी देगी। जब आपको रेफरी के यानी चुनाव आय़ोग के भाजपा से मिले होने के आरोपों पर यकीन है तो आप क्यों मुकाबले में शामिल हो रहे हैं?
ध्यान रहे भारत में कभी भी विपक्षी पार्टियों ने चुनाव के बहिष्कार के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा है। वे हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हैं, ईवीएम सेट होने की बात करते हैं, मैच फिक्सिंग का दावा करते हैं और फिर चुनाव में शामिल होते हैं। अगर जीत गए तो कभी भी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठाते हैं और हार गए तो आरोपों को दोहराने लगते हैं। इससे चुनाव आयोग की साख जितनी खराब हुई है उतनी ही विपक्ष की साख भी खराब हुई है। अब विपक्ष के आरोपों पर लोग यकीन नहीं करते हैं। उप राष्ट्रपति वाले प्रकरण के बाद तो और भी नहीं करेंगे।
ध्यान रहे विपक्ष खासकर कांग्रेस पार्टी जैसे चुनाव आयोग को सरकार से मिला हुआ बताती है वैसे ही तत्कालीन उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को भी सरकार का एजेंट बताती थी। लेकिन धनखड़ का इस्तीफा हुआ तो कांग्रेस उनको नियम और मर्यादा का पालन करने वाला और पक्ष व विपक्ष दोनों पर समान रूप से सख्ती करने वाला बता रही है। तभी यह सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस आज चुनाव आयोग में तमाम कमियां निकाल रही है लेकिन क्या पता कल तारीफ करने लगे!
बहरहाल, चुनाव बहिष्कार करना विपक्ष का विरोध करने का एक लोकतांत्रिक तरीका है। दुनिया के कई देशों में विपक्षी पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और उसके बाद उन देशों में राजनीतिक हालात बदले। सबसे ताजा मिसाल बांग्लादेश की है। पिछले साल जनवरी में हुए राष्ट्रीय चुनावों में विपक्षी पार्टियों ने तत्कालीन शेख हसीना सरकार पर चुनाव में धांधली करने के आरोप लगाते हुए चुनाव का बहिष्कार किया।
विपक्ष के बहिष्कार के बीच हुए चुनाव में 40 फीसदी के करीब वोट पड़े, जिसमें शेख हसीना की पार्टी ने 299 में से 216 सीटें जीतीं। उन्हीं की ओर से खड़ा कराए गए निर्दलीय उम्मीदवारों ने 52 सीटें जीतीं और 11 सीटें जातीय पार्टियों को गईं। अमेरिका सहित दुनिया भर के देशों ने इस चुनाव की आलोचना की। शेख हसीना के प्रति वैश्विक बिरादरी की राय बिगड़ी और नतीजा यह हुआ कि अगस्त में शेख हसीना का तख्तापलट हो गया और उनको भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी।
भारत में विपक्षी पार्टियां चुनाव का बहिष्कार नहीं करती हैं क्योंकि उनको अपने आरोपों पर खुद ही भरोसा नहीं है। उनको लगता है कि क्या पता इस बार चुनाव जीत जाएं। उनको यह भी लगता है कि जनादेश चुराने का आरोप लगा कर वे आम जनता को सरकार के खिलाफ खड़ा कर सकते हैं और इसका चुनावी लाभ उनको मिल सकता है। विपक्षी पार्टियों के बीच इतने बड़े मसले पर सहमति भी नहीं है। इसलिए उनको लगता है कि अगर दो चार पार्टियों ने बहिष्कार किया और अन्य पार्टियां चुनाव लड़ गईं तो विपक्ष का स्पेस उनको मिल जाएगा। इसलिए चुनाव आयोग के ऊपर इतने गंभीर आरोप लगाने के बाद भी विपक्षी पार्टियां चुनाव लड़ती हैं।