nayaindia मुफ्त की रेवड़ी: पांच राज्यों में चुनावी विवाद

‘मुफ्त की रेवड़ी’ पर राज्यों में चुनाव

मुफ्त की रेवड़ी

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इस बार के चुनाव की खास बात यह है कि राज्यों में चुनाव ‘मुफ्त की रेवड़ी’ यानी कथित कल्याणकारी योजनाओं पर लड़े जा रहे हैं। चुनाव में कोई वैचारिक मुद्दा नहीं है, कोई विचारधारात्मक मुद्दा नहीं है। न कोई राजनीतिक मुद्दा है। यह बहुत दिलचस्प और कुछ हद तक दुखद है कि लोकतंत्र में इस तरह का चुनाव हो रहा है। लेकिन आम आदमी पार्टी के भारतीय राजनीति में उभार के बाद जिस तरह से विचारधारा की बजाय गवर्नेंस की चर्चा महत्वपूर्ण हुई और दीर्घावधि की बड़ी योजनाओं की बजाय तात्कालिक लाभ दिलाने वाली ‘मुफ्त की रेवड़ी’बांटने की योजनाओं को गवर्नेंस मान लिया गया तो अंततः राजनीति को इस परिणति तक पहुंचना ही थी। 

इससे पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर और लगभग सभी पार्टियों द्वारा एक जैसी राजनीति नहीं हुई होगी। हर जगह कुछ न कुछ मुद्दे होते थे और उनके साथ कथित कल्याणकारी योजनाओं का तड़का लगता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ‘नमक खाने’ वाले मतदाताओं के भरोसे लड़े हैं लेकिन वह मुख्य या इकलौता मुद्दा नहीं था। 

इस बार राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना चारों राज्यों में मुफ्त की रेवड़ी मुख्य मुद्दा है। जिसकी सरकार है उसने खजाने का मुंह खोला हुआ है और जिसको जो चाहिए वह बांट रहा है। जो विपक्ष में है वह सरकार बनने पर चांद-सितारे लाकर देने के वादे कर रहा है। दोनों में होड़ मची है कि कौन कितना बांट सकता है या कितना बांटने का वादा कर सकता है। कुल मिला कर चुनाव इसी पर होना है। बाकी सारी चीजें द्वितीयक या पूरक हैं। संगठन की भूमिका, उम्मीदवारों का चयन, प्रचार की रणनीति आदि सब हैं लेकिन उनकी उतनी भूमिका नहीं है, जितनी ‘मुफ्त की रेवड़ी’की है। 

पहले यह देखें कि विचारधारा की सीमा किस तरह से इस चुनाव में मिट गई है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से ज्यादा मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद के दावेदार कमलनाथ मंदिरों और बाबाओं के चक्कर काट रहे हैं। भाजपा के नेता और उसका परोक्ष समर्थन करने वाले धर्मगुरू तो अभी वादा ही कर रहे हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाएंगे लेकिन कमलनाथ के लिए भारत ऑलरेडी हिंदू राष्ट्र है।

उन्होंने कहा है कि भारत में 82 फीसदी आबादी हिंदू है तो अब दूसरा हिंदू राष्ट्र क्या होता है। सो, धर्मनिरपेक्ष और कट्टरपंथी राजनीति के बीच की जो सीमा थी वह कमलनाथ ने मिटा दी है। भाजपा नेताओं की तरह वे भी बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री का स्वागत कर रहे हैं और उनके चरणों में बैठ रहे हैं। वे भी राष्ट्रवाद के वैसे ही नारे लगा रहे हैं, जैसे भाजपा के नेता लगा रहे हैं।

उधर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं हैं। उन्होंने गर्व से ऐलान किया है कि गाय और राम कांग्रेस के थे, जिसे भाजपा ने हथिया लिया था लेकिन अब उन्होंने गाय और राम दोनों का मुद्दा वापस छीन लिया है। बघेल ने गोधन इम्पोरियम बनवाया है तो राम वन गमन पर्यटन सर्किट भी बनवा रहे हैं। उनके राज्य में चर्च के खिलाफ उग्र प्रदर्शन हुए, रैलियां निकाली गईं, लेकिन बघेल कथित नरम हिंदुत्व के रास्ते पर चलते रहे।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव तो मंदिरों को दान देने के लिए जाने ही जाते हैं। पिछले साल ही उन्होंने लक्ष्मी नरसिम्हा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, जिस पर सरकारी खजाने से 18 सौ करोड़ रुपए खर्च किए। मंदिर के लोकार्पण के मौके पर हजारों ऋत्विक और तीन हजार सहायकों ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अनुष्ठान किए। चंद्रशेखर राव निजी तौर पर भी मंदिरों में करोड़ों रुपए के दान करते हैं। सो, कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति के नेताओं में धर्म की राजनीति में भाजपा को मात देने की होड़ लगी है। 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ धर्म की राजनीति पर विचारधारा छूटी है। जातियों की राजनीति भी सबकी एक जैसी है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पिछड़ी जाति का होने की अपनी पहचान को राजनीतिक हथियार बनाए हुए हैं तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी पिछड़ी जाति का होने के आधार पर राजनीति साध रहे हैं। भाजपा को इनकी राजनीति का जवाब देने के लिए इसी तरह की राजनीति करनी पड़ी रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से साढ़े 13 हजार करोड़ रुपए के विश्वकर्मा योजना का ऐलान किया। अगले ही दिन कैबिनेट ने इसकी मंजूरी दी और मीडिया में बताया गया कि लोहार, बढ़ई, नाई जैसी अत्यंत पिछड़ी जातियों की मदद के लिए यह योजना लाई गई है। विपक्षी पार्टियों की मंडल राजनीति के बरक्स यह भाजपा की राजनीति है। 

धार्मिक और सामाजिक मुद्दों पर सबकी विचारधारा एक जैसी है तो आर्थिक मुद्दों पर भी कोई मतभेद नहीं है। देश के सबसे विवादित कारोबारी गौतम अडानी ने राजस्थान में 60 हजार करोड़ रुपए निवेश करने की योजना का ऐलान किया तो राज्य की कांग्रेस सरकार ने बाहें फैला कर उनका स्वागत किया। छत्तीसगढ़ में अडानी को खनन का पट्टा देने और खनन का रास्ता साफ करने के लिए हसदेव अरण्य को काटने की मंजूरी देने में भी सरकार को समय नहीं लगा। कॉरपोरेट की पूंजी से ही मध्य प्रदेश में कमलनाथ चुनाव लड़ रहे हैं तो तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव भी उसी पूंजी से चुनाव लड़ रहे हैं। 

विचारधारा के स्तर पर सारी पार्टियां एक हो गई हैं इसलिए ‘मुफ्त की रेवड़ी’ के मामले में होड़ मची है। इसमें सब एक दूसरे को पीछे छोड़ने में लगे हैं। असली रचनात्मकता इसी में दिख रही है कौन किसको क्या देने की घोषणा कर देता है। अरविंद केजरीवाल पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दौरे पर गए तो उन्होंने नौ गारंटियों की घोषणा की। उन्होंने तीन हजार रुपए बेरोजगारी भत्ता और हर वयस्क महिला को एक हजार रुपए स्त्री सम्मान राशि के तौर पर देने का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि जनता उनको मौका दे तो वे हर परिवार को तीन सौ यूनिट बिजली फ्री देंगे। इस तरह की सारी घोषणाएं मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के नेता कर चुके हैं। असल में कांग्रेस ने कर्नाटक में यह दांव बहुत कायदे से आजमाया था।

वहां मुफ्त की बिजली, मुफ्त की बस यात्रा और मुफ्त में 10 किलो अनाज के साथ साथ महिलाओं और बेरोजगारों को हर महीने नकद देने की गारंटी कांग्रेस ने दी थी, जिसका उसका फायदा मिला। सो, वहां की सारी गारंटियां इन पांचों चुनावी राज्यों मे दी जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ को देश की अर्थव्यवस्था को बरबाद करने वाला बताते रहे हैं लेकिन कांग्रेस की देखा-देखी उनकी पार्टी की सरकारें भी लगातार ऐसी योजनाओं की घोषणा कर रही हैं। महिलाओं को नकद पैसे देने की कांग्रेस की योजना की काट के तौर पर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने लाड़ली बहन योजना की घोषणा करके पैसे बांटने शुरू भी कर दिए।   

असल में राजनीतिक दलों को समझ में आ गया है कि जनता को अब विचारधारा या राजनीतिक मुद्दों से कोई मतलब नहीं है। वह जाति या धर्म के नाम पर वोट करेगी या ‘मुफ्त की रेवड़ी’ के नाम पर। इसलिए सिर्फ इसको आजमाया जा रहा है। अगर कांग्रेस के एकछत्र राज के समय को छोड़ दें तो आमतौर पर हर चुनाव में सत्ता बदलने का ट्रेंड रहा है। लोग अलग अलग पार्टियों को आजमाते रहे हैं।

लेकिन पिछले कुछ समय से प्रो इनकम्बैंसी का चलन बढ़ा है। यानी सत्ता समर्थन की लहर चलती है और मुफ्त की योजनाओं से प्रभावित होकर जनता एक के बाद एक ही सरकार को चुनती जाती है। इसमें धर्म और जाति का भी कुछ हाथ होता है। इसके कुछ अपवाद भी हैं लेकिन जब से ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने का चलन बढ़ा है तब से राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों के जीतने का सिलसिला भी बढ़ गया है।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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