nayaindia विपक्षी पार्टियों की अगली चर्चा: राजनीतिक गठबंधन का मार्ग

विपक्ष को सीट बंटवारे से आगे देखना होगा

रणनीति

तीन महीने से कुछ ज्यादा अरसे के बाद एक बार फिर विपक्षी पार्टियों के नेताओं की बैठक होने वाली है। बड़े राजनीतिक उथल-पुथल वाले घटनाक्रम के बाद विपक्ष की यह बैठक हो रही है। आखिरी बैठक 31 अगस्त और एक सितंबर को मुंबई में हुई थी और उसके बाद 13 सितंबर को विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की 13 सदस्यों की समन्वय समिति की बैठक हुई थी। उस बैठक में एकमात्र फैसला यह हुआ था कि विपक्षी गठबंधन की भोपाल में साझा रैली होगी परंतु कांग्रेस के नेता कमलनाथ ने उस पर पानी फेर दिया था। बहरहाल, विपक्ष की आखिरी बैठक के बाद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें चार राज्यों में कांग्रेस हारी और सिर्फ एक दक्षिणी राज्य तेलंगाना में सरकार बनाने में उसे कामयाबी मिली।

इस अवधि में एक के बाद एक कई घटनाएं हुईं- कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का विवाद हुआ और फिर सुलह भी हुई, विपक्षी गठबंधन के प्राइम मूवर नीतीश कुमार के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर सवाल उठे, जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के सरकार के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगी, संसद की सुरक्षा में चूक हुई, 14 सांसद निलंबित हुए और सरकार व विपक्ष में टकराव का नया दौर शुरू हुआ, ईडी ने आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को गिरफ्तार किया और दो मुख्यमंत्रियों- अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन को समन जारी किया।

इन तमाम घटनाओं के बाद 19 दिसंबर को जब विपक्षी पार्टियों के नेता बैठक करेंगे तो सबसे बड़ा सवाल उनके सामने होगा कि आगे की राह क्या हो? पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से विपक्ष को यह तो समझ में आया है कि सिर्फ बातों में एकता बनाने से काम नहीं चलेगा। अगर जमीनी स्तर पर एकता बनेगी और भाजपा के साथ आमने-सामने की लड़ाई बनेगी तभी कोई फायदा होगा। अगर विपक्ष की छोटी छोटी पार्टियों ने तालमेल किया होता तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नतीजे अलग आए होते। इन दो राज्यों के आंकड़ों से भी विपक्षी पार्टियों को सीधी लड़ाई बनाने की जरुरत का अहसास हुआ होगा। अब तक इस बारे में सिर्फ बातें होती रही हैं कि हर सीट पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारना है। अब उसको मूर्त रूप देने का समय आ गया है। सो, निश्चित रूप से विपक्षी पार्टियां इस बारे में बात करेंगी।

लेकिन यह एकमात्र मुद्दा नहीं है, जिस पर विपक्षी पार्टियों को विचार करने की जरुरत है। ज्यादातर पार्टियां चाहती हैं कि जल्दी से जल्दी सीटों का बंटवारा हो और ज्यादा से ज्यादा राज्यों में गठबंधन को अंतिम रूप दिया जाए। यह जरूरी है लेकिन सिर्फ गठबंधन का विस्तार करने या सीट बंटवारा कर लेने से भाजपा से लड़ाई संभव नहीं है। यह भाजपा से लड़ाई की रणनीति का सिर्फ एक हिस्सा हो सकता है। एक मजबूत गठबंधन बनाने के लिए विपक्षी पार्टियों सबसे पहले अपने विस्तार की चिंता छोड़नी होगी।

अभी ज्यादातर पार्टियां अपने विस्तार की चिंता में लगी हैं। उनको लग रहा है कि उन्हें अपने असर वाले राज्यों में लड़ने के लिए ज्यादा सीट मिल जाएं और अपने असर वाले राज्य से बाहर भी कुछ सीटें मिल जाएं। यानी सभी पार्टियां ज्यादा से ज्यादा सीट लड़ना चाहती हैं। चार राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद प्रादेशिक पार्टियों का हौसला बढ़ा है और उनको लग रहा है कि वे कांग्रेस से मोलभाव करके ज्यादा सीटें हासिल कर सकती हैं। दूसरी ओर कांग्रेस भी हर राज्य में 40 फीसदी वोट मिलने के आंकड़ों के आधार पर अपनी मजबूती बताने में लगी है। वह गठबंधन का नेतृत्व करने और ज्यादा से ज्यादा सीट पर लड़ने की सोच छोड़ नहीं रही है। सो, अपने विस्तार और गठबंधन के विस्तार से आगे विपक्षी पार्टियों को सोचना होगा।

दूसरी अहम बात यह है कि विचारधारा में समानता और एकरुपता के लिए काम करना होगा। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि सिर्फ ज्यादा पार्टियों को इकट्ठा कर लेने या ज्यादा राज्यों में तालमेल कर लेने या हर सीट पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार उतार देने से विपक्षी गठबंधन की जीत की गारंटी नहीं होगी। मजबूत गठबंधन, संगठन, जमीनी तैयारी, संसाधन आदि चीजें जरूरी हैं लेकिन उसके साथ ही एक वैकल्पिक विचार की भी जरुरत है। दुर्भाग्य से विपक्षी गठबंधन अभी इसे तय नहीं कर पा रहा है। कांग्रेस भी अलग अलग मुद्दे आजमा रही है और प्रादेशिक पार्टियां भी राज्यों में अपने हिसाब से मुद्दे आजमा रही हैं। लेकिन मुद्दों और विचारधारा पर समानता और एकरुपता नहीं दिख रही है। यहां तक कि कांग्रेस खुद ही अलग अलग राज्यों में अलग अलग मुद्दे और विचार आजमा रही है।

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की अगली बैठक में इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। यह समझना होगा कि भाजपा से लड़ने के लिए भाजपा जैसे ही विचार की जरुरत नहीं है। इसके लिए प्रतिविचार की जरुरत है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि वह प्रतिविचार डीएमके के सनातन विरोध की तरह नहीं हो। इसके बीच संतुलन बनाने की जरुरत होगी। भाजपा के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृतव के तीन मुद्दों का जवाब देने के लिए क्या किया जा सकता है इस पर विचार करना होगा। विपक्षी पार्टियों को भाजपा की ओर से बनाए नैरेटिव के जाल में भी नहीं फंसना है। विपक्ष ने जाति गणना के जिस मुद्दे में अपने को इतना खपाया वह हिंदी पट्टी के राज्यों में सफल नहीं हुआ है। मुफ्त की वस्तुओं और सेवाओं की घोषणा में भी अब कुछ नयापन नहीं रह गया। सारी पार्टियां इसे आजमा रही हैं। सो, विपक्षी पार्टियों को नए आइडियाज के बारे में सोचना होगा। मुश्किल यह है कि अब समय कम बचा है।

दूसरी ओ भाजपा ने अपना नैरेटिव सेट कर दिया है। जम्मू कश्मीर से राष्ट्रवाद और अयोध्या से हिंदुत्व का एजेंडा सेट है तो दूसरी ओर राज्यों में पिछड़े, दलित, आदिवासी के साथ सवर्ण का इंद्रधनुषी समीकरण भाजपा ने बनाया है। और ऐसा नहीं है कि यह एक-दो महीने या एक-दो साल में हुआ है। पहले की तरह भाजपा और संघ ने तात्कालिक ध्रुवीकरण की बजाय व्यापक हिंदू समाज के पुनर्जागरण का माहौल बनाया है। इसके लिए क्या वैकल्पिक एजेंडा हो सकता है उस पर विपक्ष को गंभीरता से विचार करना होगा। कम समय में किस एजेंडे को आम लोगों के दिमाग में बैठाया जा सकता है उसकी तलाश सबसे जरूरी है। कांग्रेस अब संसद की सुरक्षा में चूक के बाद बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा उठा रही है लेकिन विपक्ष अगर लोगों को यह नहीं समझा पाता है कि उनके अपने हित के लिए गठबंधन की जीत जरूरी है तब तक गठबंधन का आकार बढ़ाने का कोई फायदा नहीं होगा।

अंत में विपक्षी पार्टियों को अपने काडर के बीच तालमेल बनाने की जरुरत होगी। राजनीतिक दलों का काडर बिजली के स्विच की तरह काम नहीं करता है। यह संभव नहीं है कि आज आपस में लड़ रही दो पार्टियों के नेता कल दिल्ली में समझौता कर लें तो जमीन पर उनके समर्थक और काडर भी एक हो जाएंगे। यह एक मुश्किल और श्रमसाध्य काम है। इसके लिए सभी पार्टियों के नेताओं को मेहनत करनी होगी। उन्हें अपने काडर तक पहुंचना होगा और उसे नए गठबंधन के लिए तैयार करना होगा। अगर काडर एकजुट नहीं होता है और सभी दलों के कोर समर्थक मतदाता समूह में एकजुटता का मैसेज नहीं जाता है तो कितना भी बड़ा गठबंधन बने उसका फायदा नहीं होगा। सो, 19 दिसंबर की बैठक में पार्टियों को सीट बंटवारे से आगे बढ़ कर वैकल्पिक मुद्दों और नैरेटिव पर विचार करना होगा और साथ ही सभी पार्टियों के काडर के बीच तालमेल बनाने की योजना बनानी होगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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