भारतीय राजनीति में आलाकमान का कल्चर कांग्रेस की देन है। कांग्रेस के मुकाबले की जो भी पार्टियां थीं चाहे प्रसोपा, संसोपा आदि रहे हों या जनसंघ और लेफ्ट पार्टियां रहीं हों या बाद में भाजपा रही, सब काडर आधारित पार्टियां थीं और वहां एक साथ कई बड़े नेता रहते थे, जिनकी पंचायत से फैसले होते थे और इन नेताओं के टकराव से ही ये पार्टियां टूटती, बिखरती रहीं या प्रासंगिकता खोती गईं। इसके उलट कांग्रेस में आलाकमान होता था। आज भी कांग्रेस आलाकमान है और वह आलाकमान ऐसा है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से जब कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदलने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि फैसला कांग्रेस आलाकमान करेगा। य़ानी आलाकमान पार्टी के राष्ट्रीय अध्य़क्ष से बड़ा होता है। ठीक ऐसा ही आलाकमान अब भाजपा में भी है। वहां भी आलाकमान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से बड़ा है।
लेकिन कांग्रेस और भाजपा के आलाकमान में फर्क है। भाजपा में सारे फैसले आलाकमान यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हिसाब से, उनकी मर्जी से होते हैं। कांग्रेस में भी सारे फैसले आलाकमान के नाम पर होते हैं लेकिन यह नहीं कह सकते है कि फैसले आलाकमान की मर्जी से होते हैं। कई बार ऐसे भी फैसले होते हैं, जो आलाकमान की मर्जी के नहीं होते हैं। वहां नेता किसी किस्म के अनुशासन से नहीं बंधे हैं। नेता अपनी मर्जी से राजनीति करते हैं और आलाकमान को वह राजनीति स्वीकार भी करनी होती है। ऐसा नहीं है कि अब कांग्रेस आलाकमान कमजोर हुआ है तो ऐसा है। पहले भी कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों में भी अनेक बड़े नेता होते थे, जो अपनी पसंद के फैसले के लिए दबाव डालते थे। ऐसा नहीं था कि उनकी हिम्मत आलाकमान के सामने बोलने की नहीं होती थी। ऐसा भी नहीं था कि सारा संवाद एकतरफा हो यानी जब आलाकमान चाहे तब बात हो और जो कहे उसके पूरा करना है।
कांग्रेस का आलाकमान कुछ कुछ भारत के राष्ट्रपति की तरह है। जैसे सरकार का छोटा से छोटा काम भी राष्ट्रपति के नाम से होता है। राष्ट्रपति की मर्जी से नहीं, उनके नाम से। वैसे ही कांग्रेस में सारे काम आलाकमान के नाम से होते हैं, लेकिन हर काम उसकी मर्जी से नहीं होता है। वहां अब भी संवाद की गुंजाइश है। पार्टी के नेता सोनिया और राहुल गांधी के सामने अपना पक्ष रखते हैं। राहुल गांधी भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल और दूसरे महासचिवों से बात करते हैं। वहां आलाकमान से ज्यादा महासचिव का कल्चर मजबूत है। वहां महासचिव और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अपनी मर्जी का फैसला करा ले जाते हैं और उसको नाम दिया जाता है कि पार्टी आलाकमान का फैसला है। यह स्थिति भाजपा में नहीं है। वहां पार्टी का और संघ का अनुशासन चलता है। सिर्फ आलाकमान को ही फैसला करने का अधिकार है और वह फैसला पार्टी संगठन के पदाधिकारियों की राय पर आधारित नहीं भी हो सकता है। हो सकता है कि कोई सर्वे करने वाली एजेंसी या कोई बाहरी विशेषज्ञ सलाह दे और उस पर फैसला हो और पार्टी के सामने नेताओं को उस फैसले का पालन करने को कहा जाए।
कांग्रेस के शशि थरूर आजकल मोदी के नए नए प्रशंसक बने हैं लेकिन कांग्रेस में उनको यह आजादी है कि वे अपने को मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश करें और आलाकमान से अलग राय प्रस्तुत करें। कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच खींचतान है तो है। उसके ऊपर राजनीति हो रही है। ऐसा नहीं है कि आलाकमान के डंडे से सबको शांत कर दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव या राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट की तनातनी थी तो थी। पार्टी के नेता इन बड़े नेताओं की धुरी पर राजनीति करते थे और आलाकमान को भी सबकी बात सुननी होती थी। कांग्रेस की राजनीति में अब भी एक किस्म की जीवंतता है। नेता एक दूसरे से लड़ते हैं, एक दूसरे की टांग भी खींचते हैं, फिर मिल कर चुनाव भी लड़ते हैं और हारते, जीतते हैं। दूसरी ओर भाजपा की राजनीति से लगता है कि जान निकल गई है। कोई प्राणवत्ता नहीं बची है! अब कोई उत्साह या राजनीति करने का माहौल नहीं बचा। सोचें, एक समय भाजपा में कितनी पंचायत लगती थी? कितने नेता थे? हर नेता की एक्सेस पार्टी के शीर्ष नेताओं तक थी और सब अपनी बात आलाकमान तक सीधे पहुंचाते थे और उनकी बात सुनी भी जाती थी। कुछ भी ऊपर से नहीं थोपा जाता था। अब सब कुछ ऊपर से थोपा जाता है और नीचे सबको उसका अनुपालन करना होता है।