उग्र वामपंथी यानी माओवादियों संगठनों के बहुत बुरे दिन है। केंद्र सरकार ने ऐलान किया है कि अगले साल मार्च तक पूरे देश से नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने छत्तीसगढ़ के बस्तर और दंतेवाड़ा में यह बात कई बार कही है। उनके इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सुरक्षा बल कार्रवाई भी कर रहे हैं।
‘ऑपरेशन कगार’ चल रहा है, जिसके तहत लगातार नक्सली मारे जा रहे हैं। तभी पिछले दिनों प्रतिबंधित संगठन सीपीआई माओवादी की ओर से शांति वार्ता का प्रस्ताव दिया गया। सीपीआई माओवादी के प्रवक्ता अभय की ओर से दो अप्रैल 2025 को एक चिट्ठी जारी की गई, जिसमें कहा गया कि पिछले कुछ समय में संगठन को चार से ज्यादा सदस्य मारे जा चुके हैं। सरकार का जैसे अभियान चल रहा है उसमें ज्यादा समय तक टिके रहना संभव नहीं दिख रहा है।
संगठन को जो वैचारिक समर्थन बौद्धिक जमात से मिलता था वह लगभग बंद हो चुका है। केंद्र सरकार ने किसी न किसी बहाने ऐसे बौद्धिकों को अरबन नक्सल बता कर उन पर कार्रवाई की। उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाला। सो, बाहर से मिलने वाला बौद्धिक, वैचारिक और नैतिक समर्थन की कड़ियां टूट गई हैं। अब जमीन पर लड़ाई में भी सुरक्षा बल नक्सलियों को समाप्त कर रहे हैं। तभी सशर्त वार्ता की पहल की गई।
लेकिन सरकार अभी न तो नक्सल प्रभावित इलाकों से सुरक्षा बलों को हटाने जा रही है और न युद्धविराम करने जा रही है। क्योंकि पिछले अनुभवों से सरकार को पता है कि वार्ता के बहाने संघर्षविराम करा कर नक्सल संगठन अपनी ताकत इकट्ठा करते हैं। पहले जितनी बार वार्ता हुई उनमें कोई कामयाबी नहीं मिली। याद करें ऐसे ही 1999 से 2004 के बीच चंद्रबाबू नायडू की ग्रेहाउंड्स टीम ने नक्सलियों पर कार्रवाई की थी तो उन्होंने वार्ता की पेशकश की और कई दिन तक वार्ता की तैयारी हुई। कई दिन तक वार्ता होती भी रही लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला।
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देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। कहीं डीएमके, कहीं राजद, कहीं जेएमएम, कहीं कांग्रेस, कहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस की मदद से पार्टी का लोकसभा और विधानसभाओं में खाता खुल जा रहा है। उसकी स्थिति क्षेत्रीय पार्टियों से भी खराब है।
तभी उस पर दबाव है कि वह अपना विलय सीपीएम के साथ कर दे। पिछले दिनों प्रकाश करात ने सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ आने की अपील की थी। सीपीआई की दुविधा अकेले रहने, गठबंधन में लड़ने या विलय कर देने की है। सीपीआई की ताकत जितनी कम हो गई है उसमें पार्टी चलाना भी मुश्किल है। बहरहाल, इस बार बिहार में वह अकेले लड़ने का दांव चल रही है या इसका हल्ला मचा कर कुछ ज्यादा सीटें हासिल करना चाह रही है।
ध्यान रहे बिहार में सीपीआई माले के 12 विधायक हैं और सीपीआई और सीपीएम के दो दो विधायक हैं। पुरानी ताकत सीपीआई की ही रही है। लेकिन अब वह पूरी तरह से दूसरी पार्टियों पर निर्भर हो गई है।
Pic Credit: ANI