‘बॉब बिस्वास’, ‘दसवीं’ और ‘आई वांट टू टॉक’ के बाद अभिषेक अब मधुमिता निर्देशित ‘कालीधर लापता’ में एक बार फिर अपने दिल को छू लेने वाले अभिनय से चमकते हैं। अभिषेक विविध पात्रों को निभाने की कोशिशों में निरंतर निखरते जा रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने ‘कालीधर लापता’ में अच्छा प्रयास किया है। उन्होंने कालीधर की तकलीफ, उलझन और दर्द को अपने भावों से प्रभावशाली तरीके से व्यक्त किया है।
सिने-सोहबत
आज के सिने-सोहबत में एक तमिल फिल्म ‘के.डी’ की हाल ही में एक ओटीटी पर स्ट्रीम हुई हिंदी रीमेक ‘कालीधर लापता’ पर विमर्श करते हैं। तमिल फिल्म ‘के.डी’ 2019 में रिलीज हुई थी। मूल फिल्म की लेखक और निर्देशक मधुमिता ने ही हिंदी रीमेक ‘कालीधर लापता’ भी बनाई है।
‘कालीधर लापता’ की कहानी कालीधर (अभिषेक बच्चन) की जिंदगी के इर्दगिर्द है। उसे हैल्युसिनेशन की समस्या है। यानी जो नहीं होता है वो देखने और सोचने लगता है। वह अपना घर और जमीन बेचने को तैयार नहीं है। उसकी बीमारी का इलाज महंगी दवाइयां ही हैं। उसके दोनों छोटे भाई मनोहर (विश्वनाथ चटर्जी) और सुंदर (प्रियंक तिवारी) कर्ज में दबे हैं। जब डॉक्टर महंगी दवा के अलावा कालीधर (अभिषेक बच्चन) की घटती याद्दाश्त और मतिभ्रम की समस्या का कोई और समाधान नहीं सुझा पाते, तो उसका परिवार उससे छुटकारा पाने के लिए तरह तरह के तरीके सोचने लगता है।
चार भाई-बहनों में सबसे बड़े, कालीधर को उसके दो छोटे भाई कुंभ मेले में ले जाते हैं। उनकी योजना उसे वहां जान बूझकर ‘खोने’ की है। खुद को संदेह से दूर रखने के लिए दोनों ‘खोया पाया’ कार्यालय में शिकायत भी दर्ज कराते हैं। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह लापता ही रहे, कोई और मदद नहीं करते। खुद को अकेला पाकर और अपना नाम या पता याद न कर पाने की स्थिति में, कालीधर अपने भाइयों की तलाश शुरू करता है और किसी तरह उनके डेरे तक वापस पहुंचने का रास्ता खोज लेता है। तभी उसे अपने परिवार की यह बात सुनने को मिलती है कि उन्होंने उसे ‘खोने’ पर राहत महसूस की है, क्योंकि वे उसके इलाज का खर्च नहीं उठा सकते। दुखी कालीधर उनसे जितना हो सके दूर जाने के लिए अनजान बस में सवार हो जाता है और एक अनजान गांव के पास एक मंदिर में रात बिताने के लिए आश्रय पाता है।
इस गांव में उसकी मुलाकात आठ साल के अनाथ बालक बल्लू (दैविक बाघेला) से होती है। और यहीं से शुरू होती है मानवीय रिश्ते की एक नई कहानी।
शुरुआती नोकझोंक के बाद दोनों में दोस्ती हो जाती है। बल्लू कालीधर की उन अधूरी इच्छाओं को पूरा करने में मदद करता है, जिन्हें अपने परिवार की जिम्मेदारियों के चलते वो कभी पूरा न कर पाया। उधर, ईश्वर के न्याय के चलते दोनों भाई जायदाद नहीं बेच पा रहे हैं और कालीधर की तलाश करने में सच में जुट जाते हैं और सरकारी अधिकारी सुबोध (मोहम्मद जीशान अयूब) की मदद लेते हैं। क्या वे कालीधर को खोज पाएंगे? क्या कालीधर वापस आएगा? यह जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी।
‘कालीधर लापता’ की कहानी कुछ बदलावों को छोड़कर मूल फिल्म की तरह है। तमिल संस्करण में के.डी (मु रामास्वामी) 80 वर्षीय व्यक्ति है, जिसके बच्चे उसकी संपत्ति हड़पने के लिए उसे इच्छामृत्यु के माध्यम से मारने की योजना बनाते हैं, जबकि हिंदी संस्करण में कालीधर मध्यम आयु वर्ग का व्यक्ति है, जो हैल्युसिनेशन से ग्रसित है।
रीमेक करते हुए मधुमिता को उत्तर भारत के परिवेश और कार्यशैली को थोड़ा और समझने की जरूरत थी। कालीधर को बीमारी से ग्रसित बताया है, लेकिन लगता है लेखक बाद में खुद ही भूल गए कि उसे कोई बीमारी भी है। मसलन अपनी पूर्व प्रेमिका से मिलने जाते हुए उसकी याद्दाश्त कायम रहती है।
बल्लू और कालीधर के बीच नोकझोंक, रूठना मनाना, फिर दोनों के दोस्त बनने का सफर दिलचस्प है। कहीं कहीं संवाद भी चुटीले हैं। फिल्म का खास आकर्षण बाल कलाकार दैविक बाघेला है। वह अपनी भूमिका में बेहद सहज नजर आते हैं। उनका अभिनय सराहनीय है।
‘बॉब बिस्वास’, ‘दसवीं’ और ‘आई वांट टू टॉक’ के बाद अभिषेक अब मधुमिता निर्देशित ‘कालीधर लापता’ में एक बार फिर अपने दिल को छू लेने वाले अभिनय से चमकते हैं। अभिषेक विविध पात्रों को निभाने की कोशिशों में निरंतर निखरते जा रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने ‘कालीधर लापता’ में अच्छा प्रयास किया है। उन्होंने कालीधर की तकलीफ, उलझन और दर्द को अपने भावों से प्रभावशाली तरीके से व्यक्त किया है।
‘खोया पाया’ विभाग में सुबोध (जीशान अयूब) कालीधर को खोजने की मुहिम में जुट जाता है, क्योंकि उसे उसकी पत्नी बताती है कि यदि उसने किसी दाढ़ी वाले गुमशुदा पुरुष को खोज लिया, तो वरदान स्वरूप उन्हें संतान की प्राप्ति हो सकती है। इसी क्रम में जब वो तलाश में जुटता है तो उसे दुनिया की एक नई सच्चाई से रूबरू होना पड़ता है। उसे समझ आता है कि उसका परिवार किसी तरह का कोई सहयोग नहीं कर रहा, मतलब वास्तविकता में वो उसे ढूंढना ही नहीं चाहते। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि परिवार के पास अपना ही भरण पोषण करने वाले कालीधर की तस्वीर तक न हो। सुबोध को समझ आता है कि जिस संतान को पाने के लिए, अपना परिवार बनाने के लिए वो इतने प्रयास कर रहा है वो परिवार सिर्फ तभी तक आपके साथ है जब तक आप उसके काम आते रहें और उस पर बोझ न बनें।
ये घटना भारतीय समाज में फैले अंधविश्वास को भी स्वभाविक और बहुत ही हल्के फुल्के अंदाज़ में पेश करती है।
नायिका के तौर पर मेहमान भूमिका में निमरत कौर अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करती हैं। अमित त्रिवेदी का संगीत कहानी के साथ सुसंगत है। गैरिक सरकार ने अपने कैमरे से गांव को खूबसूरती से दर्शाया है। यह फिल्म अपने अंत तक आते आते सादगी से एक गंभीर संदेश भी दे जाती है कि कहीं तो अपने भी स्वार्थी और पराए हो जाते हैं और कहीं पराए भी अपनों से बढ़ कर आपका खयाल रख पाते हैं।
निर्देशक मधुमिता की यह फिल्म अपने परिवार के लोगों के स्वार्थ और लालच के साथ एक अनजान बच्चे की मासूमियत और अटूट बंधन की बात करती है। मधुमिता इस फ़िल्म में एक अधेड़ और एक बच्चे के बीच की बॉन्डिंग को सहजता से दर्शाती हैं और साथ ही ये भी बताती हैं कि कोई व्यक्ति कितना भी समझदार या उम्रदराज़ क्यों न हो जाए, एक बच्चा सबके दिल में रहता है। उस इंसान की कुछ अधूरी ख्वाहिशें होती हैं, और उन्हें पूरा करने के लिए सिर्फ पैसों या मेहनत की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति और सहज प्रयासों की जरूरत होती है जो कोई छोटा सा बच्चा भी कर सकता है।
फिल्म का पहला भाग बहुत धीमी गति से आगे बढ़ता है। सेकंड हाफ तक आते आते जब बाल कलाकार दैविक बघेला की एंट्री होती है, तब कहीं जाकर फिल्म मनोरंजक बनती है, मगर फिल्म का ज़्यादातर भाग सपाट और सहूलियत भरा ही लगता है।
फ़िल्म की कहानी का फ़लसफ़ा सिर्फ़ इतना है कि इंसान को सिर्फ प्यार की जरूरत होती है न कि रिश्तों के बंधन की, अब वो जिससे भी मिल जाए मन उसी का हो जाता है।
ज़ी 5 पर है, देख लीजिएगा। (पंकज दुबे उपन्यासकार, पॉप कल्चर स्टोरीटेलर और चर्चित यूट्यूब चैट शो “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़”के होस्ट हैं।)


