यों बिहार में विपक्षी पार्टियों ने बूथ लेवल एजेंट्स नियुक्त किए हैं। पर वे आम लोगों को दस्तावेज जुटवाने में ही मदद कर सकते है। उनके दस्तावेज बूथ लेवल अधिकारियों के पास जमा करावाएं और सुनिश्चित करें कि उनका नाम अपडेट हो। एक अगस्त से मसौदा मतदाता सूची पर आपत्तियां ली जाएंगी। यानी किसी का नाम कट गया है तो उसे जुड़वाने का मौका मिलेगा। इसका मतलब है कि एक अगस्त से फिर नोटबंदी वाली कहानी दोहराई जाने वाली है। अभी जिस तरह से लोगों से फॉर्म लिए गए हैं और बिना दस्तावेजों के भी फॉर्म स्वीकार किए गए हैं उससे लग रहा है कि बड़ी संख्या में लोगों के नाम कटेंगे और जिनके नाम कटेंगे उनको हर जिला या प्रखंड के चुनाव कार्यालय में लाइन लगा कर, अपने दस्तावेज लेकर खड़ा होना होगा। सावन, भादो का महीना होगा। बारिश हो रही होगी। बारिश से या नेपाल के पानी से आधा बिहार बाढ़ में डूबा होगा लेकिन बिहार के लोगों की नियति है कि वोट डालना है तो दस्तावेज लेकर चुनाव कार्यालय के बाहर खड़े रहें। अगर कोई खुशकिस्मत होगा तो आपत्ति का निपटारा हो जाएगा और मतदाता सूची में नाम दर्ज हो जाएगा।
देश के विपक्ष की ऐसी असहायता केवल बिहार में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में है। उसे कहीं से कोई राहत नहीं है। भाजपा का एकमात्र लक्ष्य किसी तरह से चुनाव जीतने का है। चुनाव आयोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कुछ न कुछ ऐसे काम जरूर कर रहा है, जिसका लाभ सत्तारूढ़ दल को हो रहा है। तभी विपक्षी पार्टियों की बेचैनी समझ आती हैं। राहुल गांधी ने तो सीधे तौर पर मैच फिक्स होने की बात कही है। बिहार में मतगणना पुनरीक्षण शुरू कराने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त ने कह दिया है कि इसके बाद पश्चिम बंगाल और असम की बारी है। तभी ममता बनर्जी की पार्टी की सांसद महुआ मोइत्रा भी सुप्रीम कोर्ट पहुंची थीं। विपक्षी पार्टियों ने पहले चुनाव आयोग के आगे गुहार लगाई। कामयाबी नहीं मिली।
इसके बाद वे सड़कों पर उतरे लेकिन फिर भी सरकार या चुनाव आयोग पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। विपक्ष की 10 पार्टियों ने याचिका दायर की थी। देश के सबसे अच्छे संवैधानिक जानकार वकील उनकी तरफ से लड़े लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इतना सब कुछ करने के बाद भी 2024 के जिस मतदाता सूची पर लोकसभा चुनाव हुआ था उसके आधार पर विधानसभा का चुनाव नहीं होगा। विधानसभा का चुनाव बिल्कुल नई मतदाता सूची के आधार पर होगा, जिसे अब चुनाव आयोग बनवा रहा है।
पर विपक्ष को चुनाव तो लड़ना है। इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के प्रति अपनी इस शिकायत के बावजूद कि मशीन हैक हो जाती है और उससे मतदान को प्रभावित किया जाता है। कहीं विपक्ष को लगता है कि फर्जी नाम जोड़े गए हैं तो कहीं लगता है कि जायज नाम काटे गए हैं। उनको चुनाव आयोग से समस्या है, जो सत्तापक्ष के नेताओं पर कार्रवाई नहीं करता है। मतदान के 48 घंटे बाद तक मतदान का आंकड़ा बढ़ाता रहता है और बाद में सीसीटीवी फुटेज भी उपलब्ध नहीं कराता है। विपक्ष को सरकार से शिकायत है कि वह धन बल या केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके उनकी पार्टियों को कमजोर करती है। इन तमाम शिकायतों के बावजूद विपक्ष को चुनाव लड़ना है। ऐसा नहीं हो सकता है कि वे चुनाव का बहिष्कार कर दें। क्या इसका यह मतलब है कि विपक्षी पार्टियों को अपने ही आरोपों पर संदेह है? दरअसल उनको यह भी लगता है कि वे चुनाव जीत भी सकते हैं, जैसे झारखंड में, कर्नाटक में या हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों में जीते थे।