nayaindia Sangh Parivar संघ परिवार: मंदिर का व्यापार

संघ परिवार: मंदिर का व्यापार

अभी तो बस हाथ में आया, बल्कि किसी से छीना हुआ चेक भुनाना ही उन की संपूर्ण दृष्टि है। समाज-हित में दूरदर्शिता से उन का शायद ही कभी संबंध रहा है। वे मंदिर को पार्टी का व्यापार बनाकर मुनाफे की जुगत में हैं। आगे अयोध्या की गरिमा और सुरक्षा का भी क्या होगा? यह पहले की तरह उन के रडार से बाहर है। लुई पंद्रहवें की तरह, ‘मेरे बाद कुछ हो, मेरी बला से!ही उन की मानसिकता लगती है।

इस्लामी आक्रांताओं ने सदियों से हजारों हिन्दू मंदिर तोड़े, और अनेक प्रमुख मंदिर-स्थलों पर मस्जिदें खड़ी कर दी। पर किसी के लिए हिन्दुओं ने वह संघर्ष नहीं किया, जो राम-जन्मभूमि के लिए। वे लड़ते, बलिदान देते रहे। गत चार दशक से इस में राजनीतिक दलों के लोग जुड़े। पहले रिटायर्ड कांग्रेसी, जिन्होंने इसे सामाजिक कार्य समझ कर आरंभ किया था। फिर इस में संघ परिवार आया, किन्तु दलीय कब्जे की भावना से बिगाड़ कर रख दिया जो अभी भी जारी है। हालात यही दिखा रहे हैं। प्रचार के शोर-शराबे में अनिष्टकर संभावनाएं छिपाई जा रही हैं। पर कई संकेत साफ हैं।

इस में सब से बड़ी बात मुस्लिम पक्ष की दूरगामी बढ़त के आसार हैं। राम-जन्मभूमि आंदोलन के गैर-राजनीतिक रहने तक मुस्लिम पक्ष सदैव रक्षात्मक रहा था। लेकिन संघ-भाजपा द्वारा आंदोलन ले लेने के बाद दलबंदी हो गयी। तब मुस्लिम नेताओं को उग्र बनने, और अन्य दलों से सहयोग पाने का रास्ता मिल गया। वामपंथी तो मुस्लिम पक्ष के पीछे खड़े होकर उन्हें और उग्र बनाने लगे। यह संघ-परिवार की मतिहीनता का फल था। जिस ने एक सामाजिक कार्य को दलीयता का शिकार बना कर इस्लामी उग्रता को मौका दिया। इस में संघ-भाजपा ने संकीर्णता ही नहीं, कायरता, विश्वासघात, अदूरदर्शिता, और झपटमार मानसिकता दर्शाई, जो अभी भी जारी है।

संकीर्णता ऐसे कि आंदोलन में पहले से भूमिका निभाने वाले महानुभावों और कांग्रेसियों का योगदान छिपाया। फिर जब भाजपा की ही रैली ने 1992 में दिशाहीन होकर विवादित ढाँचा तोड़ दिया, तब भाजपा ने मामले से ही पल्ला झाड़ लिया। यह कायरता थी। तब से भाजपा ने अन्य संघ-संगठनों को भी मामले से हट जाने को विवश किया, जिसे पहले खुद कब्जाया था। इस तरह, आंदोलन हथिया कर, चुनावी लाभ उठाकर, फिर ढाँचा-विध्वंस बाद आँच महसूस करते ही, भाग खड़े हुए। मामला बिगाड़, उस की गंभीरता नष्ट कर उसे अपने हाल छोड़ दिया।

तब, दशकों से चल रही पहले वाली कानूनी लड़ाई ही बची। वह अपनी गति से चल कर हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट से परिणति तक पँहुची। इस लड़ाई में संघ-परिवार की कोई भागीदारी नहीं रही। वे केवल दूर से तमाशा देखते रहे। पूछने पर अपने कार्यकर्ताओं को भी झिड़कते रहे। भाजपा नेताओं ने निर्लज्जता से कहा कि ‘’अयोध्या भुनाया जा चुका चेक है’”। वे इसे खत्म खेल मान चुके थे! तब से सारी कानूनी लड़ाई स्वतंत्र हिन्दू संस्थाओं, व्यक्तियों, इतिहासकारों ने लड़ी। लेकिन जैसे ही अंतिम, जैसा-तैसा फैसला आया, उसे फिर भुनाने संघ-परिवार के नेता तुरंत सामने आ गये। यह झपटमार मानसिकता है: दूसरों का श्रम, श्रेय हड़पना।

यदि बात, यह सत्य कठोर लगे, तो गत चालीस सालों के तथ्यों पर सिलसिलेवार विचार करें:

(1) मुजफ्फरनगर में 1983 में ‘रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ बनी। इस के अग्रणी अंतरिम प्रधानमंत्री रहे कांग्रेस नेता गुलजारी लाल नन्दा थे। (2) समिति के अध्यक्ष हिन्दू महासभा के महंत अवैद्यनाथ और महासचिव कांग्रेसी दाऊ दयाल खन्ना थे। इसी समिति ने अयोध्या, काशी, मथुरा के मंदिरों की मुक्ति का आवाहन किया। उसे आंदोलन बनाया। (3) जबकि भाजपा के सर्वोच्च अटल बिहारी वाजपेई इस मुक्ति-प्रयत्न के ही विरुद्ध थे! बाद में भी वाजपेई उस में कभी शामिल नहीं हुए। (4) जबकि कांग्रेस नेता राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री पद से 1986  में राम-जन्मभूमि पर लगा ताला खुलवा कर वहाँ हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति दी। जिस से हिन्दुओं को राम-जन्मभूमि तभी मिल गयी थी! (5) फिर कांग्रेस की ही राज्य व केन्द्र सरकारों ने 1989  में राम-जन्मभूमि स्थल पर मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दी। यह सब से ऐतिहासिक कार्य था! यदि राजीव सरकार जारी रही होती तो कांग्रेस ने अपनी लेन-देन शैली में तभी समाधान कर लिया होता। (६) फिर विपक्षी नेता पद से भी राजीव गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट को 1990  में लिख कर दिया कि कांग्रेस वहाँ मंदिर बनाने के पक्ष में है। कांग्रेस समर्थित चंद्रशेखर सरकार ने भी ‘प्रमाण के आधार पर’ विवादित स्थल सही पक्ष को देने का समझौते करने की गंभीर कोशिशें की। (7) इस बीच, संघ परिवार ने हिन्दुओं को केवल दलबंदी में उलझाया। भाजपा नेता अडवाणी की रथयात्रा से 1990  में देश भर में तनाव फैला। पर अडवाणी ने ही उस साल 13  अगस्त को घोषणा कर दी कि ‘काशी और मथुरा छोड़ देंगे, यदि मुसलमान राम-जन्मभूमि दे दें’। (८) वह फूहड़ सौदेबाजी की कोशिश और हिन्दुओं से विश्वासघात था। जिस से राम-जन्मभूमि माँग भी कमजोर हुई। राजनीति उस्तादों के लिए समझना सरल था कि संघियों में लड़ने का माद्दा नहीं। सो जब सब मंदिर छोड़ दिए, तो एक भी क्यों दें? (9) फिर 6 दिसंबर 1992  को एक हिन्दू भीड़ ने विवादित ढाँचा तोड़ डाला। वह भाजपा की रैली थी, जिस में अडवाणी, सिंहल, जोशी, आदि संघ-भाजपा नेतागण मौजूद थे। पर विध्वंस उन की योजना न थी। फोटो में अडवाणी क्षुब्ध, रोते दिखते हैं। सिंहल को भी कार्यकर्ताओं ने जबरन बैठाया, जो विध्वंस रोकना चाहते थे। उस दिन को अडवाणी ने ‘मेरे जीवन का सब से काला दिन’ कहा था। (10) वह ध्वंस शुरू होते ही प्रधानमंत्री नरसिंह राव को सूचना मिली, तो उन्होंने उसे रोकने को कुछ न किया। बल्कि कुछ समय बीतते ही, वहाँ ‘पहले मंदिर रहे होने के प्रमाण’ की ओर मामले को फिर मोड़ दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी कि ‘क्या विवादित बयान पर पहले मंदिर था? यदि कोर्ट हाँ कहे तो सरकार हिन्दू पक्ष के अनुसार निर्णय लेगी। अगर ना कहे तो सरकार मुस्लिम पक्ष के अनुसार निर्णय लेगी।’ (11) यह एक बड़ी घोषणा थी जिस से हिन्दू पक्ष सबल हुआ, क्योंकि प्रमाण तो सदियों से जग-जाहिर था! राव ने ढाँचा-विध्वंस पर कानूनी कार्रवाई की, जबकि राम-जन्मभूमि मुद्दे को प्रमाण पर केंद्रित रखा। यदि राव ने वह न किया होता, तो 6 दिसंबर 1992  के बाद सारी चीज एकदम उलट सकती थी। संघ परिवार मैदान छोड़ चुका था।‌ (12) सुप्रीम कोर्ट ने राय देने से इंकार किया। तब मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट ही बच गया, जहाँ पहले से था। (13) हाई कोर्ट ने अयोध्या में खुदाई से मिले प्रमाण और ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर 2010  में फैसला हिन्दुओं के पक्ष में दिया। तब केंद्र और राज्य में भी कांग्रेस सरकार थी। (14) फिर मामला सुप्रीम कोर्ट आया, और ठंढे बस्ते में चला गया। आठ वर्ष तक उसे नहीं छुआ गया। न उस का कोई प्रयत्न हुआ, जबकि संघ परिवार चौतरफा सत्ता की धूप सेंक रहा था।

पूरे घटनाक्रम क्रम से यही दिखता है कि राम-जन्मभूमि आंदोलन को दलीय बनाकर संघ-परिवार ने इस्लामी पक्ष को आक्रामक होने का लाजबाव मौका दे दिया। जिस की परिणति उसे अयोध्या में एक विशाल मस्जिद बना सकने का उपहार मिलने में हुई है! जिस मस्जिद का अस्तित्व 1949  से ही खत्म हो चुका था, और खत्म ही रहता – यदि संघ-भाजपा का दलीय धंधा शुरू न हुआ होता! जबकि हिन्दू पूजा तो चल ही रही थी। इस तरह, संघ परिवार की दलबंदी ने केवल हानि ही की।

दूसरी ओर, दलबंदी शुरू हो जाने के बाद भी हिन्दू पक्ष को बल पहुँचाने में कांग्रेस की भूमिका अधिक रही। 1986  से 1995  तक सभी महत्वपूर्ण मोड़ पर कांग्रेस ने हिन्दू पक्ष को मजबूत किया। जबकि संघ-परिवार ने आंदोलन को अपना दलीय हथकंडा बनाया। इसीलिए फायदा लेकर, गर्मी लगते ही, उस से भाग खड़ा हुआ। 1993  से 2019  तक, उस के नेता और संगठन केवल दूर से तमाशा देखते रहे। पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सारा श्रेय हड़पने के लिए, एक भवन बनाकर, उत्सव मनाकर, अंधाधुंध प्रचार कर, फिर देश भर में दलीय लाभ उठाने की गतिविधि में नजर आ रहे हैं। इस बीच, इस्लामी पक्ष किस तैयारी में है, उस से उन्हें पहले की तरह कोई परवाह नहीं!

अभी तो बस हाथ में आया, बल्कि किसी से छीना हुआ चेक भुनाना ही उन की संपूर्ण दृष्टि है। समाज-हित में दूरदर्शिता से उन का शायद ही कभी संबंध रहा है। वे मंदिर को पार्टी का व्यापार बनाकर मुनाफे की जुगत में हैं। आगे अयोध्या की गरिमा और सुरक्षा का भी क्या होगा? यह पहले की तरह उन के रडार से बाहर है। लुई पंद्रहवें की तरह, ‘मेरे बाद कुछ हो, मेरी बला से!’ ही उन की मानसिकता लगती है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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