ट्रंप किसी भी देश के साथ व्यापार समझौता नहीं चाहते। बल्कि उनका पहले से तैयार मनमाफिक एजेंडा है, जिसे वे थोपना चाहते हैं। इस एजेंडे के जरिए वे सारी विश्व अर्थव्यवस्था को पूर्णतः अमेरिकी हित में ढालना चाहते हैं।
अमेरिका ने भारत के सामने कुआं और जानलेवा खाई के बीच एक चुनने का विकल्प रख दिया है। अब ये साफ है कि डॉनल्ड ट्रंप किसी भी देश के साथ कोई व्यापार समझौता नहीं चाहते। बल्कि उनका पहले से तैयार मनमाफिक एजेंडा है, जिसे वे अन्य देशों पर थोपना चाहते हैं। इस एजेंडे के जरिए वे सारी विश्व अर्थव्यवस्था को पूर्णतः अमेरिकी हित में ढालना चाहते हैं। उनकी योजना है कि पूरी दुनिया के धन और संसाधनों का उपयोग अमेरिकी हित में करके “फिर से अमेरिका को महान” बनाया जाए। जापान, यूरोपियन यूनियन, दक्षिण कोरिया आदि अमेरिकी संरक्षण में रहने को मजबूर हैं, इसलिए उन्होंने ट्रंप प्रशासन की तरफ से थोपे गए असमान समझौतों को स्वीकार किया।
वियतनाम और इंडोनेशिया ने शायद इस असमानता में भी अपने लिए लाभ के अधिक तत्व देखे, इसलिए वे भी ट्रंप के एजेंडे में ढल गए। मगर भारत के लिए ऐसा करने की कोई वजह नहीं है। पहली बात यह ध्यान में रखने की है कि ट्रंप की तमाम शर्तों को मानने के बावजूद किसी देश को उनके टैरिफ से निजात नहीं मिली है। सिर्फ दर की बात है, तो भारत पर लगा 25 फीसदी शुल्क अन्य देशों पर लगे शुल्कों के मद्देनजर बहुत बुरी स्थिति नहीं मानी जाएगी। फिर रूस से व्यापार संबंध या ब्रिक्स की सदस्यता को लेकर अतिरिक्त टैरिफ की धमकी से बचने का भारत के पास कोई रास्ता नहीं है।
यानी समझौते से टैरिफ की मार महज कुछ ही हलकी हो सकती थी। उसके लिए ट्रंप की मांग के मुताबिक कृषि, डेयरी, खुदरा कारोबार, ई-कॉमर्स एवं डिजिटल क्षेत्र को अमेरिकी कंपनियों के लिए पूरी तरह खोल देना भारत के लिए बेहद घाटे का सौदा होता। गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार पहले अमेरिकी कंपनियों को आयात शुल्क सहित कई अन्य तरह की राहतें दे चुकी है। अब साफ है कि उनका कोई लाभ नहीं हुआ। अब बेहतर होगा कि मोदी सरकार अमेरिका के सामने अतिरिक्त नरमी दिखाने से बाज आए। इस दौर में अपनी ताकत निर्मित करने और उसकी बुनियाद पर सौदेबाजी करने के अलावा कोई उचित विकल्प किसी देश के पास नहीं है।


