वजह यह है कि 80 साल के इतिहास में इजराइल के सुरक्षा और खुफिया तंत्र को इस तरह किसी ने नहीं भेदा, जैसा करने में ईरान कामयाब रहा है। इसीलिए अमेरिका के लिए पश्चिम एशिया में अपने इस ठिकाने को बचाना बड़ी प्राथमिकता बन गई है।
पश्चिमी मीडिया की खबरों से साफ है कि अमेरिका ईरान के खिलाफ युद्ध में सीधे ना कूदा, तो इजराइल के सामने अस्तित्व का संकट का खड़ा हो जाएगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक इजराइल के मिसाइल इंटरसेप्टरों की संख्या तेजी से चूक रही है। अगर उसी अनुपात में ईरान की मिसाइलों की संख्या नहीं चूक रही होगी, तो हफ्ते- दस दिन बाद इजराइल में फैल रही अभूतपूर्व बर्बादी का दायरा और गंभीर रूप ले लेगा। वैसे छह दिन की लड़ाई में इजराइल ने ईरान को भारी क्षति पहुंचाई है, फिर दुनिया में मुख्य नैरेटिव ईरान की ओर से इजराइल में मचाई गई तबाही को लेकर बना है। वजह यह है कि 80 साल के इतिहास में इजराइल के सुरक्षा और खुफिया तंत्र को इस तरह किसी ने नहीं भेदा, जैसा करने में ईरान कामयाब रहा है।
इसीलिए अमेरिका के लिए पश्चिम एशिया में अपने इस ठिकाने को बचाना बड़ी प्राथमिकता बन गई है। मगर ऐसा करने में ट्रंप प्रशासन के सामने अपनी मुश्किलें हैं। डॉनल्ड ट्रंप “अनावश्यक युद्धों” में अमेरिका की भागीदारी के कड़े आलोचक रहे हैं। उनका मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थक आधार युद्ध में शामिल होने के मसले पर बीचोंबीच बंटा हुआ है। इस खेमे से जुड़ी कुछ शख्सियतों ने आरोप लगाया है कि ट्रंप “न्यू कॉन्स” (नव-अनुदारवादियों) से घिर गए हैं, जिनके खिलाफ मुहिम चलाते हुए उन्होंने मागा आंदोलन खड़ा किया था।
ट्रंप समर्थक एक प्रमुख पत्रकार ने तो यहां तक चेतावनी दी है कि अमेरिका इस युद्ध में शामिल हुआ, तो अमेरिकी साम्राज्य एवं ट्रंप के राष्ट्रपतित्व का अंत हो जाएगा। फिर ये हकीकत भी सामने है कि इस सदी में चाहे अफगानिस्तान हो या इराक या फिर लीबिया हर जगह अमेरिकी सैनिक अभियान से सत्ता तो बदली गई, मगर कहीं भी घोषित सैन्य उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हुई। जबकि ईरान तो उनकी तुलना में अधिक बड़ा और ताकतवर देश है। ऐसे में आशंका है कि अमेरिका वहां लंबे समय तक के लिए उलझ सकता है, जैसा अफगानिस्तान में हुआ था। बहरहाल, वॉशिंगटन को जल्द ही आर-पार का फैसला लेना होगा, यह भी तय है।