हिंदी पट्टी के राज्यों में बिहार संभवतः एकमात्र राज्य है, जहां चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मुद्दा काम नहीं करता है। इसके ऐतिहासिक सामाजिक, आर्थिक कारण हैं। बिहार के मतदाताओं ने सिर्फ एक बार भाजपा को अकेले जीत दिलाई और वह चुनाव था 2014 का। लेकिन उसमें भी एक कारण यह था कि नीतीश कुमार अकेले लड़ रहे थे। तभी लालू प्रसाद की पार्टी और कांग्रेस मिल कर भाजपा को नहीं रोक पाए। परंतु भाजपा की वह जीत भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नतीजा नहीं था। वह कांग्रेस सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप और नरेंद्र मोदी की ओर से प्रचारित किए गए विकास के गुजरात मॉडल की जीत थी। उस चुनाव में अमित शाह प्रचार करने बिहार नहीं गए थे। उस समय वे उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव थे। लेकिन उसके तुरंत बाद वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उनकी कमान में 2015 का विधानसभा चुनाव बिहार में भाजपा लड़ी और बुरी तरह से हारी। अमित शाह ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने सभाओं में कहा कि भाजपा हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे, फिर भी बिहार के लोगों ने भाजपा को हरा दिया। भाजपा के साथ उस समय लड़े उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और रामविलास पासवान की पार्टियों का तो सफाया ही हो गया था।
उसके बाद भाजपा को सबक मिल गया और 2015 के बाद हुए तीन चुनावों में वह नीतीश कुमार के साथ ही लड़ी। उसके बाद दो लोकसभा चुनाव हुए और एक विधानसभा चुनाव हुआ और किसी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जरुरत नहीं पड़ी। नीतीश कुमार का नाम ही काफी था एनडीए की जीत सुनिश्चित करने के लिए। तभी हैरानी हो रही है कि 2025 के चुनाव में अमित शाह क्यों फिर 2015 वाले मॉडल पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास में लगे हैं? क्या इसका कारण यह है कि भाजपा इस बार नीतीश कुमार को किनारे करके अपने एजेंडे पर लड़ना चाहती है ताकि चुनाव के बाद वह नीतीश और जदयू के मुख्यमंत्री पद के दावे को खारिज कर सके? ध्यान रहे इस बार भाजपा ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं घोषित नहीं किया है।
नीतीश कुमार का नाम नहीं घोषित करने का एनडीए को नुकसान हो सकता है। ऐसा लग रहा है कि उस नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एजेंडा चलाना चाह रही है। अगर ऐसा नहीं होता है तो 20 साल के बिहार सरकार के कामकाज और 11 साल के केंद्र सरकार के कामकाज पर वोट मांगा जाता और आगे के विकास का रोडमैप बिहार की जनता के सामने रखा जाता। विकास की बातें हो रही हैं लेकिन अमित शाह जिस तरह के भाषण दे रहे हैं वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाला है, जिसका नुकसान हो सकता है। उन्होंने सिवान में कहा कि अब सैकड़ों शहाबुद्दीन आ जाएं तब भी लोगों को नहीं डराया जा सकता है। क्या उनको नहीं पता है कि शहाबुद्दीन के जीवनकाल में ही नीतीश कुमार ने ऐसी स्थिति कर दी थी कि लोग उनसे नहीं डरते थे और वे या उनके परिवार का कोई सदस्य चुनाव नहीं जीत पाया। इसी तरह खगड़िया की सभा में अमित शाह ने कहा कि सैकड़ों बख्तियार खिलजी आ जाएं तब भी नालंदा को नहीं जला पाएंगे। हर सभा में वे घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात करते हैं, जबकि बिहार में एसआईआर होने के बाद कितने घुसपैठिए मिले इसका आंकड़ा कोई नही दे पा रहा है।


