फाउंडेशनल एग्रीमेंट्स के साथ भारत अमेरिका की सामरिक रणनीति में सहयोगी बना, तो अपेक्षा थी कि अमेरिका भारत की सुरक्षा के प्रति समान रूप से संवेदनशील बनेगा। लेकिन ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय उम्मीदों पर अमेरिका खरा नहीं उतरा।
भारत- अमेरिका के बीच रक्षा संबंध और गहरा करने के लिए दस साल के फ्रेमवर्क समझौते पर दस्तखत के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ‘इसका मकसद रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण एवं नीतिगत दिशा प्रदान करना है।’ अगर ऐसा सचमुच हो सका, तो भारत के आश्वस्त रहने के लिए इससे एक बड़ी वजह मिलेगी। मगर ऑपरेशन सिंदूर के दरम्यान भारत को जो तजुर्बा हुआ, उसके मद्देनजर यह अगर बहुत बड़ा नजर जाता है। 2016 से 2020 के बीच रक्षा क्षेत्र में सहयोग के लिए भारत और अमेरिका में चार महत्त्वपूर्ण समझौते हुए थे, जिन्हें फाउंडेशनल (मूलभूत) करार के रूप में जाना जाता है।
लॉजिस्टिक्स आदान-प्रदान मेमॉरेंडम समझौता, संचार अनुकूलता एवं सुरक्षा करार, बुनियादी आदान- प्रदान एवं सहयोग समझौता; तथा आपूर्ति व्यवस्था की सुरक्षा का समझौता होने के बाद आम समझ बनी कि भारत अब अमेरिका की रक्षा धुरी से जुड़ गया है। भारत चूंकि अमेरिका की सामरिक रणनीति में सहयोगी बना, तो यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि अमेरिका भारत की सुरक्षा के प्रति समान रूप से संवेदनशील एवं सक्रिय बनेगा। लेकिन जब पहलगाम में आतंकवादी हमला हुआ और उसके जवाब में भारत ने पाकिस्तान स्थित दहशतगर्द ठिकानों पर हमले किए, तो भारत की उम्मीदों पर अमेरिका खरा नहीं उतरा।
भारत की सुरक्षा के लिए दूसरी बड़ी चिंता चीन है। मगर अब राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप चीन के साथ अमेरिकी संबंध को जी-2 कह रहे हैं। यानी ट्रंप वैश्विक शक्ति संतुलन को द्वि-ध्रुवीय नजरिए से देख रहे हैं। स्वाभाविक है कि उनके इस नजरिए ने भारत में चिंता पैदा की है। साथ ही क्वॉड जैसे समूह की प्रासंगिकता पर इससे सवाल उठ खड़े हुए हैँ, जिसे भारत में चीन को नियंत्रित रखने के अमेरिकी उपक्रम के रूप में देखा जाता रहा है। ऐसे में यह अंदेशा लाजिमी है कि रक्षा सहयोग में भारत की भूमिका कहीं सिर्फ अमेरिकी हितों की पूर्ति करने और दोयम दर्जे के अमेरिकी रक्षा उपकरणों के खरीदार के रूप में ना रह जाए। यही कारण है कि फ्रेमवर्क समझौते पर दस्तखत की ताजा खबर से भारत में कम ही लोग आश्वस्त हुए हैं।


