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31-07-2025 Vol 19

बुल्डोजर है सियासी सिंबल

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Supreme court on bulldozer action: सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती सिर्फ कानून की व्याख्या करने की नहीं है। बल्कि उसके सामने कानून के राज को बेमायने कर देने की एक विशेष राजनीतिक परियोजना से कानून की रक्षा करने की चुनौती है।

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चलन उत्तर प्रदेश से शुरू

सुप्रीम कोर्ट ने बिना अदालत की इजाजत के बुल्डोजर से देश में किसी प्रकार के निर्माण को ढाहने पर दो हफ्तों के लिए जो रोक लगाई है, वह न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने रोक की इस अवधि के लिए जो दिशा-निर्देश तय किए हैं, कानून के राज में वे आम चलन का हिस्सा होते हैं। सार्वजनिक स्थलों पर अतिक्रमण कर बनाए गए अवैध निर्माणों को तोड़ना कोई नई बात नहीं है।

नई बात यह है कि बुल्डोजर के जरिए संदिग्ध अभियुक्त के मकान को गिराने का चलन फैल गया है। देखा यह गया है कि संबंधित अभियुक्त अगर मुस्लिम समुदाय का हुआ, तो ऐसी कार्रवाई तुरंत की जाती है। चलन उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ और धीरे-धीरे अन्य भाजपा शासित राज्यों में भी इसे अपना लिया गया।

इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि ऐसे कदमों के जरिए एक तरह का राजनीतिक संदेश भेजने की कोशिश की गई है। बुल्डोजर को ऐसा सियासी सिंबल बना लिया गया है कि अमेरिका स्थित हिंदुत्व समर्थक गुटों ने 15 अगस्त के समारोहों का आयोजन बुल्डोजर रख कर करते देख गए हैं।

चुनौती सिर्फ कानून की व्याख्या करने की नहीं

इधर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के समर्थक उनका उल्लेख ‘बुल्डोजर बाबा’ कह कर करते रहे हैं। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के सामने चुनौती सिर्फ कानून की व्याख्या करने की नहीं है। बल्कि उसके सामने कानून के राज को बेमायने कर देने की एक विशेष राजनीतिक परियोजना से कानून की रक्षा करने की चुनौती है। कोर्ट के जज इस बात से नाराज थे कि उनकी विपरीत टिप्पणियों के बावजूद नेता यह रहे हैं कि बुल्डोजर तो चलते रहेंगे।

क्या कोर्ट ऐसे नेताओं की जवाबदेही तय कर सकने की स्थिति में है? क्या वह उसकी टिप्पणियों, आदेश और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहरा कर ऐसी सजा देने को तत्पर है, जो दूसरों के लिए मिसाल बने? दरअसल, ‘बुल्डोजर राज’ पर न्यायिक हस्तक्षेप बहुत देर से हुआ है। अब तक ये बीमारी बहुत गहरे फैल चुकी है। आरंभ में ही न्यायपालिका ने इसे रोक दिया होता, तो बात यहां तक पहुंचती ही नहीं।

NI Editorial

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