वैष्णव साधना के प्रवर्त्तक स्वामी रामानन्द

वैष्णव साधना के प्रवर्त्तक स्वामी रामानन्द

वैष्णवों के कुल 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदीय सन्यासियों, वैरागियों के हैं। यह सभी द्वारे ब्राह्मण कुल के शिष्यों के द्वारा स्थापित किए गए हैं, इनमें से एक पीपासेन क्षत्रिय कुल थे। संप्रदाय की शर्त अनुसार सभी का ब्रह्मचारी होना आवश्यक है। इस संप्रदाय के संन्यासी व साधु बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। रामानन्दी संप्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएं देश भर में फैली हैं। अयोध्या, चित्रकूट, नाशिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ों मठ, मंदिर हैं।

2 फरवरी – स्वामी रामानन्द जयंती

मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के महान संत स्वामी जगतगुरु रामानन्दाचार्य ऐसे संत, परम विचारक, समन्वयी महात्मा हुए हैं, जिन्होंने न केवल श्री सीतारामजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत सिद्धांत तथा रामभक्ति की पावन धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान कर हिमालय की गगनचुंबी ऊंचाईयों से उतारकर निर्धनों और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया, बल्कि वे पहले ऐसे आचार्य हुए हैं, जिन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाले और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्त्तक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है।

स्वामी रामानन्दाचार्य ने क्षत्रिय रूप में वैष्णव बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे रामानन्दी सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। स्वामी रामानन्द का जन्म प्रयागराज में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में माता सुशीला  देवी और पिता पुण्यसदन शर्मा के घर हुआ था। उनके जन्म काल के संबंध में विद्वान एकमत नहीं हैं, लेकिन अधिकांश विद्वानों के अनुसार स्वामीजी का जन्म 1199 ईस्वी में हुआ था।   रामानन्द संप्रदाय की मान्यता के अनुसार आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत 1356 को हुआ था। अगस्त्य संहिता तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार रामानन्द का जन्म सन 1299 ईस्वी में हुआ था। धार्मिक विचार पसंद उनके माता-पिता ने बालक रामानन्द को शिक्षा पाने के लिए काशी के स्वामी राधवानन्द के पास श्रीमठ भेज दिया। श्रीमठ में रहते हुए रामानन्द वेद, पुराण और दूसरे धर्मग्रंथों का अध्ययन कर प्रकांड विद्वान बन गए।

गुरू राघवानन्द और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया। ऐसे में स्वामी रामानन्द को रामतारक मंत्र की दीक्षा प्रदान की गई। रामानन्द ने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की। योग की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्होंने अष्टांग योग की साधना पूर्ण की। दीर्घायुष्य प्राप्त करने के कारण जगद्गुरू राघवानन्द ने अपने तेजस्वी और प्रिय शिष्ट रामानन्द को श्रीमठ पीठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया। स्वामी अनन्तानन्द के द्वारा कही गई गुरुपरंपरा के अनुसार स्वामी रामानन्द श्रीराम मंत्रराज की परम्परा में 22वें स्थान पर आते हैं।

स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन समाज में विभिन्न मत, पंथ, संप्रदायों में घोर वैमनस्यता और कटुता को दूर कर बहुसंख्यक समाज को एक सूत्र में बांधने का महनीय कार्य किया। आचार्य ने शिव एवं विष्णु के उपासकों में चले आते अज्ञान मूलक द्वेष भाव को दूर किया। अपने तप: प्रभाव से यवन-शासकों के अत्याचार को शान्त किया और श्री अवध चक्रवर्ती दशरथ नन्दन राघवेन्द्र को आदर्श मानकर उनकी भक्ति के प्रवाह से प्राणियों के अन्त: कलुष का निराकरण किया। उनकी शिष्य मंडली में उस काल के महान संत कबीरदास, रैदास, सेननाई जैसे निर्गुणवादी संत थे, तो दूसरी ओर अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनन्तानन्द, भावानन्द, सुरसुरानन्द, नरहर्यानन्द जैसे वैष्णव ब्राह्मण सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे। गागरौनगढ़ नरेश पीपाजी जैसे क्षत्रिय, सगुणोपासक भक्त भी उनके शिष्य थे।

उन्होंने अनंतानन्द, भावानन्द, पीपा, सेन नाई, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानन्द, सुखानन्द, कबीर, रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हें द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन द्वादश महाभागवतों को  अपने जाति, समाज और अपने क्षेत्र में भक्ति का प्रचार करने का दायित्व सौपा। इनमें कबीर दास और रैदास (रविदास) आगे चलकर काफी ख्यातप्राप्त संत हुए। कालांतर में कबीर पंथ रामानंदीय संप्रदाय से अलग रास्ते पर चल पड़ा। रामानंदीय संप्रदाय सगुण उपासक है, और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को मानते है। कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की। मान्यता है कि महात्मा कबीरदास जी ने उनके चरण धोखे से हृदय पर लेकर उनके मुख से निकले राम- नाम को गुरुमंत्र मान लिया। स्वामी रामानन्द ऐसे महान संत थे, जिसकी छत्र छाया में सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में चतुर्दिक आपसी कटुता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानन्द  ने भक्ति करने वालों के लिए नारा दिया- जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।

उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। किन्तु वर्णसंकरता नहीं हो, इसलिए संन्यासी, वैरागी के लिए कठोर नियम बनाए, उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया। मान्यता है कि आचार्य रामानन्द ने तारक राममंत्र का उपदेश पेड़ पर चढ़कर दिया था, ताकि सब जाति के लोगों के कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके। स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता दी। उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की। स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित ग्रंथ- वैष्णवमताब्ज भास्कर:, श्रीरामार्चनपद्धतिः, ब्रह्म सूत्र आनन्दभाष्य, उपनिषद् आनन्दभाष्य, श्रीमद् भगवदगीता आनन्दभाष्य हैं। ये सभी संस्कृत भाषा में लिखे ग्रंथ हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि तत्कालीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी रामानन्द की स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ के समान जाज्वल्यमान है। स्वामीजी ने अपने मत के प्रचार के लिए भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा कीं। उन्होंने पुरी और दक्षिण भारत के कई धर्मस्थानों पर पहुंचकर राममय जगत की भावधारा सिद्धांत के स्थापन हेतु रामभक्ति का प्रचार किया। तीर्थाटन से लौटने पर अनेक गुरु-भाईयों ने यह कहकर रामानन्द के साथ भोजन करने से इंकार कर दिया कि इन्होंने तीर्थाटन में छुआछूत का विचार नहीं किया होगा। इस पर रामानन्द ने अपने शिष्यों को नया संप्रदाय चलाने की सलाह दी। उन्होंने अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की। उनके ही कारण उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार वैरागी साधुओं को अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया। तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए।

यह स्वामी रामानन्द के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही यौगिक शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के माध्यम से स्वामी रामानन्दाचार्य की शरण में आया और हिन्दुओं  पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिन्दुओं को फिर से हिन्दू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानन्दाचार्य ने ही प्रारंभ किया। अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था। वर्तमान में रामानन्दी अर्थात रामावत संप्रदाय, वैष्णव संन्यासियों, साधुओं का सबसे बड़ा  धार्मिक जमावड़ा है।

वैष्णवों के कुल 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदीय सन्यासियों, वैरागियों के हैं। यह सभी द्वारे ब्राह्मण कुल के शिष्यों के द्वारा स्थापित किए गए हैं, इनमें से एक पीपासेन क्षत्रिय कुल थे। संप्रदाय की शर्त अनुसार सभी का ब्रह्मचारी होना आवश्यक है। इस संप्रदाय के संन्यासी व साधु बैरागी भी कहे जाते हैं। इनके अपने अखाड़े भी हैं। रामानन्दी संप्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएं देश भर में फैली हैं। अयोध्या, चित्रकूट, नाशिक, हरिद्वार में इस संप्रदाय के सैकड़ों मठ, मंदिर हैं। काशी के पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान तथा सगुण व निर्गुण रामभक्ति परंपरा और रामानन्दी संप्रदाय का मूल आचार्यपीठ है। स्वामी रामानन्द की मृत्यु तिथि भी उनकी जन्म-तिथि के अनुसार ही अनिश्चित है। अगस्त्य संहिता में सन् 1410 ईस्वी को उनकी मृत्यु-तिथि कहा गया है। मूल्य ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानन्द संप्रदाय के सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं, और सर्वत्र आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं।

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Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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