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संगीत से शरीर का धडकना है नृत्य

नृत्य

ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में नृत्य शब्द का उल्लेख हुआ है। वैदिक, पौराणिक ग्रंथों तथा सामाजिक व ऐतिहासिक कथाओं में भी  नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्राचीन वैदिक धर्म व पौराणिक ग्रंथों में ईश्वर को भी नृत्य करते हुए चित्रित किया जाता रहा है। यह आदिकाल से भक्ति व मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत रहा है। कहा जाता है कि भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलने की भांति ही कोस -कोस पर नृत्य शैलियां भी विविध हैं।

29 अप्रैल- अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस: गीत, संगीत, नृत्य से मानव मन का आदिकाल से संबंध है। वैदिक मंत्रों के सस्वर गायन से उद्भूत संगीत से मानव मन स्वतः ही नृत्यमय होता रहा है। मानवीय अभिव्यक्तियों का रसमय प्रदर्शन नृत्य एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म आदिकाल में मानव सृष्टि के साथ ही हुआ है। शिशु जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ -पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है। ऐसे ही आंगिक क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन का समन्वय ही तो नृत्य होता है।

शरीर का संगीत से संबंध जोड़ने अर्थात समन्वय बनाने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया नृत्य है। नृत्य से तन उन्मुक्त हो जाता है। नृत्य करने के लिए शरीर का एक-एक अंग सक्रिय होता है। इसमें ऊर्जा का भारी मात्रा में व्यय होता है। यह शरीर के सभी अस्थिपंजर को चलायमान अर्थात चुस्त-दुरुस्त रखने में सहायक भी है। नृत्य भाव केंद्रित होने के कारण मन भटकने से बचता है। और कुछ देर नाचते रहने से धीरे-धीरे मन भी नृत्य करने लगता है। अंत में नृत्य करने वाला नृत्य में ही मग्न हो जाता है, डूब जाता है।

तन और मन संगीत के लय पर एक साथ झूमने से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। आत्मा का परमात्मा से मिलन इसी विंदु पर संभव है। यह एक यौगिक क्रिया भी है। इसे योग साधना भी कहा जाता है। यह स्वस्थ शरीर के साथ मन- मस्तिष्क को भी स्वस्थ रखता है। वैदिक, पौराणिक ग्रंथों तथा सामाजिक व ऐतिहासिक कथाओं में भी  नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्राचीन वैदिक धर्म व पौराणिक ग्रंथों में ईश्वर को भी नृत्य करते हुए चित्रित किया जाता रहा है।

यह आदिकाल से भक्ति व मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत रहा है। यही कारण है कि संसार की सभी सभ्यता की संस्कृतियों में नृत्य की अपनी विशिष्ट परम्पराएं आज भी कायम हैं। कहा जाता है कि भारत में कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलने की भांति ही कोस -कोस पर नृत्य शैलियां भी विविध हैं। इसके द्वारा वहां के स्थानीय लोगों की भावनाएं, जीवनशैली, पारिवारिक संरचना आदि विभिन्न पक्षों व दृष्टिकोण को देखा- परखा जा सकता है। इसकी महता आदि सृष्टिकाल से आज तक अनवरत कायम है। इसीलिए प्रतिवर्ष 29 अप्रैल को विश्व नृत्य दिवस का आयोजन किया जाता है, और इसकी महता, आवश्यकता और प्रासंगिकता के बारे में लोगों को जागरुक किया जाता है।

नृत्य का इतिहास मानव इतिहास के समान ही प्राचीन है। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में इसका उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि यह आदिकाल से ही भारत में प्रचलित है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में नृत्य शब्द का उल्लेख हुआ है-

इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । तथा

नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे।

अर्थात- इंद्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो।

इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। नृत्य के साथ प्रयोग होने वाले वाद्यों का नाम भी वेद में आया है-

वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्।

अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिए और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिए।

यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद में भी नृत्य संबंधी वृहद वर्णन प्राप्य हैं। यजुर्वेद के अनुसार प्राचीन काल में नृत्य करने वाले को सूत कहा जाता था, और गाने वाले को शैलूष कहते थे। इन लोगों का एक पृथक समुदाय स्थापित हो चुका था। ये लोग गा-बजाकर और नृत्य कर अपनी आजीविका चलाते थे। समाज में नृत्य-गान की शिक्षा का कार्य भी यही सूत व शैलूष ही किया करते थे। प्राचीन काल में सभी वर्गों के लिए नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान था।

सामवेद की रचना ऋग्वेद के पाठ्य अंशों को गाने के लिए की गई। इसलिए यह वेद गान क्रिया से संबंधित है। और इसमें नृत्य संबंधी बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती है। लेकिन यह भी सत्य है कि नाट्य के चतुर्थ अंग गति को नाट्य वेद के निर्माता परम पिता ब्रह्मा ने सामवेद से ही ग्रहण किया है। अथर्ववेद में नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसमें नृत्य संबंधी वर्णनों की प्रचुरता है। और इसमें नृत्यकला का उत्कृष्ट रूप भी दृष्टिगोचर होता है। अथर्ववेद के मंत्रों में गायन-वादन का एक साथ उल्लेख है-

यस्यां गायन्ति नृत्यंति भूम्यां मर्त्यायैलिवाः

युद्धन्ते यस्यमा-न्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः।– अथर्ववेद 12/1/41

अर्थात-  जिस पृथ्वी पर मनुष्य ऊँचे, नीचे और मध्यम स्वर से गाते, नाचते और बाजे बजा कर युद्ध करते हैं, वहां पर धर्मात्मा लोग निर्विघ्न होकर सुख प्राप्त करें। हम युद्धों से ऊपर उठकर जीवन का आनन्द ले-सकें।

वेद में नृत्य संबंधी प्राप्य विवरणियों के समीचीन अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिए  नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। यह केवल नृत्त ही था जिसका प्रयोग समाज में केवल आनंद के अवसरों पर किया जाता था। तांडव और लास्य के बीज वैदिक काल में पड़ चुके थे। अर्थात वैदिक काल में नाट्य, नृत, नृत्य तथा तांडव- लास्य का बीजारोपण हो चुका था। नृत्य को भारत में दिव्य उत्पत्ति से जोड़कर देखा जाता है।

पौराणिक आख्यानों के अनुसार एक बार देवराज इंद्र ने ब्रह्मा से देवताओं के योग्य मनोरंजन की रचना करने की प्रार्थना की, जिससे जन साधारण की पहुंच भी वैदिक प्रज्ञा तक हो सके। ब्रह्मा ने चारों वेदों से प्रमुख विशेषताओं को चुनकर पांचवें वेद नृत्यकला का विकास किया। ऋग्वेद से गीति काव्य, यजुर्वेद से भाव मुद्रा, सामवेद से संगीत तथा अथर्ववेद से भावनात्मक एवं सौंदर्यात्मक अंग लेकर नाट्य वेद की रचना की गई। इसके बाद ब्रह्मा ने भरत मुनि को विज्ञान और कला में दक्ष बनाकर नृत्य को लोकप्रिय बनाने का कार्य सौंपा।

नृत्य ईश्वर की ओर से मनुष्य को एक अनमोल, अनुपम उपहार है। इसके माध्यम से ईश्वर के विराट स्वरूप का भी दर्शन किया जा सकता है। नटराज नृत्य को ईश्वरीय परंपरा के रूप में देखा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में शिव के नृत्य का विशद वर्णन प्राप्य हैं। तांडव नृत्य के द्वारा क्रोध का प्रदर्शन होता है। इसे सर्वनाश के रूप में जरूर प्रस्तुत किया जाता है, परंतु यह विनाश के बाद ही सृजन की प्रक्रिया प्रारंभ होने का द्योतक है। यह शरीर, मन, विचार, भाषा, संगीत एवं जीवनमूल्यों को एकसाथ पिरोकर वृहद् रूप में प्रस्तुत करने वाली कला है।

यहां करुणा की उपस्थिति व दुःख का प्रदर्शन के साथ ही उल्लास और मदमस्त कर देने वाली धड़कनों को प्रेम में परिवर्तित कर देने की शक्ति भी हैं। स्वर्गलोक तक इससे न बच सका और तमाम अप्सराएं नर्तकी के रूप में भी अपनी पहचान बनाती रही हैं। यह कला देवी-देवताओं, दैत्य दानवों, मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। पौराणिक ग्रंथों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है।

अमृत मंथन के पश्चात राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न होने पर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। भगवान शंकर ने कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए, तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान शंकर को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया। एक बार फिर तीनों लोकों के संकट में पड़ जाने पर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया।

भारतीय संस्कृति एवं धर्म आरंभ से ही मुख्यतः नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इंद्र का अच्छा नर्तक होना तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की कथाएं, विश्वामित्र-मेनका की कथा आदि भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की पुष्टि ही करता है। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। जिसके कारण यह मनोरंजक के साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। यही कारण है कि यह कला धारा श्रुतियों से, पौराणिक ग्रंथों से होती हुई वर्तमान काल तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में अनवरत प्रवाहित होती रही है। इस कला को हिन्दू देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर नटराज कहलाते हैं। उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है।

भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण षोडश कलयुक्त श्रीकृष्ण नृत्यावतार माने जाते हैं। इसीलिए वे नटवर कृष्ण कहे जाते हैं। श्रीमद्भागवत पुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी नृत्य संबंधी वर्णन अंकित प्राप्य है। नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। यह महा ग्रंथ न केवल नाट्य कला अपितु नृत्य, संगीत, अलंकार शास्त्र, छंद शास्त्र आदि अनेक विषयों का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसलिए इसे पंचमवेद कह कर सम्मानित किया गया है। भरत मुनि का नृत्य जगत में यह योगदान बहुमूल्य है। रामायण और महाभारत में भी स्थान- स्थान पर नृत्य संबंधी वर्णन प्राप्य है। इस समय तक नृत्त, नृत्य, नाट्य तीनों का विकास हो चुका था। वर्तमान में भी भारतीय समाज में नृत्य- संगीत की महत्ता व व्यापकता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी भारत का कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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