दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में लंबी चर्चा और उस पर सरकार के जवाब के बाद भी गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण प्रश्न अब अनुत्तरित बने रह जाते हैं। बहसें दोनों पक्षों के बीच आरोप- प्रत्यारोप का मौका भर बन कर रह जाती हैं।
लोकसभा में ऑपरेशन सिंदूर पर दो दिन की गरमागर्म बहस के बावजूद वे सवाल जहां के तहां हैं, जो मई में चार दिन तक चली इस लड़ाई के दौरान उठे थे। देश को आज भी यह आधिकारिक रूप से मालूम नहीं है कि क्या 6-7 मई की रात भारत के लड़ाकू विमान गिरे, ऑपरेशन सिंदूर अपना मकसद को साधने में कितना कामयाब हुआ और 10 मई को अचानक इसे रोक देने पर भारत सरकार क्यों राजी हो गई थी? सरकार की तरफ से दावा जरूर किया गया कि भारत ने अपना मकसद पूरा किया और युद्धविराम कराने में “किसी विश्व नेता” की भूमिका नहीं थी। मगर ये दावे पहले भी किए गए हैं।
आखिर यह कहने का मतलब क्या है कि भारत का मकसद पूरा हो गया? क्या पाकिस्तान में आतंकवाद का ढांचा नष्ट हो गया है और भारत अब पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की चिंता से मुक्त हो जाने की स्थिति में है? फिर सवाल “किसी विश्व नेता” की नहीं, बल्कि सीधे अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के ढाई दर्जन बार किए दावों को लेकर है कि युद्धविराम उन्होंने करवाया। ऐसे में जब तक सरकार सीधे उनका नाम लेकर दावों का खंडन नहीं करती, इससे जुड़े प्रश्न बने रहेंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में चर्चा और उस पर सरकार के जवाब के बाद भी अब गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित बने रह जाते हैं।
बहसें महज आरोप- प्रत्यारोप का मौका बन जाती हैं, जिस दौरान दोनों पक्षों में यह दिखाने की होड़ रहती है कि उनमें किसने अपने शासनकाल में क्या हासिल किया? दूसरे पक्ष को छोटा दिखाना इसी प्रवृत्ति का दूसरा पहलू है। गौरतलब है कि बहस ऑपरेशन सिंदूर पर हो रही थी। इस पर नहीं कि जवाहर लाल नेहरू की क्या नाकामियां थीं या इंदिरा गांधी कितनी साहसी नेता थीं! कुछेक भाषणों को छोड़ दें, तो ज्यादातर वक्त संसद ऐसे ही अप्रासंगिक दावों एवं आरोपों में उलझी रही। परिणाम यह है कि लंबी बहस के बावजूद दोनों पक्ष अपनी- अपनी राय पर कायम हैं। मतलब यह कि ध्रुवीकृत समूहों के बीच सार्थक संवाद की भूमिका संसद फिर नहीं निभा पाई।