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जातिवाद रोकने का झांसा क्या चलेगा?

इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद उत्तर प्रदेश में जातिवाद रोकने का एक अभियान छिड़ा हुआ है। योगी सरकार को मौका मिला है। हाई कोर्ट के आदेश के बाद राज्य की योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक सरकुलर जारी किया है, जिसमें कहा है कि गाड़ियों पर जाति लिखी हुई मिली या जातिसूचक स्टिकर आदि लगाए तो गाड़ी जब्त कर ली जाएगी। जातिसूचक प्रतीकों का इस्तेमाल भी नहीं करना है। इतना ही नहीं जातियों के नाम पर रैली नहीं करनी है और न सामाजिक कार्यक्रम करने हैं। कांग्रेस और दूसरी प्रादेशिक पार्टियों ने इसका विरोध किया है। बिहार में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि अगर यह नियम लागू हुआ तो जातियां अपने उत्पीड़न का मुद्दा कैसे उठा पाएंगी? यह बड़ा सवाल है। भारत के समाज में जाति अब भी वैसे ही मौजूद है, जैसे सौ साल या हजार साल पहले थी। एक तरफ जाति का बंधन ढीला होने की बात कही जाती है तो दूसरी ओर अंतरजातीय विवाहों में हो रही हत्याएं दूसरी ही कहानी बताती हैं।

बहरहाल, हाई कोर्ट के फैसले के बाद जातिवाद कम करने के जो उपाय आजमाए हैं वे कॉस्मेटिक सर्जरी की तरह है। गाड़ियों पर जाति का नाम नहीं लिखने या जातिसूचक प्रतीक इस्तेमाल नहीं करने से समाज से जाति नहीं खत्म हो जाएगी। समाज में जाति एक सचाई है तो इसको स्वीकार करके इसके नकारात्मक पक्ष को कमजोर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। पर सरकार प्रतीकात्मक रूप से कुछ कदम उठा रही है, जिसका मकसद समाज के उस तबके की आंख में धूल झोंकना है, जो भाजपा से दूर जाने की सोच  रहा है या लोकसभा चुनाव में दूर चला गया। असल में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का एक समीकरण बनाया है। संविधान बदलने और आरक्षण छीनने के राजनीतिक एजेंडे पर उन्होंने इस समूह को एकजुट करके वोट ले लिया था, जिसका नतीजा हुआ था कि भाजपा और उसके सहयोगी 36 सीटों पर रह गए, जबकि सपा और कांग्रेस का गठबंधन 43 सीट जीत गया।

अखिलेश यादव के इस पीडीए में भाजपा से दूरी बढ़ रही है। इसमें संदेह नहीं है कि लोकसभा में संविधान बदलने का मुद्दा चला था, जो विधानसभा में नहीं होगा। यह भी सही है कि योगी आदित्यनाथ अब भी हिंदुत्व का बड़ा चेहरा हैं और कानून व्यवस्था को लेकर उन्होंने अपने शासन की पहचान बनाई है। लेकिन साथ ही अपनी जाति के लोगों के प्रोटेक्ट करने, उनको आगे बढ़ाने, नियुक्तियों में उनको महत्व देने का मुद्दा उन पर भारी पड़ रहा है। पिछले दिनों अखिलेश यादव ने लखीमपुर खीरी अर्बन कोऑपरेटिव बैंक की नियुक्तियों का मुद्दा उठाया था, जिसमें 27 भर्तियों में से 15 सीटों पर राजपूत नियुक्त किए गए। अखिलेश ने बताया कि 55 फीसदी पद एक जाति को और पीडीए की पूरी तरह से अनदेखी। ऐसा ही उन्होंने यूपी की एसटीएफ के लिए भी बताया और दूसरे विभागों का भी हवाला दिया। जाहिर है योगी सरकार के लिए इन आरोपों से छुटकारा आसान नहीं है। तभी इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बहाने जातिवाद को प्रतीकात्मक रूप से टारगेट करने का प्रयास हुआ है। हालांकि इससे भी पिछड़े और दलित जातियों के समूह नाराज हुए हैं। उनका कहना है कि सरकार के आदेश से उनके सामाजिक सम्मेलन को निशाना बनाया जाएगा। तभी यह झांसा उलटा भी पड़ सकता है।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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