nayaindia Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024 महर्षि दयानन्द का आव्हान था

महर्षि दयानन्द का आव्हान था वेदों की ओर लौटो

Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024
Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024

स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा, वेद के पूनर्रूद्धारक योगाभ्यासी स्वामी दयानन्द की हत्या व अपमान के कुल 44 प्रयास उनके 1863 में गुरु विरजानंद के पास अध्ययन पूर्ण होने के बाद लगभग बीस वर्षों के कार्यकाल में हुए। जिसमें से 17 बार विभिन्न माध्यमों से विष देकर प्राण हरण के प्रयास थे, फिर भी उनके प्राण हरण का कोई प्रयास सफल नहीं हो सका। लेकिन 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली की संध्या को एक विधर्मी षड्यन्त्र सफल हो गया और विषयुक्त कांच चूर्ण मिश्रित दूध के सेवन से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और अजमेर के अस्पताल में उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024 

महर्षि दयानन्द सरस्वती जयंती-5 मार्च-

अंग्रेजों ने भारत को परतंत्रता की जंजीर में जकड़े रखने के लिए, 1857 की स्वाधीनता संग्राम के पूर्व से ही भारतीयों पर दमन चक्र चलाना आरंभ कर दिया था, जो 1857 के बाद और भी तेज हो गया। उस काल में अंग्रेजों के द्वारा भारतीयों की आत्मा को बर्बर तरीके से कुचला गया, ताकि भारतीयों के मन में अंग्रेजों के विरुद्ध पुनः संघर्ष करने का विचार सपने में भी उत्पन्न न हो सके।

लेकिन मुंबई की मोरवी रियासत के समीप गुजरात के राजकोट जिला अंतर्गत काठियावाड़ क्षेत्र में पिता कृष्ण (करशन) लालजी तिवारी और माता अमृता बाई (अम्बा बाई) के घर 12 फरवरी 1824 को जन्मे महर्षि दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ऐसे क्रांतिकारी सन्यासी थे, जिन्होंने अंग्रेजों के उस दमन काल में साहस पूर्वक विदेशी राज्य का विरोध करते हुए सर्वप्रथम 1876 में स्वराज्य का उद्घोष किया था, जिसे बाद में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपना कर्ममंत्र बनाते हुए आगे बढ़ाया था।

वेदों के उत्कट ज्ञाता, पुनः उद्धारकर्ता ,चिन्तक तथा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती आधुनिक युग के ऐसे साधक हैं, जिन्होंने अपनी साधना और अंतर्चेतना से न केवल मानवीय जीवन के आदर्श मूल्यों के आधारभूत मानदंड स्थापित किए, बल्कि राष्ट्र और संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए ही अपना जीवन समर्पित कर दिया। वे अलौकिक सत्य के ऐसे साधक थे, जिन्होंने लौकिक जगत जीवन के कल्याण के लिए नवीन मानविन्दु स्थापित किया।

यह भी पढ़ें: बॉलीवुड भी प्रोपेगेंडा की मशीन!

वेदों के प्रचार-प्रसार के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत 1932 ईस्वी सन 1875 को गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज अर्थात श्रेष्ट जीवन पद्धति की स्थापना करने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ही वेदों की ओर लौटो नामक प्रमुख नारा दिया था। कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म तथा सन्यास को अपने दर्शन का स्तम्भ बनाने वाले दयानन्द ने ही सर्वप्रथम प्रथम जनगणना के समय आगरा से देश के सभी आर्यसमाजों को यह निर्देश भिजवाया कि समाज के सब सदस्य अपना धर्म, सनातन धर्म दर्ज करवाएं।

काठियावाड़ और बनारस में क्रमशः प्रारम्भिक और संस्कृत व वैदिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद अत्यधिक ज्ञान पिपासु स्वभाव के स्वामी दयानन्द, गुरु विरजानन्द से पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा समस्त वेद-वेदांग का अध्ययन कर गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए विद्या को सफल कर दिखाने, परोपकार करने, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाने, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करने के उद्देश्य से भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े, और कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अर्थात विश्व को आर्य बनाते चलो की नीति पर चलते हुए सर्वप्रथम देशवासियों में मुगलों व अंग्रेजों से स्वतंत्रता की ललक जगाई व संपूर्ण भारत को आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक रूप से संगठित करने का कार्य किया। Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024

भारत के स्वाधीनता संग्राम में अस्सी प्रतिशत क्रांतिकारी आर्यसमाज की पृष्ठभूमि से थे। आर्य समाज से कई स्वतंत्रता सेनानी निकले, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मोहनदास करमचंद गांधी व लोकमान्य तिलक आदि भी स्वामी दयानन्द को अपना आदर्श मानते थे। दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर कई युवा व समाज सुधारक आगे आये व देश के निर्माण में अपना योगदान दिया।

भारत भ्रमण क्रम में उन्होंने अंग्रेजी शासन में दीन हीन हो चुकी भारतीय जीवन को निकट से देखा, तो उन्हें महसूस हुआ कि इस प्रकार विपन्न व भयभीत जीवन के साथ मनुष्य सत्य को कैसे समझ सकता है? इसलिए उन्होंने एक साथ कई दिशाओं में कार्य आरंभ करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जनजागरण प्रारंभ कर दिया। अपने जनसंपर्क और जनजागरण अभियान में उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि भारत बैचेन है और संघर्ष के लिए तैयार है। बस उसे संगठन और मार्गदर्शन की आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने इस कार्य का स्वयं नेतृत्व संभालते हुए इस कार्य में अपने गुरु भाईयों को भी सक्रिय कर कार्य का शुभारंभ कर दिया।

उनके नेतृत्व में इस टोली ने समाज के प्रबुद्ध और प्रभावशाली व्यक्तियों को संगठित करना आरंभ किया। भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक वैभव को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए चिंतित उस कालखंड के लगभग सभी लोग स्वामी दयानन्द  के संपर्क में आ गए। इनमें नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, हाजी मुल्ला और बाला साहब जैसे वीर महापुरुष भी थे। कार्य को आगे बढ़ाने के लिए संदेश वाहकों की टीम तैयार हुई। Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024

फिर दयानन्द के प्रवचन होने लगे और यह टोली वहाँ लोगों को संगठित क्रांति के लिए तैयार करने लगी। इससे परस्पर आपसी संबंध बने और एकता आई। इस संपर्क और संगठन के अभियान में रोटी और कमल एक प्रतीक चिन्ह बना। इस संपर्क कार्य के लिए पुजारी, पुरोहित और साधु संतों को भी जोड़ा गया। इससे देश में स्वाधीनता का एक नई अग्नि प्रज्वलित होती नजर आई। 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि में स्वामी दयानन्द की प्रवचन सभाएं कानपुर, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, इंदौर, आदि अनेक स्थानों पर हुईं। मेरठ क्रांति के समय स्वामी दयानन्द मेरठ में ही थे।

यह भी पढ़ें: भाजपा की पहली सूची का क्या संदेश?

समय के साथ क्रान्ति आरंभ हुई, किन्तु आशातीत सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। इससे स्वामी दयानन्द कतई निराश नहीं हुए। उनके मन में नकारात्मकता का कोई भाव न था। उनकी मान्यता थी कि शताब्दियों की दासता से मुक्ति किसी एक झटके में संभव में नहीं है। इसके लिए लंबा संघर्ष करना होगा। वे लोगों को समझाते थे कि प्रसन्नता एक आंतरिक संकल्प है। और प्रसन्नता की निरंतरता ऐसी आत्मशक्ति से उत्पन्न होती है जो सफलता और असफलता से ऊपर हो।

उनके विचारों और प्रवचनों से समाज में एक नई ऊर्जा का संचार होने लगा और लोग नये सिरे से सक्रिय होने लगे। नई परिस्थिति में स्वामी दयानन्द गुरू स्वामी बिरजानंद के सलाह पर चलते हुए वैदिक सत्य ज्ञान की व्याख्या करने और जनजागरण कार्य में जुट गए। गुरु के सलाह पर अनुसार महर्षि स्वामी दयानन्द हरिद्वार आए।

और वहां कुम्भ के अवसर पर पाखण्डखण्डिनी पताका फहराई। और दिखावे के कर्मकांड, अंध विश्वास, और वेद विरोधी बातों का जोरदार खंडन किया। उनका कहना था केवल गंगा नहाने, सिर मुंडाने और केवल भभूत मलने से स्वर्ग का मार्ग नहीं मिलता मिलता, इसके लिए प्राणशक्ति, ज्ञान शक्ति और आत्म शक्ति में तादात्म्य होना चाहिए।

स्वामी दयानन्द को हिन्दी भाषा से अत्यधिक लगाव था और वे भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी को बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि भारत के विभिन्न राज्यों में आपस में बोली जाने वाली आम बोलचाल की भाषा अंग्रेजी न होकर हिन्दी हो, जिससे हम अपनी संस्कृति पर गर्व कर सके। यद्यपि उनकी मातृभाषा गुजराती थी व धर्म भाषा संस्कृत थी, किन्तु हिन्दी एक ऐसी भाषा थी, जिसे भारत के अधिकांश लोग बोल, समझ व पढ़ सकते थे। Swami Dayanand Saraswati Jayanti 2024

इसलिए उन्होंने संपूर्ण भारत की आम भाषा के लिए अपने देश की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा को बनाने को कहा, न कि एक विदेशी भाषा को। उनका कहना था -मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।

स्वामी दयानन्द ने सर्वप्रथम अपने धर्म अर्थात हिन्दू धर्म में फैली बुराइयों व कुरीतियों का अध्ययन किया व पूरे देश का भ्रमण किया। इस दौरान वे कई विद्वानों व पंडितों से मिले व उनके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया। इसके साथ ही उन्होंने इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध व सिख आदि अन्य धर्मों का भी गहन अध्ययन किया और उनमें फैली बुराई व गलत नीतियों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। इस तरह उन्होंने केवल एक धर्म में फैली गलत बातों को निशाना न बनाकर सभी धर्मों में फैली कुरीतियों को समाप्त करना अपना उद्देश्य समझा। उनका मुख्य कार्य समाज को एक नई दिशा देने का था, ताकि लोग एक सभ्य, सुशिक्षित व स्वतंत्र समाज में रह सके।

स्वामी दयानन्द ने अपने लेखन द्वारा अभूतपूर्व जनजागरण किया और अपनी रचित सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत), पाखण्ड खण्डन (1866), वेद भाष्य भूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), अद्वैतमत का खण्डन (1873), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि महत्वपूर्ण ग्रंथों से भारतीयों को राष्ट्र क्रांति के लिए आवाहन किया। जिससे सम्पूर्ण देश में अपूर्ण हलचल उत्पन्न होने के कारण  देशवासियों में चेतना जागृत हुई।

जिसके कारण कालांतर में भारत देश को स्वतंत्रता के सूर्य के दर्शन हुए। लेकिन दुखद स्थिति यह है कि सदैव राष्ट्रीय भावना और जनजागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील रहने वाले स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा, वेद के पूनर्रूद्धारक योगाभ्यासी स्वामी दयानन्द की हत्या व अपमान के कुल 44 प्रयास उनके 1863 में गुरु विरजानंद के पास अध्ययन पूर्ण होने के बाद लगभग बीस वर्षों के कार्यकाल में हुए।

जिसमें से 17 बार विभिन्न माध्यमों से विष देकर प्राण हरण के प्रयास थे, फिर भी उनके प्राण हरण का कोई प्रयास सफल नहीं हो सका। लेकिन 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली की संध्या को एक विधर्मी षड्यन्त्र सफल हो गया और विषयुक्त कांच चूर्ण मिश्रित दूध के सेवन से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और अजमेर के अस्पताल में उन्होंने इस संसार से विदा ले ली।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें