विडंबना है कि अफ़ग़ानिस्तान ने 15 अगस्त को जब स्वतंत्रता दिवस मनाया, तो गुलाब की पंखुड़ियाँ उन मर्दों पर बरसीं जिन्होंने आधे देश को पिंजरे में कैद कर रखा है। तालिबान का शासन अब दूसरे दौर के पाँचवें साल में दाख़िल है। इन पांच वर्षों में कुछ बदला नहीं। वह दुनिया का इकलौता देश है जहाँ सत्ता पूरी तरह मर्दों के हाथ में है और औरतों को न केवल घरों में, पर्दे में जकड़ दिया है बल्कि उन्हें ग़ैर-ज़रूरी बना दिया है।
इक्कीसवीं सदी में भला कौन सोच सकता था कि पृथ्वी पर एक ऐसा राष्ट्र भी होगा जो आधी आबादी को बंद कर दे, औरतों को अदृश्य बना दे और उनकी अहमियत केवल बच्चों को जन्म देने में सीमित हो। यों दुनिया ने तालिबान को कूटनीतिक अछूत बना रखा है तब तक जब तक वे औरतों के प्रति अपना रवैया नहीं बदलें और अपने सर्व-मर्दाना पश्तून कैबिनेट को समावेशी नहीं बनाए। पर कोई फर्क नहीं पड़ा।। अफगान लड़कियों के लिए सेकेंडरी स्कूल के दरवाज़े बंद हैं। औरतें एनजीओ में काम नहीं कर सकतीं, पार्कों में नहीं जा सकतीं। स्वतंत्रता दिवस पर जिन छह जगहों पर “फ़ूल बरसाए” गए, उनमें से तीन पर औरतों की एंट्री मना थी।
काबुल में वह इस्लामी पुलिस सख़्ती से गश्त करती है जो नजर रखती है कि औरतें नक़ाब में हैं या नहीं? उनके साथ कोई पुरुष रिश्तेदार है या नहीं? शहर की कुछ बची हुई महिला एक्टिविस्टों में से एक ने साफ़ कहा: अफ़ग़ान औरतों की ज़िंदगी अब अनुमतियों की सीरिज में सिमट चुकी है। हर अनुमति मर्दों के हाथ में है। तालिबान को उनकी इसी हक़ीक़त के लिए सज़ा भी मिली है। वे प्रतिबंधित है, तिरस्कृत है और दुनिया में मान्यता से वंचित है।
बावजूद इसके दुनिया उनके साथ जीना सीख रही है। आक्रोश की जगह चुपचाप स्वीकार्यता ने ले ली है—मानो अफ़ग़ानिस्तान की तक़दीर अटल हो, और उसकी औरतें बलिदान योग्य। बड़े संकट और जगह हैं, ध्यान वहीं जा रहा है। नतीजा यह है कि वे ही देहाती मुल्ला जिन्हें कभी कलाश्निकोव लहराते जंगली कट्टरपंथी कहा गया, अब सिले-सिलाए पगड़ियों में चतुर कूटनीतिज्ञ बनकर लौटे हैं। उन्होंने दुनिया को अफ़ग़ानिस्तान बेचा है। उसके खनिज, उसके भूगोल, उसकी “स्थिरता” की संभावना के सौदे में आधी आबादी को ताले में रखे रखने का पक्का बंदोबस्त हो रहा है।
तालिबान को मान्यता मिलने लगी है। 15 अगस्त को पंखुड़ियों की बारिश से एक महीना पहले रूस पहला देश बना जिसने उसे आधिकारिक मान्यता दी। मास्को में “इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान” का झंडा फहराया गया। तालिबान ने 20 अगस्त को चीन और पाकिस्तान के साथ त्रिपक्षीय बैठक आयोजित की। 2024 में संयुक्त अरब अमीरात ने तालिबानी राजदूत स्वीकार किया, फिर जनवरी में चीन ने। अब कम से कम 15 देशों के राजदूत काबुल में हैं, अधिकतर क्षेत्रीय। कारोबार भी बढ़ रहा है—चीन, तुर्की और ईरान की कंपनियाँ सौदे कर रही हैं।
और फिर है प्रवासन संकट—जो अब सौदेबाज़ी का औज़ार है। समय के साथ हज़ारों अफ़ग़ान पड़ोसी और विकसित देशों में अवैध रूप से चले गए थे। 2023 में पाकिस्तान ने न केवल बिना पंजीकरण वाले अफ़ग़ानों को, बल्कि दस्तावेज़ रखने वालों को भी निकालना शुरू किया। अमेरिका ने हज़ारों अफ़ग़ानों से अस्थायी दर्जा छीन लिया। जर्मनी निर्वासन में तालिबानी राजनयिकों के साथ समन्वय कर रहा है। ताजिकिस्तान ने अफ़ग़ानों को देश छोड़ने का आदेश दिया है। और एक राजनयिक के शब्दों में: “तालिबान पश्चिम को शरणार्थी संकट का हल मुफ़्त में नहीं देगा।”
भारत भी तालिबान के साथ सावधानी से चल रहा है—संवाद है, पर समर्थन नहीं। नई दिल्ली ने काबुल में तकनीकी मिशन फिर से खोला, खाद्यान्न और दवाएँ भेजीं, अटारी और चाबहार से अफ़ग़ान व्यापार की अनुमति दी। मई 2025 में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तालिबान से पहली औपचारिक वार्ता की। मतलब व्यावहारिकता का संकेत। पर भारत अब भी औपचारिक मान्यता नहीं देता, वैश्विक सहमति के साथ खड़ा है और वह अपनी सुरक्षा की पहले चिंता करता हुआ है।
अमेरिका भी—जो कभी तालिबान का सबसे कट्टर विरोधी था—अब चुपचाप चैनल खुले रखे हुए है। क़तर में साप्ताहिक बैठकें होती रहती है। आतंकवाद और नशीले पदार्थों को लेकर। हालाँकि राजनीतिक दबाव में वे भी अटक गईं है। पश्चिमी सरकारें भाषा व लहजे में कठोर हैं, पर व्यवहार में संतुलन साधे रहती हैं।
तालिबान का असली विरोधाभास यही है: उनकी ताक़त। 2021 में लगा था कि अर्थव्यवस्था में गिरावट से उनकी पकड़ ढह जाएगी। लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार घटाया, पोस्ता की खेती पर रोक लगाई और पूरे देश पर नियंत्रण मज़बूत किया। कोई विश्वसनीय विपक्ष नहीं—न भीतर, न बाहर। तालिबानी अब इतने आश्वस्त हैं कि सुरक्षा बल भी घटाने लगे हैं ताकि पैसे बचें। यह वही आंदोलन है जिसने बीस साल तक दुनिया की सबसे ताक़तवर सेना से लड़ा और बचा रहा, और अब उतनी ही आसानी से कूटनीति में भी टिक गया है। यही वह सवाल है जिससे दुनिया आँख चुरा रही है। जब सत्ता इतनी सुरक्षित है, तो क्यों वह औरतों के अधिकार या मानवाधिकारों की परवाह करे? और नारीवादी नारे, वैश्विक घोषणाओं, एनजीओ या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर महिला नेता इतनी ताक़तवर तो नहीं हैं जो अफ़ग़ान मर्दों के सामने अपनी माँ-बहनों के लिए खड़ी हो सकें?
यों हालात बिगड़ भी सकते हैं। ट्रंप की मानवीय मदद में कटौती, ईरान का शरणार्थियों पर दबाव, सूखे की मार आदि से। लेकिन दुनिया नज़रें फेरे हुए है।