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एक साथ चुनाव की मुश्किलें

देश के सारे चुनाव एक साथ कराने का विचार अच्छा है और बहुत पुराना भी है। लेकिन सिर्फ विचार अच्छा होने से जरूरी नहीं है कि वह व्यावहारिक भी हो। अगर भारत के संदर्भ में एक देश, एक चुनाव के विचार को बारीकी से देखें तो यह एक काल्पनिक विचार दिखता है। यह सही है कि आजादी के बाद चार चुनाव एक साथ हुए लेकिन तब लोकतंत्र नया था, जड़ें गहरी नहीं हुई थीं, ज्यादा राजनीतिक पार्टियां नहीं थीं, गठबंधन की राजनीति का विचार नहीं आया था और एक पार्टी थी, जो आजादी की लड़ाई की विरासत लिए हुए थी और देश के लोग उसे राज करने का स्वाभाविक हकदार मानते थे। आज वह स्थिति नहीं है, जो 1967 में थी।

आज के समय में भारत जैसे संघीय व्यवस्था और बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देश में इस विचार पर अमल पहले से ज्यादा मुश्किल हो गया है। हो सकता है कि बहुत कोशिश करके एक बार या दो बार ऐसा कर दिया जाए लेकिन लोकतंत्र, संघीय व्यवस्था और चुनाव की बहुदलीय प्रणाली को बनाए रखते हुए हर बार ऐसा करना संभव नहीं होगा।

कोई दस साल तक लगातार इस बारे में बात करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसकी एक पहल की है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई है, जो इस संभावना पर विचार करेगी कि लोकसभा के साथ सारी विधानसभाओं के चुनाव कराए जा सकते हैं या नहीं और अगर कराए जा सकते हैं तो कैसे?

इसके लिए कमेटी देश भर का दौरा करेगी, राज्यों की चुनी हुई सरकारों और विपक्षी पार्टियों के नेताओं से बात करेगी, चुनाव आयोग से राय लेगी और आम लोगों के विचार जानने के बाद अपनी रिपोर्ट देगी, जिसे संसद में बिल के तौर पर रखा जाएगा। संसद में इसे पास कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी और साथ ही देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी इसकी मंजूरी करानी होगी। सरकार अगर चाहेगी तो संवैधानिक प्रक्रिया उसके लिए बाधा नहीं बनेगी। पर मुश्किल लोकतंत्र, संघीय ढांचा और बहुदलीय व्यवस्था बचाने की है।

सबसे पहला सवाल यह है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव के लिए संविधान में संशोधन का जो बिल तैयार होगा उसमें कटऑफ डेट क्या होगी? सभी चुनाव कराने के लिए कौन सा वर्ष तय होगा? क्या अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ सभी राज्यों के चुनाव कराए जाएंगे? अगर ऐसा सोचा जाता है तो फिर जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव नवंबर में होने वाले हैं वहां की चुनी हुई सरकार की जगह राष्ट्रपति शासन लगाना होगा तो क्या यह उन राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के साथ अन्याय नहीं होगा?

जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें से चार राज्यों में गैर भाजपा दलों की सरकारें हैं और उन्होंने चुनाव की तैयारियों के लिहाज से लोक कल्याण की अपनी योजनाओं को लागू किया है। अगर उनको हटा कर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तो उनको अपनी योजनाओं और यहां तक कि पांच साल के कामकाज का कोई लाभ नहीं मिलेगा। राज्य का नियंत्रण केंद्र के हाथ में चला जाएगा और चुनाव में लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं रह जाएगा।

इसी तरह जिन राज्यों में इस साल या पिछले साल चुनाव हुए हैं उन राज्यों की सरकारों का क्या होगा? क्या जनता की चुनी हुई सरकार को हटा कर और निर्धारित समय से तीन या चार साल पहले विधानसभा भंग करके चुनाव कराना सही विचार होगा? कर्नाटक में इस साल मई में चुनाव हुए हैं और त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड में साल के शुरू में चुनाव हुए तो क्या चार साल का कार्यकाल रहते इन सरकारों को भंग कर दिया जाएगा? अगर अगले साल अप्रैल-मई की कटऑफ डेट तय होती है तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, और गोवा की विधानसभा का कार्यकाल तीन साल बचा रहेगा।

हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभा का कार्यकाल साढ़े तीन साल से ज्यादा बचा रहेगा और तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, असम का दो साल से ज्यादा का कार्यकाल बचा रहेगा। विपक्षी पार्टियों की सहमति के बगैर क्या भाजपा संसद में अपने प्रचंड बहुमत के दम पर इन राज्यों में सरकार व विधानसभा भंग करके चुनाव कराने का फैसला कर सकती है? इससे संघीय व्यवस्था पर गहरी चोट होगी और स्थानीय स्तर पर नागरिकों में नाराजगी बढ़ सकती है।

वर्तमान की चिंताओं के बाद सवाल है कि भविष्य के लिए क्या व्यवस्था होगी? अगर किसी कारण से गठन के दो साल बाद ही लोकसभा भंग करने की स्थिति आ जाती है तो क्या होगा? क्या लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभाएं भंग हो जाएंगी और फिर पूरे देश में एक साथ चुनाव होगा? या लोकसभा भंग रहेगी, केंद्र में राष्ट्रपति शासन या कार्यवाहक सरकार रहेगी और सभी राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा होने का इंतजार किया जाएगा ताकि एक साथ चुनाव हो सकें? अगर किसी राज्य की विधानसभा भंग करने की स्थिति आती है तो क्या होगा?

क्या वहां चुनाव कराने के लिए सभी राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा होने का इंतजार किया जाएगा या क्या बचे हुए कार्यकाल के लिए चुनाव होगा? ध्यान रहे ये सारे सवाल और सारी आशंकाएं जायज हैं क्योंकि भारत में बहुदलीय लोकतंत्र है और अनेक राज्यों में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं आता है। गठबंधन की सरकारें बनती हैं, जो गिरती रहती हैं। जब से भाजपा ने ऑपरेशन लोटस का आविष्कार किया है तब से पूर्ण बहुमत की सरकारें भी गिरने लगी हैं।

बहरहाल, इस स्थिति से बचने के लिए कहा जा रहा है कि किसी भी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के साथ ही विश्वास प्रस्ताव भी लाना होगा ताकि एक सरकार गिरे तो दूसरी लोकप्रिय सरकार बन जाए। ऐसा होने पर विधानसभा भंग नहीं करनी होगी। अगर संविधान में संशोधन के जरिए यह प्रावधान किया जाता है तो लोकतंत्र का गला घोंटने वाला और खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया को स्थायी संवैधानिक रूप देने वाला होगा। अगर लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा त्रिशंकु बनती है और यह संविधान से तय होता कि पांच साल तक वहीं त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा चलती रहेगी तो फिर पार्टियों में खरीद-फरोख्त की होड़ रहेगी और सासंद, विधायक भी अपना फायदा देख कर इधर से उधर पाला बदलते रहेंगे।

फिर जनादेश का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। सोचें, दलबदल करने वाले विधायकों पर लगाम लगाने के लिए यह प्रावधान करने की चर्चा हो रही है कि अगर कोई नेता चुनाव जीतने के बाद दलबदल करता है तो उससे इस्तीफा लिया जाए और एक निश्चित अवधि तक चुनाव लड़ने से रोका जाए और यहां पूरी लोकसभा व विधानसभा को मंडी बना देने की बात हो रही है! अगर किसी को लगता है कि लोकसभा और विधानसभाएं त्रिशंकु नहीं बनेंगी और हर बार किसी न किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा तो इससे बड़ी गलतफहमी और कुछ नहीं हो सकती है।

अगर अगले साल अप्रैल-मई की कटऑफ डेट तय होती है तो उसमें संवैधानिक व लोकतांत्रिक समस्याओं के अलावा व्यावहारिक समस्याएं बहुत सी हैं। राज्यों की चुनी हुई सरकारों और विपक्षी पार्टियों को समय से पहले चुनाव के लिए तैयार करने के अलावा चुनाव आयोग को बड़ी संख्या में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन और वीवीपैट मशीन खरीदनी होगी। एक साथ चुनाव कराने  के लिए उसे बहुत बड़ी संख्या में अधिकारियों और कर्मचारियों की जरूरत होगी और पूरे देश के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों का बंदोबस्त करना होगा। उसे पूरे देश के लिए एक मतदाता सूची तैयार करनी होगी। यह बहुत लंबा और श्रमसाध्य काम है।

सो, एक साथ पूरे देश में चुनाव की बजाय राज्यों की विधानसभाओं को दो समूहों में क्लब करके दो बार में चुनाव कराने की व्यवस्था की जा सकती है। इसके लिए ज्यादा उलटफेर करने की जरूरत नहीं होगी। लोकसभा और विधानसभाओं का फिक्स्ड कार्यकाल रखने की मजबूरी नहीं होगी। यह ज्यादा व्यावहारिक होगा और लोकतंत्र व संघीय व्यवस्था के अनुकूल भी इसे बनाया जा सकता है। एक साथ चुनाव इस कारण भी संघीय व्यवस्था और भारत जैसे विविधता वाले देश के लिए अनुकूल नहीं है क्योंकि ऐसे में पलड़ा हमेशा केंद्र में सत्तारूढ़ दल की ओर झुकता है, जबकि भारत में अलग अलग राज्यों में अलग विचारधारा और जातीय-सामाजिक निष्ठा वाली पार्टियां हैं।

एक साथ चुनाव कराने के लिए एक तर्क खर्च का दिया जाता है। लेकिन वह भी कोई मजबूत तर्क नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा सिस्टम में चुनाव आयोग पांच साल में आठ हजार करोड़ रुपए के करीब खर्च करता है। इस तरह प्रति वोटर 27 रुपए का खर्च आता है, जो भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र के लिहाज से बहुत मामूली रकम है। इसके अलावा अलग अलग समय पर चुनाव होने से सत्तारूढ़ दलों के ऊपर मतदाताओं का दबाव रहता है। पार्टियां चुनावों की वजह से जवाबदेही महसूस करती हैं।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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