nayaindia West Bengal Lok Sabha election कोलकाता इज़ डिफरेंट, वाकई चुनाव हो रहे हैं!

कोलकाता इज़ डिफरेंट, वाकई चुनाव हो रहे हैं!

कोलकाता। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में से एक है जहाँ अच्छी राजनीति होती है तो बुरी और खून-खराबे वाली भी। और कदाचित देश में ऐसा दूसरा राज्य भी नहीं है जहाँ दो पोपुलिस्ट नेता (ममता बनर्जी और नरेन्द्र मोदी) एक दूसरे के मुकाबिल हों।

कोलकाता से श्रुति व्यास

कोलकाता में आप इस मुकाबले की हलचल और शोर सुन तथा देख सकते हैं। शहर में हवा ठहरी हुई है, बेहद गर्म है और नमी के कारण चिपचिपी। कोलकाता में लगता है कि वाकई चुनाव हो रहे हैं। हर तरफ टीएमसी और भाजपा के पोस्टर और झंडे हैं। पोस्टरों में ममता गुस्से में दिखती हैं वही होर्डिंगों से झांक रहे मोदी के चेहरे पर सख्ती। बीच-बीच में औपनिवेशिक काल की काली पड़ चुकी इमारतों पर स्थानीय उम्मीदवारों के छोटे-छोटे पोस्टर चिपके हैं। मैं जिन अन्य राज्यों में गई हूँ, वहां लगा नहीं कि चुनाव हो रहे हैं। मगर कोलकाता इज़ डिफरेंट।

भाजपा की एक प्रचार गाड़ी मेरी कार की बगल से तेज़ी से गुज़रती है। ड्राईवर मुझे बताता हैं, “यह तो कुछ भी नहीं है। पहले तो पूरे शहर में इतने झंडे और पोस्टर होते थे कि किसी और चीज़ के लिए जगह ही नहीं बचती थी।” ड्राईवरबिहार से हैं। नाम महावीर है और वे 1977 में अपने “सपनों के शहर” कोलकाता आये थे। उस समय वे 23 साल के थे और तब से यहीं रह रहे हैं। उन्होंने कोलकाता को बदलते देखा है। मगर मुझे कोलकाता को ‘सपनों का शहर” कहना-सुनना अजीब-सा लगा।

हम पीली एम्बेसडर टैक्सीयों, नीले-सफ़ेद रंग की मेडिकल कॉलेज की इमारत, चौराहों, पुलों, जीर्ण-शीर्ण इमारतों और ब्रिटिश काल के मकानों के बीच से होते हुए चले जा रहे हैं। और महावीर अपनी जीवनयात्रा बताते हुए कहते हैं – किस तरह वे बदहाल और गरीब बिहार से कलकत्ता (उस समय शहर का यही नाम था) आये और कैसे उन्हें यह शहर आकर्षक लगा था, माना था यहशहर उनके सपनों को पूरा करेगा। उनकी मेहनत का वाजिब मुआवजा देगा। यह तब सपनों का शहर था, चमक-दमक भरा, ग्लैमरस – उसका संगीत, वहां बनने वाली फिल्में, वहां के उत्सव, वहां के लोग, वहां का खानपान। उन्हें लगा कि शहर उनके जैसे बाहरी लोगों को आगे बढ़ने का मौका देगा, काम देगा, पैसा देगा, सिर पर छत देगा और देगा एक सुनहरा भविष्य।

जब वे 35 साल के थे, तब उन्होंने कार चलाना सीखा। अब वे 70 के हैं, टैक्सी चलाते हैं और कोलकाता में अकेले रहते हैं। उन्होंने अपने दोनों लड़कों को बिहार के गया जिले के अपने पैतृक गाँव में भेज दिया है।

“आप वापस अपने घर क्यों नहीं गए?” मैंने पूछा।

पीले पड़ चुके चश्मे के भीतर से झांकती उनकी बूढ़ी और थकी आँखों ने जवाब तो दे ही दिया था मगर फिर भी उन्होंने शब्दों का सहारा लिया। “अब तो यही घर है।”

“आप के कोलकाता आने के बाद से यह शहर कितना बदला है?” मैंने जानना चाहा।

“बहुत”, उन्होंने तपाक से जवाब दिया। “अब यहाँ चौड़ी सडकें हैं, ऊंची बिल्डिंगें हैं, सफाई है…विकास हुआ है।”

मेरी निगाहें कार की खिड़की के कांच से बाहर विकास तलाशने लगीं।

रॉबर्ट क्लाइव ने एक समय कहा था कि “कलकत्ता दुनिया के सबसे अजब-गजब शहरों में से एक है। यहाँ का भुक्खड़पन और ऐश्वर्य दोनों कल्पना से परे हैं।”

कलकत्ता प्लेग की महामारियों, भुखमरी और घोर गरीबी वाला तब एक उदास शहर था। अंग्रेजों से मुक्ति के बाद वह दो दशक कांग्रेस, फिर मार्क्सवादियों और फिर ममता दीदी का गढ़ बना।

कलकत्ता के लिए रवाना होने के पहले मैंने मेरे एक बुजुर्ग और बहुत प्यारे अंकल से बात की थी। वे खालिस बंगाली हैं और उनमें वह सब कुछ है जो बंगाल की शान है। उनकी कही कई बातों में से एक मैं नहीं भूल पा रही हूँ। “पहले कोलकाता जाना ऐसा लगता था जैसे हम किसी कब्रिस्तान में जा रहे हों, डरावने दिनों और खौफनाक रातों के इलाके में, कूड़े के ढेर में। मगर अब कोलकाता जाना ऐसा लगता है मानों किसी शादी वाले घर में जाना। सब कुछ नया और चमकीला,” उन्होंने बताया था।

मैंने फिर कार की खिड़की से बाहर देखा। आसमान चूने लगा था। पानी की छोटी-छोटी बूँदें कांच पर छिटक रही थी। मैं ‘नया’ और ‘चमकीला’ कोलकाता तलाश रही थी। मुझे दिखीं काली पड़ चुकी इमारतों के बीच से गुज़रती चौड़ी सड़क। मैंने देखा एक शहर जो अपने अतीत का आकर्षण, उसकी समृद्धि खो चुका है और वर्तमान की दुर्दशा से समझौता कर चुका है। तब तक नमी खिड़की पार कर कार में घुसपैठ कर चुकी थी। एयर कंडीशनर जितना तेज चल सकता था, चल रहा था। मगर फिर भी मेरी कमीज़ मानों चिपक रही थी।

“इस पीली बिल्डिंग में राम मंदिर है,” महावीर ने मेरा सोचना रोका। उनकी आवाज़ में गर्व था।

इसके बाद महावीर से मेरी बातचीत ने सियासी रंग ले लिया। उन्हें ममता बनर्जी से ढेरों शिकायतें हैं। वे कहते हैं कि दीदी के तेरह साल लम्बे कार्यकाल में विकास कम हुआ है, गुंडागर्दी ज्यादा बढ़ी है।

बंगाल के लोगों ने दीदी को सत्ता इसलिए सौंपी थी ताकि उन्हें 34 साल के कम्युनिस्ट कुशासन से मुक्ति मिल सके। वे तब विकास की कछुआ गति से परेशान थे, चारों ओर पैर पसारे गरीबी से दुखी थे। मगर इन सालों में दीदी ने केवल इसलिए नाम कमाया क्योंकि वे न तो प्रदेश का विकास कर सकीं और न उसे समृद्ध बना सकीं।

चुनाव कवरेज के सिलसिले में मैं जब पुणे गयी थी तब मेरी मुलाकात पप्पू से हुई थी। वह बंगाली हैं और 21 साल की उम्र में कोलकाता छोड़ पुणे आ गया था। पुणे उसे पसंद था, इसल्कि क्यों पूणेने उसे काम दिया, आमदनी दी, बसेरा दिया और एक अच्छे भविष्य की दिलासा भी।

“आपने कोलकाता क्यों छोड़ा?” मैंने पूछा था।

उसकाजवाब था, “ज्योति बाबू के दौर में मैंने अपने पिता को गरीबी के दलदल में और गहरे धंसते देखा था। अब मैं कभी वापस नहीं जाऊंगा।”

उसके स्वर में गुस्सा और दुःख दोनों थे।

“क्या ममता दीदी अच्छी नहीं हैं?”

जवाब में उसने जो कहा उसमें भविष्य के प्रति आशंका और चिंता का भाव न पकड़ना असंभव था।

“कोलकाता में पहले से ही दो पीढियां बहुत कुछ भोग कर बर्बाद हो चुकी हैं। अगर वे रहीं, तो एक और पीढ़ी बर्बाद हो जाएगी।”

दिल्ली में मैंने पढ़ा था कि ममता सरकार मनमर्जी पर उतारू हो चुकी है। महावीर, जो बंगाली नहीं हैं, भी कहते हैं कि दीदी के पुलिसवाले सड़क पर गाड़ियों को रोक कर, छोटी-छोटी गलतियों के लिए भारी जुर्माना लगाते हैं।

पूणे गया पप्पू डर के इस माहौल से मुक्त हैं और उस गरीबी से भी, जिसे मौजूदा राज्य सरकार बनाए रखे है। मगर फिर मेरे घर पर खाना पकाने वाली महिला भी हैं जिनका परिवार अब भी बंगाल में रहता है। उनके लिए दीदी मसीहा हैं जिनकी आर्थिक मदद से वे अपने गाँव में अपना मकान बनवा सकीं हैं।

कोलकाता की रग-रग में राजनीति बह रही है – कम से कम बाहर से देखने पर तो ऐसा ही लगता है। लड़ाई भाजपा बनाम टीएमसी है और यह आप कोलकत्ता में साफ महसूस कर सकते हैं। राज्य तनाव और दुविधा में है, यह भी शीशे की तरह साफ़ है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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