चार पार्टियां जेपीसी में शामिल ना होने की बात कह चुकी हैं। इनमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरे एवं तीसरे नंबर की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टियां- सपा और तृणमूल कांग्रेस शामिल हैं। आम आदमी पार्टी ने भी ऐसा ही एलान किया है।
तीस दिन से ज्यादा जेल में बंद नेताओं को प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री पद से हटाने से संबंधित विधेयक सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नया रणक्षेत्र है। चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, जिसे पारित कराने के लिए दो तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी होगा और ये समर्थन सत्ताधारी एनडीए के पास नहीं है, तो केंद्र ने विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) बनाने का निर्णय लिया। लेकिन विपक्ष इससे आश्वस्त नहीं हुआ है। अब तक चार पार्टियां जेपीसी में शामिल ना होने की बात कह चुकी हैं। इनमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरे एवं तीसरे नंबर की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टियां- सपा और तृणमूल कांग्रेस शामिल हैं। उनके अलावा आम आदमी पार्टी ने भी जेपीसी से अलग रहने का एलान किया है।
संभावना है कि ऐसा ही रुख कुछ अन्य दल भी अपनाएंगे। तो कुल मिलाकर संबंधित विधेयक को संसदीय साख दिलाने और इस बीच दो तिहाई बहुमत का इंतजाम करने की सत्ता पक्ष की रणनीति कारगर होती नहीं दिखती। विपक्षी दलों ने दो-टूक कहा है कि इस विधेयक का निशाना गैर-भाजपा पदाधिकारी बनेंगे। यह सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ते अविश्वास का संकेत है। चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को लेकर दोनों पक्षों के बीच पहले से ही तलवारें खिची हुई हैं। दोनों के बीच चौड़ी होती खाई के पीछे और भी कई मुद्दे हैं। यानी संसदीय लोकतंत्र की बहस- मुबाहिशे से मसलों को हल कर लेने की विशेषता भारत में चूक रही है।
विपक्ष की निगाह में सत्ता पक्ष सिर्फ अपनी नीतियों को लागू करने के क्रम में ही असहमति को नजरअंदाज नहीं कर रहा, बल्कि वह पूरे सत्ता तंत्र पर कब्जा करने की ओर बढ़ रहा है। यह तानाशाही का रास्ता है। यानी आरोप है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सत्ता में आने के बाद वर्तमान सत्ताधारी दल की मंशा लोकतंत्र को महज औपचारिक बना देने की है। इसलिए सत्ता पक्ष से सहयोग की गुंजाइश नहीं है। क्या बनती गई इस स्थिति का यह संदेश नहीं है कि वर्तमान व्यवस्था में भरोसा बरकरार रखते हुए मतभेदों को हल करने की गुंजाइश अब बेहद सिकुड़ गई है?