यह बेचैन करने वाला है। पर ऐसा होना ही था!
डोनाल्ड ट्रंप को पसंद है सौदे और सौदेबाजी। उनका सिद्धांत, गठबंधन या विचारधारा से लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ सौदों की गंध और गूंज अच्छी लगती है। वे सौदों से ही फले-फूले हैं, और अब अमेरिका को भी उन्ही से फिर महान बनाने की योजना है। सारा दारोमदार सौदों और तमाशे के दम पर है। ऐसे सौदे जो उनके अहम को सहलाएं, बाज़ार को हिलाएं, और शायद, उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार भी दिला दें।
दूसरी ओर, पाकिस्तान के फील्ड मार्शल असीम मुनीर को भी सौदे चाहिए। वे इमरान ख़ान के पतन के बाद बिखरी राजनीति से सैन्य नियंत्रण वापस पाने की जद्दोजहद में हैं। घरेलू मोर्चे पर फौज की वैधता पर संकट गहरा रहा है। कर्ज़, जलवायु आपदाओं और आईएमएफ की निगरानी में जूझती अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए उन्हें आर्थिक मदद चाहिए—पर सिर्फ बेलआउट नहीं, प्रभाव चाहिए। ऐसे सौदे चाहिए जो भारत को बेचैन रखें, कश्मीर को उबाल पर, और पाकिस्तान को वैश्विक बातचीत में ज़िंदा। ऐसे में ट्रंप सिर्फ उपयोगी नहीं, प्रासंगिकता के लिए सबसे मुफ़ीद इलाज बन जाते हैं।
इन दोनों के बीच की निकटता किसी साझा दृष्टिकोण पर नहीं टिकी है—यह सुविधा की साझेदारी है। दोनों ही संस्थागत मर्यादाओं से चिढ़ते हैं, शॉर्टकट्स को पसंद करते हैं, और संकट को तमाशा बनाने की कला में माहिर हैं। यह विचारधारा की नहीं, आत्ममोह और अस्तित्व की साझेदारी है।
तो हाँ, ट्रंप और मुनीर की बढ़ती नज़दीकी भारत के लिए चिंताजनक है। लेकिन यह वो मेल है जो होना ही था—अब नहीं तो बाद में।
और साफ़ समझ लें: डोनाल्ड ट्रंप अब मोदी और उनके लोगों से खफ़ा हैं। और अगर यह सुनकर आपको हैरानी होती है, तो शायद आपने ट्रंप की शख्शियत को समझा ही नहीं, जो विदेश नीति को नक्शा नहीं, आईना मानता है। वह कूटनीति नहीं करता, प्रशंसा चाहता है। सहयोगी नहीं, प्रशंसक चाहिए। उनका विश्वदृष्टिकोण ऑप्टिक्स, तालियों और उन क्षणों पर चलता है जो नोबेल पुरस्कार की गूंज बन सकें। हर हाथ मिलाने के बाद वे खड़ा होकर तालियों की उम्मीद करते है—और जब वह नही मिले, तो वे रूठते है, और फिर चोट करते है।
जब 2020 में अहमदाबाद में “नमस्ते ट्रंप” जैसा तमाशा हुआ तो ट्रंप झूम उठे। उन्होंने भारत की मोहब्बत को खुले दिल से अपनाया और बदले में अपनी ‘चार्म’ चलाई—जब तक व्हाइट हाउस का दरवाज़ा उनके लिए बंद नहीं हुआ। बाइडन के आने के बाद भारत ने अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता पर ज़ोर दिया पर वॉशिंगटन की नई भाषा को अपनाया, और हर मुद्दे—टैरिफ से लेकर यूक्रेन तक—पर अपनी ज़मीन पर डटा रहा। लेकिन ट्रंप की अनदेखी की। ट्रंप को बुरा लगा। जो वफ़ादारी को तमाशे से जोड़ते है, उनके लिए यह बदलाव असहज था।
लेकिन असली मोड़ वह खामोशी बनी, जो भारत में शायद ख़बर भी नहीं बनी। अपने लोकसभा भाषण में मोदी ने ट्रंप की ‘बैकचैनल डिप्लोमेसी’—जिसके तहत भारत-पाकिस्तान सीज़फायर तय हुआ—का ज़िक्र तक नहीं किया। ट्रंप के लिए यह अनदेखी नहीं बल्कि अपमान था। अब एक ओर वो नेता है जिसे ताकतवर दिखना है ताकि चुनाव जीते, दूसरी ओर ट्रंप है जिसे दुनिया में ‘शांति दूत’ के रूप में जाना जाना है। नोबेल, ट्रंप के लिए सिर्फ विरासत नहीं, बदला भी है—उन अभिजात्यों से जिन्होंने पहले उन्हें नामांकित तक नहीं किया। और मोदी? ट्रंप की नज़र में उन्होंने रास्ता रोक दिया।
तो ट्रंप जवाब कैसे देते हैं? जहाँ तालियाँ नहीं मिलतीं, वहाँ टैरिफ ले आते हैं। उनके लिए व्यापार नीति नहीं, बदला है—जो नीति की शक्ल में पेश किया जाता है।
अब ट्रंप भारत को उस उभरते साझेदार के रूप में नहीं देखते, जैसा उन्होंने कभी चाहा था। भारत ने ज़्यादा हथियार नहीं खरीदे, ट्रंप की विदेश नीति का समर्थन नहीं किया, चीन और रूस पर उनकी लाइन नहीं दोहराई। उससे भी बुरा—भारत ने उन्हें ‘एक और अमेरिकी राष्ट्रपति’ की तरह ट्रीट किया, न कि उस तमाशे की तरह जो ट्रंप खुद को मानते हैं।
तो हाँ, ट्रंप भारत से नाराज़ हैं—नीति के कारण नहीं, अभिमान के कारण।
पाकिस्तान? वह खेल खेलना जानता है। सीज़फायर के तुरंत बाद मुनीर ने वो किया जो ट्रंप को सबसे ज़्यादा पसंद है—खुले आम प्रशंसा। न सिर्फ औपचारिक, बल्कि ऐसे बयान दिए जिनमें ट्रंप को शांति का वास्तुकार बताया गया। नोबेल के योग्य तक बता डाला। ट्रंप के लिए यह महज़ तारीफ नहीं, पुनर्स्थापना थी। कहानी में उनका नाम लौटा, अहम फिर से चमका। और ट्रंप ने बदले में वही किया—प्यार लौटाया।
इस गर्माहट के पीछे रणनीति कम, स्वाभाविक आकर्षण ज़्यादा है। ट्रंप को ‘स्ट्रॉन्गमैन’ पसंद हैं। कभी मोदी उस छवि में फिट बैठते थे—निर्णायक, लोकप्रिय, तमाशाई। लेकिन कुछ बदला। शायद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद की चुप्पी, या मोदी का ट्रंप की नोबेल स्क्रिप्ट में सहायक की भूमिका निभाने से इंकार। जो भी हो, ट्रंप अब मोदी को दक्षिण एशिया के ‘अल्फ़ा’ नहीं मानते।
उनकी जगह ली मुनीर ने ले ली है। पाकिस्तान के इतिहास में सिर्फ दूसरे फील्ड मार्शल बने मुनीर—पहले थे अयूब ख़ान। एक प्रतीकात्मक ताकत। ISIS जैसे संगठनों के खिलाफ़ ऑपरेशन की सख़्ती ने भी उनका कद बढ़ाया। पर्दे के पीछे से शासन करने वाली इस छवि में, वर्दी और रहस्य के साथ, मुनीर ट्रंप के ‘आदर्श मजबूत नेता’ की कल्पना में पूरी तरह फिट बैठते हैं।
इसी कारण वॉशिंगटन में मुनीर को लाल कालीन सा स्वागत मिला। यूएस सेंट्रल कमांड पहले ही संकेत दे चुकी थी कि अमेरिका अपने रणनीतिक समीकरण में बदलाव कर रहा है।
मुनीर ने पाकिस्तान को अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीति में एक संभावना के रूप में पेश किया है—अरब-इज़रायल सामान्यीकरण हो या ईरान पर वार्ताएँ। पाकिस्तान की 900 किलोमीटर लंबी सीमा उसकी भू-राजनीतिक उपयोगिता बढ़ा रही है। इज़रायल जहां अमेरिका की सैन्य साझेदारी चाहता है, वहीं कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका मुनीर से लॉजिस्टिक या सर्विलांस समर्थन के संकेत तलाश रहा है। और पाकिस्तान, उस राज्य की तरह पेश हो रहा है जिसे कोई नैतिक आग्रह परेशान नहीं करता। मानवाधिकार, प्रेस की आज़ादी, लोकतांत्रिक दिखावा—इन सबका कोई झंझट नहीं। ट्रंप के लिए यह सब आदर्श है।
ट्रंप, पाकिस्तान के लिए एक दुर्लभ अमेरिकी नेता हैं—जिन्हें चापलूसी से मनाया जा सकता है, इशारों से झुकाया जा सकता है, और बिना टकराव के लॉबी किया जा सकता है। अमेरिकी अधिकारियों ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रम पर आलोचना कम कर दी है। कुछ सैन्य सहायता—आर्मर्ड व्हीकल्स, नाइट विज़न उपकरण—विचाराधीन हैं। अमेरिका, पाकिस्तान के उन दावों की भी समीक्षा कर रहा है जिनमें भारत पर विद्रोहियों को समर्थन देने का आरोप है—हालांकि अब तक वे संतुष्ट नहीं हैं।
पाकिस्तान यह भी चाहता है कि ट्रंप फिर से कश्मीर का मुद्दा उठाएं—सहानुभूति में नहीं, तमाशे के लिए। पिछली बार उनके ‘मध्यस्थता’ के प्रस्तावों को गंभीरता से नहीं लिया गया, लेकिन दिल्ली हिल गई थी। पाकिस्तान के लिए, इतना ही काफ़ी है।
मोदी के भारत के लिए, यह ‘ब्रदरहुड’ महँगा साबित हो सकता है। यह शीत युद्ध की पुरानी यादें जगाता है—1971 की, 9/11 के बाद की, जब पाकिस्तान अमेरिका का फ्रंटलाइन सहयोगी था, जबकि आतंक भारत में फैलता रहा।
लेकिन इस बार दांव और बड़े हैं। पाकिस्तान सिर्फ हथियार नहीं, दो सबसे अस्थिर और मुनाफ़े वाले क्षेत्रों—क्रिप्टोकरेंसी और क्रिटिकल मिनरल्स—में अमेरिकी निवेश भी चाहता है। मुनीर सिर्फ भू-राजनीति नहीं खेल रहे—वो बिजनेस ऑफर कर रहे हैं।
पर यह गठजोड़ भी जोखिम से भरा है। ट्रंप की वफ़ादारी क्षणिक है—उनकी प्रशंसा कभी भी एक ट्वीट में सज़ा में बदल सकती है। पाकिस्तान भी अक्सर अपनी भूमिका को ज़रूरत से ज़्यादा आंकता है—ऑप्टिक्स को गहराई समझने की भूल करता है।
इसीलिए यह सिर्फ सुविधाजनक मेल नहीं—यह एक धीमा संकट है, जो दोस्ती के तमाशे की शक्ल में सामने है। और भारत के लिए, इस रंगमंच की पहली पंक्ति में बैठना शायद सबसे असुरक्षित जगह है।