सीधी बात पर आते हैं। भारत के डॉग–लवर्स मातम में हैं। टूटे हुए, बिखरे हुए, जैसे सरकार उनके ड्रॉइंग रूम से ‘ब्रूनो’ को सोफ़े से उठा ले गई हो। टीवी पर रोना, सड़कों पर जाम, मुख्य न्यायाधीश तक अर्जी — वह भी दो बार, क्योंकि 1.4 अरब की आबादी वाले इस मुल्क में, यही है इमरजेंसी।
उधर असली भारत में — बादाम लट्टे वाले कैफ़े और ट्विटर की दुनिया से बाहर — लोग थोड़ी ज़्यादा गंभीर चीज़ों से जूझ रहे हैं। कोई डेंगू से बच रहा है, कोई मैनहोल से, कोई अपनी जर्जर छत के अगली बारिश में न गिर जाने की दुआ कर रहा है। इस दिवाली ज़रूरी सामान पर जीएसटी 12 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो जाएगा। लेकिन किसे फ़र्क पड़ता है? जब तक कुत्ते सुरक्षित हैं, देश खून बहा ले।
सो आज सर्वोपरी चिंता है कुत्तों को की!
यहां तक कि बॉलीवुड का पालतू–पागल तबका भी इस आंदोलन में वैसे ही कूद पड़ा है जैसे ‘कान्स’ फ़ोटो कॉल में कूदता है। दिल्ली का स्कॉच पीता इंटेलिज़ेंसिया, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बैठकर एप्पल पाई के साथ गुस्से भरे लेख लिख रहा है। यही है अब उनकी लड़ाई। गली का कुत्ता आज भारत का नया नैतिक कम्पास है — बाक़ी कम्पास भले ही चौपट हो चुके हो, एक ऐसे देश में जहां गवर्नेंस मिथक है, क़ानून मज़ाक, और रोज़मर्रा ज़िंदगी बस जुगाड़।
और यह है असली विडंबना: जिन लोगों को गली के कुत्ते उठाए जाने का ग़म खाए जा रहा है, वे आराम से लंदन और न्यूयॉर्क में रहते हैं — जहां सड़कें साफ़ हैं, कुत्ते बंधे, लाइसेंसशुदा और उनके पीछे सफ़ाई अनिवार्य है। वहां कोई नहीं चिल्लाता है कि “सड़क पर रहने का अधिकार” चाहिए। पश्चिम में नियम पवित्र हैं, जबकि भारत में वह उत्पीड़न। यहां सुप्रीम कोर्ट की आठ हफ़्ते की डेडलाइन प्रलय हो जाती है। सुधार की मांग नहीं, बस पूरे आदेश को रद्द करने का हंगामा। सवाल है टूटी सड़कों पर भटकते कुत्तों को भला कब से संवैधानिक अधिकार, सांस्कृतिक धरोहर या नैतिक श्रेष्ठता का तमगा मिल गया?
साफ़ कर लें — कोर्ट ने यह नहीं कहा कि “कुत्तों को मारो।” कहा यह था कि सड़कों से हटाओ, शेल्टर में रखो, व्यवस्था बनाओ। लेकिन यह बहुत बड़ी मांग है। आप अराजकता का महिमामंडन करना पसंद करेंगे, लेकिन ज़रा भी नागरिक अनुशासन गले नहीं उतरेगा। और फिर वही रट — भारत तानाशाही में फिसल रहा है, संस्थान ढह रहे हैं, लोकतंत्र मर रहा है, देश रहने लायक नहीं बचा। मगर एक बार तो न्यायपालिका ने आम आदमी की सोची — उस मज़दूर की बच्ची के बारे में जो अकेले घर लौटते वक़्त झुंडों से घिरी होती है, उस ठेले वाले के बारे में जो रोज़ गली के कुत्तों से जूझता है, उस दिहाड़ी मज़दूर के बारे में जो कुत्ते के काटने का इलाज भी नहीं करवा सकता। अदालत ने आँकड़े देखे, ख़तरे तौले और एक ग़लत को सही करने की कोशिश की। लेकिन आपको इससे भी ऐतराज़ है।
और यह घबराहट क्यों? अचानक रेबीज़ महामारी का डर क्यों, अगर कुत्तों को उठाया गया तो? क्या विज्ञान रातोंरात बदल गया? होना तो यह चाहिए कि आप एक मुकम्मल व्यवस्था मांगते — कामयाब शेल्टर, बेदाग़ लागू करने वाला सिस्टम। लेकिन नहीं। सोशल मीडिया पर मैंने एक महिला का वीडियो देखा — आसमान टूट पड़ा हो जैसे, वह हांफते–रोते कह रही थी: “अगर वे मेरे बच्चे ले गए तो मैं मर जाऊंगी।”
उनके ‘बच्चे’ गली के कुत्ते थे और अगर वे बच्चे हैं, तो ट्रैफ़िक में भटकते और कूड़े में खाना खोजते क्यों छोड़े गए? एक और क्लिप में कुत्तों को बच्चों की तरह गोद में लेकर नारे लग रहे थे: “यह मेरा अधिकार है सड़क पर जीने का!” माफ़ कीजिए, सड़क पर जीना किसी का अधिकार नहीं है — न कुत्तों का, न गायों का, न बंदरों का, और न ही इंसानों का। लेकिन हमारी अभिजात्य बिरादरी असली शेल्टर बनाने या नगरपालिका की क्षमता सुधारने से ज़्यादा नैतिक नाटक पसंद करती है। और उससे भी बदतर — वे उस छोटे लड़के पर एक आंसू नहीं बहाते जो साइकिल चलाने निकला और घर लौटकर नहीं आया। गली के कुत्तों के झुंड ने उसे नोच–नोच कर मार डाला। उसका छोटा शरीर उन दांतों से फाड़ा गया जिन्हें देखने तक से आप इंकार करते हैं।
आप — अमीर, वोक, भौकाली, तृप्त — जिनके पास डिग्रियां हैं, अनुभव है, दिमाग़ है। जब कोर्ट अराजकता में थोड़ा सा भी अनुशासन लाने की कोशिश करती है, तो चिल्लाइए मत। दान अभियान कीजिए, नीति सुझाव दीजिए। रोने की कहानियां और ऑनलाइन पेटीशन मत चलाइए। आपको लगता है न्यूयॉर्क टाइम्स आपके साथ खड़ा है। उनके न्यूज़रूम में वे सिर हिला रहे हैं, या शायद हंस रहे हैं। आपने अपने देश कों देश को ही एक व्यंग्य बना दिया है।
मैंने उसी दिन कहा था जब आदेश आया: समस्या कुत्ते नहीं हैं — हम हैं। और वही अब एक्टिविस्ट, आवारा पशुओं के प्रेमी इसे साबित कर दे रहे हैं।
कुछ तो समझदारी दिखाइए। अब बड़े हो जाइए! सडक पर उन मुद्दों पर बाहर निकलिए जो सच में मायने रखते हैं। पहली बार सरकार ने ऐसा क़दम उठाया है जिसमें जनता की भलाई को अभिजात्य संवेदनाओं से ऊपर रखा गया। ताली बजाइए। आपने प्राग की व्यवस्था देखी है, टोक्यो की सफ़ाई पर वाहवाही की है। क्यों न यहां चाहें? क्यों न दिल्ली को बेहतर, मुंबई को सुरक्षित बनाएं — जहां कुत्तों के काटने के मामले सबसे ज़्यादा हैं? हर बार जब उस दिशा में एक छोटा क़दम उठता है, आप ताली बजाने के बजाय मुंह फुलाते हैं, तंज कसते हैं, या फिर टिकट बुक करके विदेश भागते हैं — उसी विफलता से बचने, जिसे सुधारने से आप इंकार करते हैं।
जबकि असख्य असली संकटों में हम-आप और देश है — महंगाई, बेरोज़गारी, जलवायु संकट। लेकिन आप इनके लिए खड़े नहीं होंगे। और अगर सही वक़्त पर सही मुद्दे पर खड़े नहीं हो सकते, तो उस बदलाव की उम्मीद छोड़ दीजिए जिसकी इस देश को ज़रूरत है। आपका नैतिक आक्रोश अब सिर्फ है क्या इंस्टाग्राम रील्स पर कुत्तों के आंसुओं के लिए।
तो सवाल वही — देश जा कहां रहा है?
कहीं नहीं — अगर यही हमारी लड़ाई है। और अगर इस देश का पढ़ा–लिखा तबका सिर्फ़ आवारा कुत्तों के लिए उठ खड़ा हो सकता है, जबकि बाक़ी सबकुछ खुद कुत्तों के हवाले हो चुका है, तो शायद, सचमुच, हमें भी उनके साथ ही जाना चाहिए।