संघ के अर्थ-समूह में कही गई बातें मोदी सरकार की आर्थिक सफलता के दावों का सिरे से खंडन करती हैँ। कहा जा सकता है कि ये भारत की जमीनी माली हालत का उचित वर्णन हैं। हालांकि ये बातें नई नहीं हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘अर्थ समूह’ की बैठक में वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने लगभग 70 स्लाइड्स के जरिए दिखाया कि देश की आर्थिक प्राथमिकताएं किस हद तक गलत दिशा में हैं। उन्होंने बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी की आलोचना की और भारत में प्रति व्यक्ति आय की निम्न दर की ओर ध्यान खींचा। 91 वर्षीय जोशी ने ग्रोथ केंद्रित आर्थिक विमर्श से बाहर निकलने का आह्वान किया। “डी-ग्रोथ” की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि सार्वजनिक विमर्श का ध्यान आर्थिक वृद्धि दर से हटाने की जरूरत है। मकसद सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करना होना चाहिए। जोशी की प्रस्तुति के बाद संघ सरसंघचालक मोहन भागवत ने उनका समर्थन करते हुए कहा- ‘जोशी जी ने सब कुछ कह दिया है।’
पिछले महीने खुद संघ प्रमुख ने शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं की महंगाई पर चिंता जताई थी। कहा था कि शिक्षा और इलाज सामान्य व्यक्ति की पहुंच से बाहर हो गए हैँ। उन्होंने कहा कि ये सेवाएं कुछ शहरों तक सीमित और इतनी महंगी हैं कि इन्हें पाने के लिए वंचित वर्ग को भारी आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है। ये तमाम बातें नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक सफलता के दावे का सिरे से खंडन करती हैँ। कहा जा सकता है कि ये भारत की जमीनी माली हालत का उचित वर्णन हैं। मगर ये बातें नई नहीं हैं।
अनेक गंभीर अर्थशास्त्री और जमीनी स्थिति से परिचित लोग इस ओर लगातार ध्यान खींचते रहे हैं। मगर आज मीडिया एवं विमर्श पर सत्ता पक्ष का ऐसा नियंत्रण है कि उनकी बातें छोटे से दायरे में सिमटी रही हैं। बहरहाल, आरएसएस के साथ तो ऐसी मुश्किलें नहीं है। दरअसल, नैरेटिव पर सरकार का जो कंट्रोल है, उसका बड़ा हिस्सा संघ की ताकत और प्रभाव से आता है। फिर संघ के पास कार्यकर्ताओं का विशाल नेटवर्क है। तो जाहिर है, उसके अर्थ-समूह में जो समझा और महसूस किया जा रहा है, उस पर मात्र चिंता जता कर वह जिम्मेदारी-मुक्त नहीं हो सकता। वह चाहे तो देश में इस पर माहौल बना सकता है और सरकार पर दबाव भी। मगर इस दिशा में उसने अभी तक शायद ही कुछ किया है। क्यों?