बिहार में भाजपा जीतेगी! प्रधानमंत्री मोदी ने बटन दबा कर महिलाओं के खातों में जो दस हजार रुपए भेजे हैं, उससे नीतिश-मोदी के वोट निश्चित ही पकेंगे। क्यों यह विश्वास? पहली बात, दस हजार रुपए की नकदी छोटी नहीं है। दूसरे, बिहार में जातिवादी राजनीति के बावजूद महिलाओं का मन नीतीश कुमार से जुड़ा रहा है। नीतीश कुमार ने पंद्रह-बीस साल पहले जिन बच्चियों को साइकिल बांटी थी। स्कूल भिजवाया था। वे अब घर-परिवार में अहम रोल में हैं। बिहार की नौजवान, कामकाजी आबादी अपने अनुभवों, बेरोजगारी, जातिवादी राजनीति, तेजस्वी-राहुल के प्रभाव में चाहे जितनी रहे, घरों में महिलाएं नकद पैसे और नीतीश के प्रति पॉजिटिव रूख लिए होगी। इनके लिए विकास, रोजगार, कानून-व्यवस्था-सुरक्षा का खास अर्थ नहीं है। मगर हां, नीतीश कुमार ने शराबबंदी से भी घरों में महिलाओं को जो राहत दिलाई उसका भी मतदान करते समय नकदी के साथ प्रभाव रहेगा।
तभी भाजपा ने नीतीश कुमार का चेहरा आगे रखा हुआ है। यदि नीतीश कुमार का चेहरा नहीं हो तो मुख्यमंत्री के चेहरे के नाते तेजस्वी यादव का नाम प्रभावी है। मतदाताओं को यह रियलिटी समझ नहीं आ सकती है, न ही तेजस्वी-राहुल गांधी, विपक्षी गठबंधन के नेता लोगों में यह बात पैठाने में कामयाब हैं कि नीतीश कुमार बीमार हैं। भाजपा ने उनकी पार्टी जेडीयू को हाईजैक कर लिया है। रियलिटी से अलग लोग अभी नीतीश कुमार के वजूद पर ठप्पा लगाते हुए होंगे।
सो, अगला बिहार विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक होगा। इस हैरानी वाला होगा कि सर्वाधिक युवा आबादी, जेनरेशन जेड़ की बेरोजगारी-बेगारी के बावजूद तेजस्वी-राहुल पिछले चुनावों की तरह ही खारिज होंगे। राहुल गांधी फिर गलती करते हुए हैं। उन्होने बिहार के जातिवादी मिजाज में जाति जनगणना, अति पिछड़े लोगों के लिए अवसर की गारंटी जैसी जो बातें की हैं उससे कांग्रेस के वोट नहीं बढ़ने हैं। इसलिए क्योंकि 1990 में मंडल राजनीति से बिहार का जो मंडलीकरण था उससे यूथ अब बंधा नहीं है। प्रदेश की आबादी, खासकर नौजवान आबादी पक व थक गई है। मंडलवादी शासन-राजनीति के बावजूद आटे-दाल के भाव, रोजगार, काम-धंधों के तमाम अनुभव जेनरेशन जेड में मंडल को खारिज किए हुए हैं। क्या प्रमाण है? हो सकता है मैं गलत होऊं पर प्रशांत किशोर का चुनाव में शोर बनना ही इस बात का प्रमाण है कि बिहार जातिवाद से बाहर निकलता हुआ है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि जाति केंद्रित राहुल गांधी की नारेबाजी के वोट प्रशांत किशोर की पार्टी की वोट संख्या से कम हों। जिन मुद्दों, जिन बातों, जिस मैनेजमेंट से प्रशांत किशोर ने बिहार में अपना माहौल बनाया है वैसा हिसाब से राहुल गांधी को कांग्रेस का बनवाना था। बिहार का प्रशांत किशोर का नैरेटिव कांग्रेस की अखिल भारतीय रणनीति होनी चाहिए थी। लेकिन राहुल, सोनिया, प्रियंका और एआईसीसी में बुद्धि का वैसा ही टोटा हुआ पडा है जैसा मोदी-शाह की भाजपा में है।
बावजूद इसके भाजपा ने यह रियलिटी मानी है कि अब मोदी का चेहरा अब नहीं बिकता है। इसलिए मोदी-अमित शाह और उनकी सर्वेक्षण टीमों की एकमेव प्राथमिक चुनावी रणनीति लोगों को सीधे पैसे, रेवड़ियां बांटने और बूथ स्तर पर वोट प्रबंधन है। तभी बिहार में प्रति महिला दस हजार रुपए सरकार से बंटवाने का आंकड़ा है। घर-घर इतना पैसा तो बिहार में यों भी मान्यता है कि पैसे के लिए कुछ भी किया जा सकता है। पांच-दस हजार रुपए के लिए तो अपराध, हत्या हो जाती है। तब चुनाव से ऐन पहले हजारों रुपए के वितरण के आगे जाति, धर्म या चेहरे से क्या वोट मिलेंगे!
पर यह बात तेजस्वी, राहुल गांधी और विरोधी वामपंथी व मंडलवादी नेताओं को समझ नहीं आ रही है। सोचें, क्या गजब बात है कि बिहार में सीपीआई, सीपीआई एमएल जैसी पार्टियों का आधार अब नौजवानों की भीड़ लिए हुए नहीं है। सोचे, जेनरेशन जेड में बेगारी-बेरोजगारी, असमानता, शोषण, महंगाई से वामपंथियों या कन्हैया जैसों का जलवा बनना था या प्रशांत किशोर का पेड वर्कर, पेड जनसंपर्क खिलना चाहिए था?
मोटी बात, इस सप्ताह बिहार के घरों में महिलाओं को दस हजार रुपए बंटना भारतीय राजनीति में मील का पत्थर है। पहले चुनाव आयोग के जरिए बन रही संशोधित मतदाता सूची और फिर नवरात्रि में हर घर की मातृशक्ति को मोदी के हाथों से दस हजार रुपए की रकम से चुनाव की क्या तस्वीर बनेगी, इसका अनुमान बूझें तो लगेगा मानों सौ साल पहले हिंदुओं को पैसे से खरीदने याकि उन्हें बेवकूफ बनाए रखने के लिए ही आरएसएस नाम का संगठन गठित हुआ था।