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भारत का पार्टनर कौन?

विदेश

दोस्ती या संबंध का इम्तिहान संकट के समय होता है। भारत के सामने सबसे ताजा चुनौती आतंकवाद और उसके संरक्षक- पाकिस्तान को माकूल जवाब देने की है। इस मुद्दे पर अमेरिका और रूस दोनों एक जगह खड़े नजर आए हैं।

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा है कि भारत सहभागियों की तलाश में है, उसे उपदेशकों की जरूरत नहीं है। खासकर ऐसे उपदेशकों की तो बिल्कुल नहीं, जो अपने घर में व्यवहार कुछ और करते हैं और बाहर उपदेश कुछ और देते हैं। जयशंकर ने यह बात यूरोप को निशाने पर रखते हुए कही। इसके साथ ही उन्होंने अमेरिकी और रूसी “यथार्थ” की चर्चा की।

कहा- ‘भारत और रूस एक दूसरे के पूरक हैं- एक संसाधन प्रदाता है और दूसरा उपभोक्ता।’ रूस- यूक्रेन युद्ध के सिलसिले में पश्चिमी नजरिए की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसी दृष्टि ‘यथार्थवाद की बुनियाद को चुनौती देती है।’

भारत की विदेश नीति की असल परीक्षा

फिर जोड़ा- ‘जिस तरह मैं रूसी यथार्थवाद का पैरोकार हूं, उसी तरह अमेरिकी यथार्थवाद का भी। अमेरिका से संबंध बनाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका पारस्परिक हितों की तलाश है, ना कि मतभेदों को सामने लाना और साथ काम कर सकने की संभावना पर उन्हें हावी हो जाने देना।’ तो यह यूरोप, अमेरिका और रूस के बारे में भारत की वर्तमान विदेश नीति की व्याख्या है।

मगर सवाल है कि इस “यथार्थवादी” दृष्टि से हासिल क्या हो रहा है? हर दोस्ती या संबंध का इम्तिहान संकट के समय होता है। भारत के सामने सबसे ताजा चुनौती आतंकवाद और उसके संरक्षक- पाकिस्तान को माकूल जवाब देने की है। मगर इस मुद्दे पर अमेरिका और रूस दोनों एक जगह खड़े नजर आए हैं।

दोनों चाहते हैं कि भारत कोई ऐसी कार्रवाई ना करे, जिससे इस क्षेत्र में बड़े टकराव की शुरुआत हो। रूस ने तो द्विपक्षीय वार्ता से हल निकालने का सुझाव दे दिया है। यूरोपियन यूनियन का भी यही नजरिया है, जिसे भारत खोखला उपदेश मानता है। उधर अमेरिका ने व्यापार युद्ध छेड़ते समय भारत के प्रति कोई नरमी नहीं बरती है।

दरअसल, पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद हुई अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया कुल मिला कर भारत के अनुकूल नहीं रही है। इसलिए यह इस प्रश्न पर आत्म-मंथन का वक्त है कि “सबसे संबंध रखने” और “समान पार्टनर तलाशने” की भारत की विदेश नीति से असल लाभ क्या हुआ है? इस सवाल से आंख मूंदना बुद्धिमानी की बात नहीं होगी।

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Pic Credit: ANI

By NI Editorial

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