न डेढ़ सौ साल पहले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने कल्पना की होगी और न 1896 में रविंद्रनाथ टैगोर या बाद में महर्षि अरविंद या गांधी या आनंद भवन में विदेशी कपड़ों की होली जलाते नेहरू की यह कल्पना रही होगी कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कोई मोदी सरकार भी आएगी, जो सत्य, स्वदेशी को गिरवी रख उनकी भावना के वंदे मातरम् पर भी प्रोपेगेंडा का झांसा रचेगी। हां, इन सबके लिए वंदे मातरम् का गान सत्य, स्वाभिमान, स्वतंत्रता और “स्वदेशी आत्मा का संगीत” था।
‘वंदे मातरम्’ तब राष्ट्रभक्तों की सत्य-प्रतिज्ञा का संकल्प था। मां की रक्षा के साथ उसकी गरिमा में स्वदेशी अपनाने का प्रण था। चाल, चेहरे, चरित्र को सत्य व स्वाभिमान में उतारना था। लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के टुकड़े करने का 1905 में जब निर्णय किया तब ‘वंदे मातरम्’ हर राष्ट्रवादी के दिल-दिमाग में मंत्र की तरह गूंजा था। कांग्रेस का नरमपंथी हो या गरमपंथी, क्रांतिकारी हो या सत्याग्रही, सभी में सत्य, स्वाभिमान, स्वराज, स्वदेशी के संकल्प बने थे।
तभी स्वदेशी आंदोलन हुआ। बहिष्कार आंदोलन हुआ। आंदोलनकारियों ने कपास की मिलें जलाईं। चरखा चलाना शुरू किया। विदेशी कपड़े बहिष्कृत हुए और उन्हें जलाया गया।
उस दौरान गांधी ने कहा था, “स्वदेशी सत्य का अभ्यास है। जो राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं में पराश्रित होता है, वह कभी स्वतंत्र नहीं रह सकता”। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार से पहले तक ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्र के स्वदेशी आग्रह वाले चाल, चेहरे, चरित्र का पर्याय था, न कि राष्ट्रवाद के दिखावे तथा हिंदू बनाम मुस्लिम के विवाद को उकसाता गीत।
इसलिए राष्ट्रगीत का प्रचारात्मक उपयोग शर्मनाक है। विशेषकर तब जब भारत हर तरह से आज पराश्रित और चीन का आर्थिक गुलाम है। हर तरह से ‘वंदे मातरम्’ का सत्व-तत्व लुप्त है। न उस अनुसार सत्य है और न व्यवहार व अभ्यास तथा न ही स्वाभिमान है।
2025 में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत को भारी बदनाम किया, मगर देश के प्रधानमंत्री ने एक बार भी अपनी ज़ुबान से प्रतिवाद नहीं किया। चीन ने सीमा पर मनमानी की, लेकिन उसकी अनदेखी के साथ उलटे भारत उसका बाजार होता गया। कथित राष्ट्रवादी कह सकते हैं कि वंदे मातरम् तो मातृभूमि की पूजा मात्र है, भला स्वदेशी, स्वतंत्रता, सत्य, आत्मनिर्भरता आदि उन बीज-मंत्रों का भूमंडलीकरण के मौजूदा कयुग में क्या अर्थ है, जिससे भारत के बाजार यानी ‘विकसित भारत’ बनने में बाधा बनती है।
पर बंकिमचंद्र, टैगोर, अरविंद, गांधी, नेहरू (और सावरकर, गोलवलकर भी) इस तरह के झूठ या भ्रम नहीं पाले हुए थे। गांधी ने स्वदेशी के आग्रह में दो-टूक कहा था, “स्वदेशी केवल अर्थशास्त्र नहीं, यह सत्य का अभ्यास है, अपने कर्तव्य का शुद्धतम रूप”। उनका यह वाक्य भी था कि “जो राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं में पराश्रित होता है, वह राजनीतिक रूप से कभी स्वतंत्र नहीं रह सकता”। और नेहरू ने संविधान सभा की बैठक में कहा था कि “स्वदेशी का अर्थ दरवाज़ा बंद करना नहीं, बल्कि रीढ़ को मजबूत करना है”।
और मोदी सरकार ‘वंदे मातरम्’ पर राजनीति के साथ किसकी रीढ़ मजबूत कर रही है? चीन की, और उस बाजार की, भारत के उन चंद लोगों की, जो चीन व वैश्विक उद्योगों की रीढ़ हैं।
टैगोर ने 1896 में जब वंदे मातरम् को “स्वदेशी आत्मा का संगीत” कहा था, तो उनके मां को प्रणाम में मिट्टी, किसान, कारीगर, श्रम और उस स्वदेशी आत्मनिर्भरता को भी प्रणाम था, जिसके बूते सहस्त्राब्दियों हिंदुस्तान चलता रहा था। जबकि अब देश सिर्फ बाजार है। ‘बाजार मातरम्’ है। बाजार किसका है? मोटा मोटी अलग-अलग वस्तुओं में 50 से 85 प्रतिशत तक उस चीन का अधिकार है जिससे हमारा स्वत्व खत्म हुआ है।
हाल में मैंने जिला मुख्यालय स्तर पर भी बैटरी चालित कारों और सौर ऊर्जा का गजब फैलाव देखा। और फिर ध्यान आया सबके पीछे चीन की बैटरियों, चीन के सोलर मॉड्यूल है। भारत के बाजार में 50–70 प्रतिशत चीनी इलेक्ट्रॉनिक उत्पादन खपता है, बाकी में दक्षिण कोरिया, वियतनाम, आसियान देशों का माल है। भारत में दवाइयों की एपीआई यानी दवा उद्योग की रीढ़, 65–70 प्रतिशत चीन के सहारे खड़ी है। चीन से सोलर मॉड्यूल—ऊर्जा का 85 प्रतिशत साजो-सामान आता है, तो खिलौने, सर्किट, मोबाइल पार्ट्स, दिवाली की लड़ियों से लेकर हाथ का कलावा तक—लगभग 70 प्रतिशत चीन से आ रहा है।
सोचिए, क्या इतना पराश्रित देश दूसरा कोई है? यदि इसमें सैनिक साजो-सामान, उच्च तकनीक से लेकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म आदि का हिसाब जोड़ें, तो तस्वीर और भी भयावह बनेगी।


