तमिलनाडु के बिजली और आबकारी मंत्री सेंथिल बालाजी और वन मंत्री के पोनमुडी ने एमके स्टालिन की सरकार से इस्तीफा दे दिया है। उनकी जगह सोमवार की शाम को नए मंत्रियों को शपथ दिलाई गई। ऐसा नहीं है कि इन दोनों मंत्रियों को मुख्यमंत्री ने हटाया है। ऐसा भी नहीं है कि इन दोनों मंत्रियों ने खुद से इस्तीफा दिया है और ऐसा भी नहीं है कि किसी तरह की अयोग्यता की वजह से इनको इस्तीफा देना पड़ा है। इनको सुप्रीम कोर्ट ने मंत्री पद से हटवाया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने दो मंत्रियों को मजबूर किया कि वे पद से इस्तीफा दें।
देश की सर्वोच्च अदालत ने एक तरह से उनको धमकी दी कि इस्तीफा नहीं दिया तो जमानत रद्द कर देंगे और जेल भेज देंगे। सोचें, अदालत के इस फैसले पर और साथ ही तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मची हायतौबा से इसकी तुलना करें। देश के उप राष्ट्रपति से लेकर सांसद और कानून के तमाम कथित जानकारों ने हाहाकार मचा दिया कि सुप्रीम कोर्ट कैसे राज्यपाल को कह सकता है कि वह कोई विधेयक तीन साल नहीं लटकाए और तीन महीने में फैसला दे।
लेकिन उनमें से कोई यह सवाल नहीं पूछ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट किसी मंत्री को कैसे कह सकता है कि मंत्री पद छोड़े नहीं तो जमानत रद्द करके जेल भेज देंगे?
जैसे पिछले ही साल धन शोधन के मामले में जेल से छूटने के बाद हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे। सो, सेंथिल बालाजी मंत्री बन गए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट को यह बात नागवार गुजरी है। इसलिए उसने सेंथिल बालाजी को चेतावनी दी कि अगर उनको अपनी आजादी प्रिय है तो वे मंत्री पद से इस्तीफा दें। यह कितनी हैरान करने वाली बात है? जमानत उनका अधिकार था, जो उनको मिला और एक विधायक को मंत्री बनाना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, जिसके तहत स्टालिन ने उनको मंत्री बनाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनका इस्तीफा करा दिया। कार्यपालिका में काम में असली हस्तक्षेप यह है।
इसी तरह के पोनमुडी को धन शोधन और आय से अधिक संपत्ति के मामले में तीन साल की सजा हुई है। लेकिन सजा सुनाने के बाद हाई कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी ताकि वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने 11 मार्च को उनकी सजा पर रोक लगा दी। इसके बाद उनको फिर से मंत्री बना दिया गया। सवाल है कि जब सजा पर रोक लग गई तो फिर मंत्री बनने में क्या समस्या है? य़ह अलग बात है कि वे धार्मिक टिप्पणियों को लेकर भी विवादों में घिरे हैं, जिस पर हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेने की बात कही है।
लेकिन उनको इस्तीफा सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद देना पड़ा है। सोचें, किसी आरोपी या दागी व्यक्ति को मंत्रिमंडल में रखने का फैसला नैतिकता की कसौटी पर हो सकता है कि सही नहीं हो लेकिन अगर कानूनी और संवैधानिक रूप से सही है तो उसमें अदालत का दखल क्यों होना चाहिए?
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