nayaindia लोकतंत्र में विरोध और हिंसा: भारत की चुनौती

राजनीतिक हिंसा लोकतंत्र में शर्मनाक है

भारत में लोकतंत्र की दुहाई देने का सिलसिला पिछले कुछ सालों से बढ़ गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी मंच से यह कहने का मौका नहीं चूकते हैं कि भारत लोकतंत्र की जननी है और लोकतंत्र इसके डीएनए में है। दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों के नेता यह कहने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है, इसका गला घोंटा जा रहा है और इसे समाप्त करके एक पार्टी का शासन स्थापित करने की कोशिश हो रही है। ये दोनों अतिवादी धारणाएं हैं।

वास्तविकता क्या है उस पर अलग से चर्चा हो सकती है। लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि राजनीतिक हिंसा के लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होती है। अगर किसी लोकतंत्र में राजनीति या चुनावी प्रक्रिया हिंसा का शिकार होती है तो वह शर्मनाक है। यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरूद्ध है। हाल में पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनावों में जैसी हिंसा हुई है उसने भारतीय लोकतंत्र में मौजूद रह गई एक बुनियादी खामी की ओर ध्यान खींचा है।

कह सकते हैं कि यह सिर्फ यह या दो राज्य की घटना है और इस आधार पर पूरे देश की राजनीति या लोकतंत्र के बारे में कोई धारणा बनाने या निष्कर्ष निकालने की जरूरत नहीं है। यह सही है कि घटना पश्चिम बंगाल की है और पंचायत चुनाव की है। लेकिन क्या ऐसी घटनाएं दूसरे राज्यों में नहीं होती हैं? घटना का रूप दूसरा हो सकता है लेकिन अनेक राज्यों में राजनीतिक विरोधियों के प्रति हिंसा की घटनाएं होती हैं और चुनावों के दौरान खून-खराबा देखने को मिलता है।

पश्चिम बंगाल इसका प्रतीक बना है। कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव हुए थे और विपक्षी पार्टियों के कितने उम्मीदवारों ने आरोप लगाया कि उनको नामांकन नहीं करने दिया गया। उनको डराया गया, रास्ता रोका गया या किसी भी तरह से उनको चुनाव लड़ने से रोका गया। आमतौर पर इस तरह की घटनाएं सत्तारूढ़ पार्टियों के संरक्षण में होती हैं।

पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही हुआ है। आठ जून को पंचायत चुनाव की घोषणा हुई थी और उसके बाद एक महीने में यानी आठ जुलाई को मतदान के दिन तक 36 लोगों की मौत हुई। सैकड़ों लोग घायल हुए। बम फूटने और गोली चलने की अनेक घटनाएं हुईं। पूरा प्रदेश एक महीने तक हिंसा की चपेट में रहा। जिसकी जहां ताकत थी उसने वहां अपने विरोधी उम्मीदवार को नामांकन करने से रोका। जब नामांकन की प्रक्रिया समाप्त हुई तो मतदाताओं को बूथ पर जाने से रोकने का काम शुरू हुआ।

मतदान के दिन कम से कम 20 जिलों में बूथ लूटने, बैलेट पेपर फाड़ने, बैलेट जलाने, बैलेट बॉक्स उठा कर ले जाने आदि की घटनाएं हुईं। चुनाव आयोग को 19 जिलों में करीब सात सौ बूथों पर फिर से मतदान कराना पड़ा। पहले से इस तरह की हिंसा की आशंका थी, जिसकी वजह से केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश अदालत ने दिया था। फिर भी हिंसा रोकी नहीं जा सकी। इसका कारण बताया जा रहा है कि स्थानीय प्रशासन ने केंद्रीय बलों की तैनाती ठीक से नहीं होने दी। यहां तक कि संवेदनशील बूथों की जानकारी भी नहीं दी गई।

हो सकता है कि यह बात सही हो लेकिन सवाल है कि क्या केंद्रीय बलों की तैनाती नहीं होगी तो मतदान ऐसे ही होगा? अगर केंद्रीय बल चुनाव के दौरान नहीं तैनात किए जाएं तो हिंसा और ताकत के दम पर जन प्रतिनिधि चुने जाएंगे? जिसके पास सत्ता होगी, जिसकी पुलिस होगी और जिसके पास बाहुबल होगा वह खून बहा कर जीत हासिल कर लेगा? यह बहुत शर्मनाक है। इससे यह साबित होता है कि टीएन शेषन के जमाने से लेकर अभी तक कुछ नहीं बदला है। उस समय भी देश के ज्यादातर हिस्सों में बूथ लूटने, बूथ कैप्चर करने, बोगस वोटिंग करने और विरोध करने वालों की हत्या करने की घटनाएं होती थीं और आज भी हो रही हैं।

इसका यह भी मतलब है कि पार्टियां शरीफ नहीं हो गई हैं, बल्कि केंद्रीय बलों के आगे मजबूरी में शरीफ बनती हैं तभी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से हो पा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में और कुछ अन्य राज्यों में केंद्रीय बलों की गैरहाजिरी में हुए चुनावों में जिस तरह की हिंसा हुई है उससे साबित हुआ है कि इस देश की पार्टियां, उनके उम्मीदवार और उनके नेता अब भी मध्यकालीन मानसिकता के साथ राजनीति करते हैं और यह मानते हैं कि साम, दाम, दंड और भेद किसी भी तरीके का इस्तेमाल कर चुनाव जीतना जायज है।

बहरहाल, चुनावी हिंसा को तो केंद्रीय बलों की तैनाती, मतदान केंद्रों पर वीडियोग्राफी, बाहरी पर्यवेक्षकों की नियुक्ति और कुछ हद तक मतदाताओं की जागरूकता के दम पर काबू कर लिया जाता है लेकिन राजनीतिक हिंसा हमेशा चलने वाली चीज है। जब चुनाव नहीं हो रहे होते हैं तब भी देश के हर हिस्से से किसी न किसी किस्म की हिंसा की खबरें आती रहती हैं। बुनियादी रूप से इसके तीन कारण होते हैं। एक वैचारिक कारण है, जिसकी वजह से हिंसा बढ़ी है और दूसरा सनातन कारण वर्चस्व की लड़ाई है।

इसके अलावा एक तीसरा कारण यह है कि भारत में लोकतांत्रिक शासन की जो प्रणाली विकसित हुई है वह सेवा की बजाय सत्ता और शक्ति केंद्रित हो गई है। चुनाव जीतने वाले को पूरी सत्ता मिलती है। वह लाखों-करोड़ों लोगों का भाग्य विधाता होता है। पैसा और पावर दोनों उसके पास होते हैं। पश्चिम के विकसित देशों में जन प्रतिनिधि लोगों की सेवा करने के लिए चुने जाते हैं, जबकि भारत में लोगों पर शासन करने के लिए जन प्रतिनिधि चुने जाते हैं। चुनाव जीतने पर मिलने वाली असीमित सत्ता और पैसा समूची राजनीतिक और चुनावी प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में भ्रष्ट और हिंसक बना रही है।

सो, राजनीतिक भ्रष्टाचार और हिंसा रूके इसका तात्कालिक और अस्थायी उपाय तो केंद्रीय बलों की तैनाती का है लेकिन अगर भारतीय राजनीति से इसे स्थायी रूप से खत्म करना है तो राजनीतिक पदों के साथ जुड़ी तमाम शक्तियों, सुविधाओं और बेहिसाब संपत्ति इकट्ठा करने की संभावना को खत्म करना होगा। जब तक मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को नहीं बदला जाएगा तब तक उस व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए मार-काट होती रहेगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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