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तालिबानी अब हमारे सखा है!

कुछ दिनों से भारत में एक ही ख़बर है! और वह एक  तालिबानी के दौरे की है। बाक़ी सब कुछ, चाहे बिहार चुनाव हो, सीट बँटवारे की जोड़-बाकि, या ग़ाज़ा में युद्धविराम की खबर, सब साइडलाइन पर खिसक गए हैं। दिल्ली का फोकस केवल तालिबान पर केंद्रित है। और यह सिर्फ़ जिज्ञासा नहीं है। हाँ, उन्हें चलते, बोलते, कैमरे के सामने सहज होते देखना एक तमाशे जैसा है, लेकिन तालिबान प्रतिनिधिमंडल खुद भी जानता है कि यह ध्यान उनके काम आता है। भारत में यह उनका मौका है — दिखने, सुने जाने और शायद थोड़ा घूमने-फिरने का भी।

इस पूरे सप्ताह के नज़ारे के केंद्र में हैं आमिर ख़ान मुत्ताक़ी,  तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री। वही मुत्ताक़ी जिनकी यात्रा पर अब भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव 1988 के तहत आंतकी के नाते पाबंदी है, वे अब दिल्ली के झूमरों के नीचे तस्वीरें खिंचवा रहे हैं। यह उनकी भारत की पहली आधिकारिक यात्रा है, लेकिन 2021 में पद संभालने के बाद उनकी दसवीं विदेश यात्रा। उनमें से पाँच क़तर, तीन पाकिस्तान, और दो-दो चीन, ईरान और तुर्की के लिए थीं। अब दिल्ली भी उस सूची में शामिल हो गया है। और दिल्ली से उनका जुड़ना प्रतीकात्मक से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

10 अक्टूबर को मुत्ताक़ी ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाक़ात की, भारत द्वारा अफ़ग़ानिस्तान भेजी जा रही एम्बुलेंसों के साथ तस्वीरें खिंचवाईं, और काबुल में भारतीय दूतावास फिर से खोलने पर चर्चा की जो चार साल पहले तालिबान की सत्ता वापसी के बाद बंद कर दिया गया था। मुत्ताक़ी के मुँह से “अच्छे दोस्त” और जयशंकर के बयान में “करीबी सहयोग” जैसे शब्द दर्शाते हैं कि भारत की नीति में यह बदलाव संयोग नहीं, सुविचारित है।

चार साल पहले तक यह सब असंभव लगता था।

2021 में जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी की समयसीमा तय की, तो दिल्ली स्तब्ध थी।

15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्ज़े ने भारत को रातों-रात दूतावास और वाणिज्य दूतावास बंद करने पर मजबूर कर दिया।

हज़ारों अफ़ग़ान छात्र, व्यापारी और मरीज़ अचानक फँस गए। भारत ने एक झटके में लगभग सभी वीज़ा रद्द कर दिए। वह क्लिक आतंक और पलायन दोनों का प्रतीक था।

लेकिन कूटनीति, जैसे शक्ति, खालीपन को बर्दाश्त नहीं करती। सिर्फ़ एक साल में भारत ने फिर से संतुलन साधना शुरू किया।

जून 2022 में एक “तकनीकी दल” चुपचाप काबुल भेजा गया ताकि मानवीय सहायता की निगरानी कर सके।

2023 के अंत तक तालिबान अधिकारियों को भारतीय वीज़ा मिलने लगे, दिल्ली में उनके प्रतिनिधि नियुक्त हुए और मुंबई व हैदराबाद में वाणिज्य दूतावास खुले। जो संपर्क “मानवीय” कहलाया था, वह धीरे-धीरे औपचारिक संवाद में बदल गया। यह परोपकार नहीं, रणनीतिक समायोजन था — यह स्वीकारोक्ति कि तालिबान कोई गुजरती लहर नहीं बल्कि इस क्षेत्र की नई और स्थायी वास्तविकता है। और अगर दिल्ली पीछे रहती, तो चीन, ईरान और रूस अफ़ग़ानिस्तान के अगले अध्याय को उसके बिना लिख देते।

यहाँ एक गहरी विडंबना भी है।  एक हिंदू राष्ट्रवादी सरकार, जो अपने भीतर सभ्यतागत विमर्श और इस्लाम के प्रति अविश्वास पर टिकी है, अब अपने पड़ोस में एक इस्लामी थियोक्रेसी के साथ बैठी है। जिस नेतृत्व की वैचारिक पहचान भीतर “विरोध” पर टिकी है, उसके लिए तालिबान का दिल्ली में स्वागत एक साथ विरोधाभास भी है और व्यावहारिकता भी। क्योंकि विदेश नीति शायद ही कभी घरेलू राजनीति की परछाई होती है।

भारत इस समय जिस नीति का अभ्यास कर रहा है, वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों की क्लासिक यथार्थवादी धारा है — रियलिज़्म — जिसे हांस मॉर्गेन्थाउ और केनेथ वाल्ट्ज ने परिभाषित किया था: राष्ट्र आदर्शों से नहीं, हितों से चलते हैं। इस दुनिया में न स्थायी दोस्त होते हैं, न स्थायी दुश्मन — सिर्फ़ स्थायी बेचैनियाँ। भले ही भाजपा की सांस्कृतिक राजनीति धार्मिक द्वंद्व पर चलती है, उसकी विदेश नीति इन सीमाओं से काफ़ी आगे निकल चुकी है।

यह “ऑफ़ेंसिव रियलिज़्म” है — सिद्धांतों से ऊपर शक्ति, निष्ठा से ऊपर लाभ। तालिबान के साथ संवाद और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैन्य वापसी के ख़िलाफ़ भारत का अप्रत्यक्ष रुख़, उसे रूस, ईरान और चीन द्वारा परिभाषित “महाद्वीपीय सहमति” के निकट ला रहा है — वह क्षेत्रीय यथार्थवाद जो अमेरिका-उत्तर युग का चेहरा बन रहा है।

इसकी तुलना अतीत से करें। 2001 के बाद दो दशकों तक भारत की अफ़ग़ान नीति लगभग पूरी तरह वॉशिंगटन के अनुरूप रही।

तालिबान को पाकिस्तान की परियोजना माना गया — आईएसआई की उपज, वैचारिक रूप से कट्टर, और दिल्ली के लिए यादगार एक प्रतीक — आईसी-814 अपहरण और भारतीय इंजीनियरों की हत्या। वह संरेखण स्वाभाविक था, आवश्यक भी। पर भू-राजनीति भी स्मृति की तरह क्षणिक होती है। आज वही शक्तियाँ जो कभी तालिबान से लड़ीं, उन्हें अपने उपयोग के योग्य पा रही हैं। मॉस्को में पिछले सप्ताह मुत्ताक़ी ने चेताया कि आईएसआईएस-ख़ुरासान का दायरा बढ़ रहा है — एक तालिबान मंत्री अब आतंकवाद-रोधी भाषा बोल रहा है। यह एक असाधारण उलटफेर है, पर अनिवार्य भी।

यह पाखंड नहीं, विकास है — वह कंस्ट्रक्टिविस्ट यथार्थ, जिसमें राज्य नैतिकता से नहीं, परिस्थितियों से ढलते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अब उसी शासन से वार्ता कर रहा है जिसे कभी उसने कोसा था — क्योंकि दोनों के नीचे की ज़मीन बदल चुकी है। अफ़ग़ानिस्तान अब अमेरिका के नैतिक युद्धों का मंच नहीं; यह यूरेशियाई यथार्थवाद की सीमा रेखा है। आईएसआईएस-के के हमलों ने अफ़ग़ानिस्तान से ईरान और रूस तक नई दरारें खींच दी हैं। यहाँ तक कि चीन भी शिनजियांग में इसके फैलाव से चिंतित है। इस परिदृश्य में तालिबान — निर्दयी पर स्थिर — “अराजकता से बेहतर” विकल्प बन गए हैं, एक बफ़र जो अराजकता को थामे हुए है। रूस, ईरान और मध्य एशियाई देशों के लिए तालिबान से संवाद सुरक्षा आवश्यकता बन चुका है।

भारत के लिए यह रणनीतिक विवशता है। उसकी प्राथमिक चिंता वही है — अफ़ग़ान ज़मीन भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल न हो। मुत्ताक़ी ने दिल्ली की इन संवेदनाओं को समझते हुए यही आश्वासन दोहराया है।

पर भारत की दिलचस्पी सुरक्षा से आगे जाती है — वह पश्चिम एशिया के उन परिवहन मार्गों में अपना पैर जमाए रखना चाहता है जो चीन की बेल्ट एंड रोड पहल और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के संतुलन हैं — ईरान का चाबहार बंदरगाह और इंटरनेशनल नॉर्थ–साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर। काबुल के साथ संवाद इस गणना में पूरी तरह फिट बैठता है — विवेक पर नहीं, उपस्थिति पर ज़ोर; नैतिकता पर नहीं, पहुँच पर निवेश।

फिर भी यह यथार्थवाद अपने भीतर असहजता रखता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अब एक ऐसे शासन का मेज़बान है जो महिलाओं को अदृश्य बना देता है। जब मुत्ताक़ी की प्रेस कॉन्फ़्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर रखा गया, तो कूटनीति और नैतिकता के बीच की खाई साफ़ दिखी।

लेकिन विदेश नीति सदाचार से नहीं, संतुलन से चलती है। भारत का यह नया संवाद तालिबान को वैधता नहीं देता — बस अलगाव की सीमाओं को स्वीकार करता है। पश्चिम अब भी दूरी बना रहा है, पर क्षेत्र आगे बढ़ चुका है। “लोकतंत्र बनाम आतंक” की रेखा अब “स्थिरता बनाम रिक्तता” के समीकरण में बदल चुकी है। विडंबना यह है कि बीस साल पहले भारत तालिबान को हराने के लिए अमेरिका के साथ खड़ा था;

आज वह रूस, ईरान और चीन के साथ बैठा है उन्हें “संभालने” के लिए। जो कभी विचारधारा था, अब भूगोल है।

दिल्ली में तालिबान की मौजूदगी अजीब लग सकती है, पर यह हमारे समय की सच्चाई को पकड़ती है, एक ऐसी दुनिया की, जो अब नैतिक युद्धों से थक चुकी है, जहाँ सीमाएँ विचार से नहीं, विवेक से खिंचती हैं। फिलहाल, दिल्ली और काबुल के रिश्ते भरोसे से नहीं, आवश्यकता से बंधे हैं।

यह समझौता कितना टिकेगा यह, हमेशा की तरह, इस पर निर्भर करेगा कि कौन तेज़ी से बदलता है, सही कौन है, इससे नहीं।

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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