Wednesday

21-05-2025 Vol 19

कांटा फंस गया है

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विचार का मुद्दा यह है कि भारत को मुक्त व्यापार समझौतों में शामिल होना चाहिए या नहीं? इस सवाल पर वर्तमान सरकार की सोच में विसंगति है। आरसीईपी में शामिल होने से इनकार के बाद अलगअलग देशों से ऐसे द्विपक्षीय करार की कोशिश विचित्रसी लगती है।

भारत-ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते की उम्मीद धूमिल हो गई है। ब्रिटिश अधिकारियों ने अब इस बारे में कड़ी भाषा का इस्तेमाल किया है। लंदन के एक अखबार से बातचीत में एक ब्रिटिश अधिकारी ने आरोप लगाया कि भारत सरकार सिर्फ कागजी समझौते कर लेना चाहती है, ताकि देश के अंदर वह अपनी उपलब्धि का ढिंढोरा पीट सके। अधिकारी के मुताबिक भारत में आम चुनाव करीब आने के साथ ही भारत सरकार ने समझौता जल्द संपन्न करने का दबाव बढ़ा दिया है। जबकि मतभेद के मुद्दे जहां के तहां बने हुए हैं। स्पष्टतः मुक्त व्यापार समझौते के तहत दोनों देश अपने-अपने हित साधना चाहते हैँ। भारत चाहता है कि जो भारतीय तकनीकी कर्मी नौकरी करने ब्रिटेन जाते हैं, उन्हें वहां सामाजिक सुरक्षा संबंधी भुगतान से छूट दी जाए। साथ ही जो छात्र वहां जाते हैं, पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्हें दो साल तक रहने की इजाजत मिले, ताकि वे वहां नौकरी ढूंढ पाएं। जिस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने आव्रजन को अपना मुख्य राजनीतिक मुद्दा बना रखा है, इन मामलों में कोई रियायत बरतना उन्हें अपने माफिक महसूस नहीं होता होगा।

दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार चाहती है कि अब ब्रिटिश स्कॉच का सबसे बड़ा आयातक बन चुका भारत इसके आयात शुल्क में भारी कटौती करे। ब्रिटेन एकाउंटैंसी, आर्किटेक्चर और टेक्नोलॉजी सेवा देने वाली अपनी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार में पहुंच के अधिक अवसर भी चाहता है। भारत ऐसी रियायत के लिए राजी नहीं है। जाहिर है, मुद्दा अपने-अपने हितों की रक्षा का है। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारी ने सिर्फ अपने स्वार्थ के नजरिए से एकतरफा बात कही है। कुल मतलब यह कि कांटा फंस गया है। इस संदर्भ भारत में विचार का मुद्दा यह है कि भारत को मुक्त व्यापार समझौतों में शामिल होने की नीति अपनानी चाहिए या नहीं? इस सवाल पर वर्तमान सरकार की सोच में विसंगति है। रिजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकॉनमिक पार्टनरशिप में शामिल होने से इनकार करने के बाद अलग-अलग देशों से ऐसे द्विपक्षी करार की कोशिश विचित्र-सी लगती है। समझौतों में लेन-देन दोनों पक्षों को करना पड़ता है। वरना, वही स्थितियां बनती हैं, जैसी फिलहाल बनी है।

NI Editorial

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