दो तिहाई आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी सरकारी अनाज या कैश ट्रांसफर से चलती हो, तो क्या किसी सरकार को इसे अपनी उपलब्धि बताना चाहिए? या इसे भारत की राष्ट्रीय परियोजना की घोर नाकामी का सबूत माना जाएगा?
केंद्रीय श्रम मंत्री मनसुख मंडाविया ने विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) की बैठक में गर्व से बताया कि भारत सरकार आज 94 करोड़ यानी अपने 64.3 प्रतिशत नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा दे रही है। मंडाविया के मुताबिक 2019 तक सिर्फ 24.4 प्रतिशत नागरिकों को ऐसी सुरक्षा प्राप्त थी। स्पष्टतः 40 फीसदी नए लोगों जो सामाजिक सुरक्षा मिली, वह हर महीने पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज की है। ये योजना कोरोना काल में तात्कालिक राहत देने के लिए शुरू की गई थी। लेकिन वो इस कदर वोट जुटाऊ साबित हुई कि पहले उसकी अवधि बढ़ाई गई। और अब उसे ‘हमेशा के लिए’ लागू कर दिया गया है। मंडाविया जिनेवा में आईएलओ की सामाजिक सुरक्षा समीक्षा बैठक में भारत सरकार का पक्ष रख रहे थे।
इस दौरान उन्होंने यह जिक्र भी किया कि भारत में गिग कर्मियों का पंजीकरण करने, उन्हें विशेष सहायता देने, और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। बहरहाल, इसी मौके पर आईएलओ ने यूनिसेफ के साथ मिल कर तैयार बाल मजदूरी पर अपनी एक रिपोर्ट जारी की। उसमें बताया गया कि भारत में पांच से 14 वर्ष उम्र के तकरीबन एक करोड़ बच्चे मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं। इस क्षेत्र में कार्यरत गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक असल में ये संख्या इससे कहीं ज्यादा है। अक्सर ये बच्चे कृषि, कंस्ट्रक्शन, पारिवार संचालित उद्यमों में और घरेलू सेवक के रूप में काम करते हैं, जिनकी कभी भरोसेमंद गिनती नहीं हुई है।
और ये हकीकत है सरकार की तमाम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बावजूद! वैसे दो तिहाई आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी सरकारी अनाज या कैश ट्रांसफर से चलती हो, तो क्या किसी सरकार को इसे अपनी उपलब्धि बताना चाहिए? या इसे भारत की राष्ट्रीय परियोजना की घोर नाकामी का सबूत माना जाएगा? दरअसल, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, जिसका दोष राष्ट्रीय प्राथमिकताओं, अपनाई गई आर्थिक नीतियों, और राजनीतिक संकल्प के अभाव पर जाता है। मुद्दा यह है कि क्या देश में ऐसी जमीन तैयार करने का लक्ष्य अब पूरी तरह भुला दिया गया है, जिस पर खड़े होकर लोग अपनी प्रतिभा और मेहनत से आत्म-सम्मान की जिंदगी हासिल सकें?