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भारत का जेनरेशन जेड अलग है

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को उम्मीद है कि जैसे बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में युवाओं ने सड़क पर उतर कर तख्तापलट करा दिया उसी तरह भारत में भी जेनरेशन जेड यानी 13 साल से लेकर 28 साल की उम्र तक के युवा क्रांति करेंगे। दूसरी ओर भाजपा का दावा है कि यह पीढ़ी पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के साथ है। इसके सबूत के तौर पर ‘जेन जी’ का कहानी शुरू होने के बाद हुए दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन यानी डूसू के चुनाव नतीजे पेश किए जा रहे हैं। डूसू की सेंट्रल पैनल के चार पदों में से तीन पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी के छात्र जीते। एक सीट कांग्रेस के संगठन एनएसयूआई को गई। इसके बाद हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघ का चुनाव हुआ। उसमें भी एबीवीपी ने क्लीन स्वीप किया। सो, नई पीढ़ी को लेकर दोनों तरह के दावे हैं। परंतु क्या इससे सचमुच कुछ फर्क पड़ता है कि वे किसके साथ हैं?

असल में भारत के युवा और किशोर उस तरह के नहीं हैं, जैसे दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में दिखे है। बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के अलावा पाकिस्तान में भी दिखा कि कैसे वहां के युवा इमरान खान के लिए दीवाने हैं। भारत में ऐसा नहीं है। भारत में युवा की अलग से कोई पहचान नहीं है। वह अपनी जातीय पहचान से बंधा है। भले प्रतियोगिता परीक्षा रद्द होने या पेपरलीक होने पर आंदोलन के समय लाठी खाते हुए सभी जाति के लोग एक साथ हों लेकिन घर लौटते ही वह अपनी जाति का हो जाता है। युवा और छात्र वाली अस्मिता को वह त्याग देता है। यहां युवा किसी न किसी तरह के आरक्षण के दम पर 40 साल की उम्र तक प्रतियोगिता परीक्षा देते रहते हैं और सरकारी नौकरी की जुगाड़ में रहते हैं। इसलिए उनसे किसी किस्म की क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा फेसबुक यूजर हैं। यूट्यूब के यूजर्स भी सबसे ज्यादा हैं और सबसे ज्यादा इन्फ्लूएंसर्स भी हैं। सो, सोशल मीडिया की रीलबाजी में लोग उलझे हुए हैं। उनको बता दिया गया है कि सरकार ने उनके लिए डाटा कितना सस्ता कर दिया है। इसलिए उनको हर दिन अपने पैकेज के साथ मिलने वाला डाटा खत्म करने पर ध्यान देना चाहिए। फिर वह डाटा चाहे रील बना कर खत्म करे या रील देख कर खत्म करे। फिर भारत धर्मभीरू लोगों का देश है, जिनको सोशल मीडिया पर लोकप्रिय बाबाओं के जरिए समझाया जाता है कि अगर उनका जीवन कष्टमय है, नौकरी नहीं मिल रही है, काम धंधा नहीं चल रहा है, बच्चों की नौकरी नहीं हो रही है तो यह सब पिछले जन्म के किसी पाप का फल है या इस  जन्म में किसी ग्रह के नीच होने से ऐसा हो रहा है।

इसका उपाय भी बताया जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग हर समय बिजी रहते हैं। पहले यह जानने के लिए लोगों को बाबाओं, ज्योतिषों के पास जाना होता था लेकिन यह काम अब घर बैठे मोबाइल पर हो जाता है। हालांकि प्रवचन देने वालों के यहां भीड़ बढ़ी है लेकिन उससे ज्यादा सेफ्टी वॉल्व  का काम मोबाइल और सोशल मीडिया कर रहे हैं। एक बड़ी आबादी विदेश जाने की जुगाड़ में भी हर समय लगी रहती है। इसलिए भारत में किसी दूसरे समूह से क्रांति की उम्मीद की जा सकती है लेकिन ‘जेन जी’ से उम्मीद बेमानी है।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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