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विज्ञप्ति मुद्रक मीडिया?

विश्व ने भारत के आंकड़ों के संबंध में उचित चेतावनी अपनी रिपोर्ट में शामिल की है। मगर पीआईबी ने उसे नजरअंदाज किया। और विज्ञप्ति मुद्रण को पत्रकारिता समझ बैठे मीडिया ने भी तह में जाने की कोशिश नहीं की।

भारतीय संविधान में मीडिया की स्वतंत्रता का कोई अलग प्रावधान नहीं है। ना ही इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। इसके बावजूद मीडिया को ऐसी प्रतिष्ठा मिली, तो उसका कारण उससे जुड़ी अपेक्षाएं हैं। मीडिया सूचना दे, यह उसका काम है। लेकिन साथ ही उससे अपेक्षा होती है कि वह सूचना को समग्रता में दे- और साथ ही उसका सही संदर्भ भी पेश करे। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आम तौर पर मेनस्ट्रीम मीडिया इस बिंदु पर निराश कर रहा है। ताजा उदाहरण विश्व बैंक की गरीबी एवं विषमता संबंधी संक्षिप्त रिपोर्ट है।

भारत सरकार के प्रेस सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने इसमें से सत्ता पक्ष के लिए सुविधाजनक आंकड़े छांटे और प्रेस विज्ञप्ति बना कर जारी कर दिया। देश के लगभग पूरे मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस सूचना का पूरा संदर्भ परखने का प्रयास नहीं किया। नतीजतन, यह हेडलाइन व्यापक रूप से दिखी कि भारत दुनिया में सर्वाधिक समान देशों के क्रम में चौथे नंबर पर है। जबकि विश्व बैंक की संक्षिप्त रिपोर्ट से ऐसी सूरत कतई नहीं उभरती। इस प्रासंगिक पैराग्राफ पर ध्यान देः “भारत में उपभोग आधारित जिनी इंडेक्स 2011-12 के 28.8 की तुलना में सुधर कर 2022-23 में 25.5 हो गया। मगर डेटा संबंधी सीमाओं के कारण मुमकिन है कि गैर-बराबरी की स्थिति वास्तविकता की तुलना में कम दिखती हो।

इसके विपरीत वर्ल्ड इनइक्वालिटी डेटाबेस से जाहिर है कि आय विषमता की जिनी 2004 में 52 से बढ़ कर 2023 में 62 हो गई। वेतन विषमता की दर ऊंची बनी हुई है। टॉप 10 फीसदी आबादी की औसत आय सबसे नीचे की 10 फीसदी आबादी की तुलना में 13 गुना ज्यादा है।” विश्व बैंक या तमाम आधिकारिक एजेंसियां रिपोर्ट तैयार करते वक्त सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल करती हैं। यहां विश्व बैंक को श्रेय दिया जाएगा कि उसने भारत के आंकड़ों के संबंध में उचित चेतावनी अपनी रिपोर्ट में शामिल की है। मगर पीआईबी ने उसे नजरअंदाज किया। और विज्ञप्ति मुद्रण को पत्रकारिता समझ बैठे मीडिया ने भी तह में जाने की कोशिश नहीं की। इस तरह देश में हकीकत के उलट नैरेटिव बनाने में मीडिया ने फिर अपनी भूमिका निभाई है।

By NI Editorial

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